शनिवार, 29 मई 2010

पार्टी में उनकी कोई खास अहमियत नहीं

राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद यादव ने सदा से स्वयं को मुसलमानों का हमदर्द व मसीहा बताया है। लेकिन लगता है कि उनका यह मुस्लिम-प्रेम सिर्फ वोट बैंक की राजनीति है। क्योंकि बात जब उनकी पार्टी में पदाधिकारियों के चयन की आती है, तो उनका असली चेहरा सामने आ जाता है। भले ही उनकी पार्टी के लिए मुसलमान कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हों, लेकिन पार्टी में उनकी कोई खास अहमियत नहीं है। भले ही चुनाव में पार्टी को जिताने में मुसलमानों की ज़बरदस्त भागीदारी रहती हो, लेकिन बात जब पार्टी के पद की आती है, तो मुसलमान सिर्फ 17 फीसद ही रह जाते हैं।
जी हां! लंबी प्रतिक्षा के बाद गुरूवार को राजद की प्रदेश कमेटी के पदाधिकारियों की सूची जारी की गई तो लालू के मुस्लिम-प्रेम का सच भी सामने आ गया। 181 लोगों को पार्टी का पदाधिकारी बनाया गया, जिसमें मुसलमानों की तादाद सिर्फ 31 है। हालांकि सूची में कुछ और नामों के जुड़ने की बात कही गई है। प्रमंडल व ज़िला स्तर पर संगठन सचिव का मनोनयन होना बाकी है।
वर्तमान सूची में पार्टी में प्रदेश अध्यक्ष के अलावा 21 उपाध्यक्ष, एक प्रधान महासचिव, एक कोषाध्यक्ष, 73 महासचिव, 78 सचिव, एक मुख्य प्रवक्ता तथा 06 लोग मीडिया सेल के प्रभारी बनाए गए हैं। इनके अलावा युवा राजद, छात्र राजद, अत्यंत पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ, बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ, शिक्षक प्रकोष्ठ, महिला प्रकोष्ठ, अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ, किसान प्रकोष्ठ, दलित प्रकोष्ठ, क्रीड़ा प्रकोष्ठ, अधिवक्ता प्रकोष्ठ, व्यवसायी प्रकोष्ठ, सांस्कृतिक प्रकोष्ठ, तकनीकी प्रकोष्ठ, पंचायती राज प्रकोष्ठ, आपदा प्रबंधन प्रकोष्ठ तथा बुनकर प्रकोष्ठ के अध्यक्ष के नामों की भी घोषणा की गई है, जबकि श्रमिक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष के नाम की घोषणा नहीं की गई है।
श्री यादव ने इस सूची को संतुलित बताते हुए कहा है कि इसमें समाज के सभी वर्गों खासकर अत्यंत पिछड़ी जाति के लोगों को ज़्यादा महत्व दिया गया है। क्षेत्रीय व जातीय समीकरण का भी ध्यान रखा गया है।



पार्टी में मुस्लिम पदाधिकारियों के नाम व पद:-
अध्यक्ष
अब्दुल बारी सिद्दिकी

उपाध्यक्ष
मो. सुलेमान
मुफ्ती मोहम्मद कासिम
लताफत हुसैन

महासचिव
मंसूर आलम
सरफराज़ आलम
जावेद इकबाल अंसारी
एजाजुल हक़
हाजी अब्दुस सभान
डॉ. इकबाल शमी
मो. खालिद
फैयाज़ आलम कमाल
मो. अल्हास अहमद
रमज़ान अंसारी

सचिव
शाहिद जमाल राइन
तैयब अंसारी
इरशाद अली खां
मो. शमीम
मोइबुल हक़
मुमताज़ अहमद
गुलाम हुसैन चीना
मशरूर अहमद
इनामुल हक़
मो. लईक आज़म
मो. अली राइम

मुख्य प्रवक्ता
शकील अहमद खान

मीडिया सेल
अख्तरूल इमाम
मो. शमीम

अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ
अब्दुल गफूर

सांस्कृतिक प्रकोष्ठ
तनवीर अख्तर

बुनकर प्रकोष्ठ
रजाउर रहमान अंसारी

रविवार, 23 मई 2010

Who forced Minority Commission to dissolve its enquiry panel on Batla?

By Mumtaz Alam Falahi, TwoCircles.net

One and half months after the Batla House encounter, the Delhi Minority Commission set up an enquiry committee to probe the shootout of September 19, 2008. The committee was to submit report within a month. The report is still elusive, and will remain so forever because the committee was dissolved soon after it was formed, and silently. Who forced the commission to do it? No one knows.

The Commission issued the order regarding constitution of a four-member Fact Finding Committee on November 5, 2008 to enquire into the police action in Batla House.

According to the official order, the terms and references of the fact finding team were the following:

a) To assess and analyses facts of the police action inside Flate No. L-18, 4TH Floor, Batla House.
b) To assess and analyse the action of the police subsequent to the police action.
c) To assess and analyse the communal atmosphere prevailing in the area.
d) To assess and analyse the current situation of communal harmony, peace and brotherhood.

The order also said: “This committee shall record the statements of the witnesses and immediate residents of the area individually, analyse them and hold further enquiries for corroboration/derogative of the statements. The committee shall also obtain the version of the Delhi Ploice.”

The Commission gave one-month time to the committee to submit its report: “The Fact Finding Committee shall submit its report within a month.”

The members of the committee were:

Mr. Maqsood Ahmed, Allama Rafiq Trust
Dr. D.K.Panday, DCVS,
Dr. Mahender Singh, Director, Bhai Veer Singh Sahitya Sadan
Rev. Manoj Malaki, The Aradhana Christian Welfare Society

Months passed and even a year and more, there was no report. The community and society also forgot about the minority panel’s fact finding team. Once again came up the 22-year-old ‘veteran’ RTI activist Afroz Alam Sahil. He had not forgotten the announcement of the constitution of the fact finding team. As he has been shown the door at every government agency whenever he approached them regarding facts about the bloody shootout of Batla House, he approached the Delhi Minority Commission hoping to get a copy of the report of its fact finding team.

Afroz filed an RTI petition with the Delhi Minority Commission on April 6, 2010. The reply he got on May 11, 2010 was a setback for this RTI ‘jihadist’ of Batla House post-mortem report fame.

“Minority Commission has not made any report in the Batla House case,” Afroz was told in reply to his question: If Delhi Minority Commission has prepared any report in Batla House encounter case. In reply to next seven questions related to the first one, the same first answer was referred.

A member of the Fact Finding Committee, who wanted to remain unnamed, has been quoted as saying: “The Delhi Minority Commission never seemed serious about the committee and we were never provided any resources. Further the Committee was soon dissolved.”

The question that needs reply is: Who asked the Delhi Minority Commission to set up such Fact Finding Committee in first place, and when it was constituted with high goal, who forced the Commission to dissolve it before it could prepare the report?

शनिवार, 22 मई 2010

“दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग” की कहानी...




बटला हाउस एनकाउंटर मामले में सरकारी विभागों की धांधली ज़बरदस्त रही है। तमाम सरकारी विभागों की पूरी कोशिश रही है कि इसके समस्त सच्चाईयों पर पर्दा डाले रहा जाए। इन्हीं विभागों में एक नाम और जुड़ गया है, वह विभाग है—दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग

दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने बटला हाउस एनकाउंटर मामले की जांच हेतु एक Fact Finding Committee का गठन किया। इस Fact Finding Committee में चार लोगों को शामिल किया गया। उन चार लोगों का नाम निम्नलिखित है:-

1. Mr.Maqsood Ahmed, Allama Rafiq Trust, 722- I&II Floor Community Centre, Sui Walan, Darya Ganj, New Delhi-110002.

2. Dr. D.K.Panday, DCVS, 1/49, Lalita Park, Main Vikas Marg, Laxmi Nagar, Delhi-110092.

3. Dr. Mahender Singh, Director, Bhai Veer Singh Sahitya Sadan.

4. Rev. Manoj Malaki, The Aradhana Christian Welfare Society, 3347, Christian Colony, Karol Bagh, New Delhi.


इस Fact Finding Committee के गठन के निम्नलिखित मक़सद थे:-

The following are the terms of references of Delhi Minorities Commission:-

a) To assess and analyses facts of the police action inside Flate No. L-18, 4TH Floor, Batla House.

b) To assess and analyse the action of the police subsequent to the police action.

c) To assess and analyse the communal atmosphere prevailing in the area.

d) To assess and analyse the current situation of communal harmony, peace and brotherhood.

This committee shall record the statements of the witnesses

and immediate residents of the area individually, analyse them and hold further enquiries for corroboration/derogative of the statements.

The committee shall also obtain the version of the Delhi Ploice.

The Fact Finding Committee shall submit its report within a month.

बहरहाल, इसी सिलसिले में मैंने दिनांक 06.04.2010 को सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत 10 सवालों का एक आवेदन दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग में दिया। जिसके जवाब में बताया गया कि अल्पसंख्यक आयोग ने बटला हाउस एनकाउंटर मामले में कोई रिपोर्ट नहीं बनाई है। फैक्ट फाईंडिंग टीम ने कोई रिपोर्ट आयोग में प्रस्तुत नहीं की, अतः प्रत्यक्षदर्शियों से बातों का विवरण उपलब्ध नहीं है। साथ ही यह भी बताया कि बटला हाउस एनकाउंटर के जांच के मामले में कोई खर्च आयोग द्वारा नहीं की गई है।

मेरे आखिरी सवाल के जवाब में बताया गया है कि सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के प्रवाधान 8(1)(b) और 8(1)(h) के अनुसार सूचना उपलब्ध नहीं कराई जा सकती। आयोग का यह जवाब सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के साथ एक घटिया मज़ाक है।



मेरे द्वारा आवेदन में पूछे गए प्रश्न:-



1. क्या बटला हाउस एनकाउंटर के संबंध में दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने कोई रिपोर्ट तैयार की है।



2. यदि हां! तो रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम के सदस्यों का नाम व उनके पद बताएं।



3. Fact finding team ने कितने प्रत्यक्षदर्शियों से बात की, उनके नाम व पते के साथ पूरा विवरण दें।



4. Fact finding team ने अपनी रिपोर्ट कितने दिनों में तैयार की है। यदि रिपोर्ट एक महीने से अधिक समय में तैयार की गई तो कारण भी बताएं।



5. क्या Fact finding team ने L-18 के उस फ्लोर का दौरा किया, जहां बटला हाउस एनकाउंटर हुआ था।



6. जब Fact finding team अपनी रिपोर्ट तैयार कर रही थी, उस समय जामिया नगर का सांप्रदायिक माहौल कैसा था, उसके बारे में भी जानकारी दें।



7. Fact finding team ने जो रिपोर्ट तैयार की है, ऊसकी

प्रतिलिपी उपलब्ध कराई जाए।



8. इस रिपोर्ट को तैयार करने में आन वाले खर्चों का भी ब्यौरा दें


9. बटला हाउस एनकाउंटर से संबंधित रिपोर्ट को आयोग ने किन-किन सरकारी विभागों, गैर सरकारी संस्थानों और मंत्रालयों को सौंपी है, और उन सरकारी विभागों, गैर सरकारी संस्थानों और मंत्रालयों से मिले जवाब के बारे में भी जानकारी दें, साथ ही प्रतिलिपी भी उपलब्ध कराएं।



10. Fact finding team के सदस्यों के चयन व नियुक्ति की प्रक्रियाओं से संबंधित सभी FILE NOTING की प्रतिलिपी उपलब्ध कराएं।

Delhi Minority Commission abdicating from work

Mohd. Reyaz

Consistent battle for information has unravelled several intriguing truth in the past five years when the RTI Act was passed. The young RTI ‘Maverick’ Afroz Alam Sahil, who has to his credit the post-mortem report of the deceased in the Batla House Encounter, has got another piece of information which is both surprising and reveals the sorry state of affairs of the Delhi Minority Commission (DMC).

Afroz had filed a petition under RTI Act 2005 to enquire about the ‘Fact Finding’ team that was supposedly constituted to ‘assess and analyse facts of the Police action’ inside Flat No L-18 of the Batla House, where the encounter took place. Many locals and human rights activists have questioned the Police version and believe that the encounter was ‘fake’. The reply that Afroz has got says that no fact finding team ever visited the site or talked to locals and never submitted any report. On the question of who comprised of the ‘fact finding’ team it further gives references tosection 8 (b & h) of the RTI Act, which allows the authority to withhold information if prohibited by a tribunal or court; or the reply may endanger the life of the person(s) concerned, respectively.

Interestingly Afroz has a copy of the document which has names of all the members of the said team. Says Afroz, “The report that I had got from the NHRC has a page which says that a fact Finding team would analyse facts and atmosphere, but the subsequent report was missing”. This prompted him to file a separate RTI, but it seems the endeavour has gone waste.

After repeated denial by the Delhi Police and AIIMS, Afroz had filed a RTI with the National Human Rights Commission (NHRC) requesting them to supply information based on which the NHRC has formulated its report and concluded that the encounter was not fake, as largely believed. The copy of documents that he had received comprised of reports submitted by the Additional Commissioner of Police (Vigilance), Special Commissioner of Police (Vigilance), Deputy Commissioner of Police (Crime), Deputy Commissioner of police (Vigilance), Joint Commissioner of Police and Deputy Secretary (Home) of the NCT of Delhi. It also had copies of the post-mortem reports of alleged terrorists and Inspector Mohan Chand Sharma.

The same report has the copy of a letter that talks about the said ‘Fact Finding Committee’ and their objective. But it contains no report. According to this document, the team comprised of four members – Maqsood Ahmed, Dr D. K. Panday, Dr Mahender Singh and Rev. Manoj Malaki. The document dated 5 November, 2008 is signed by then Secretary of DMC Sanjay Pratap Singh. When asked if such a team was actually constituted, Kamal Faruqui, who was the Chairman of the DMC at the time refused to comment.

A member of the supposed Committee, on the assurance of anonymity, told this reporter that the “DMC never seemed serious and that we were never provided any resources. Further the Committee was soon dissolved”.

शुक्रवार, 21 मई 2010

एम्स की एक और कहानी

दिनांक 23 मार्च, 2010 को मैंने एम्स में सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत एक आवेदन डाला। इस आवेदन में हमने 10 प्रश्न पूछे थे। वो प्रश्न इस प्रकार है:-

1. मोहन चन्द शर्मा की Clinical Treatment Report उपलब्ध कराई जाए।

2. आतिफ अमीन, मो. साजिद और मोहन चन्द शर्मा के पोस्टमार्टम के दौरान ली गई सभी तस्वीरों की कॉपी उपलब्ध कराई जाए।

3. आतिफ अमीन, मो. साजिद और मोहन चन्द शर्मा के पोस्टमार्टम के दौरान की गई वीडियोग्राफी की कॉपी उपलब्ध कराई जाए।

4. आतिफ अमीन, मो. साजिद और मोहन चन्द शर्मा यानी तीनों के कपड़ों की फॉरेंसिक रिपोर्ट उपलब्ध कराई जाए।

5. पोस्टमार्टम रिपोर्ट और फॉरेंसिक रिपोर्ट से जुड़ी क्या-क्या Sample और Specimen रखी गई हैं। उसका विवरण दें और यह भी बताएं कि यह कहां-कहां Preserve की गई हैं। इसको देखने लिए Physical Visit का मौक़ा दिया जाए।

6. जिस तरह से आतिफ अमीन, मो. साजिद की पोस्टमार्टम रिपोर्ट की analysis की गई है, वैसा ही विवरण मोहन चन्द शर्मा के बारे में उपलब्ध कराई जाए।

(a) अगर आपके लिए ऐसा करना मुमकिन नहीं है तो इसके कारण भी बताएं।

(b) यह भी बताएं कि मोहन चन्द शर्मा के पोस्टमार्टम रिपोर्ट में आतिफ अमीन, मो. साजिद जैसा विवरण क्यों नहीं दिया गया।

7. आतिफ अमीन, मो. साजिद की लाश आपके यहां कब पहुंची।

8. एनकाउंटर 19 सितम्बर को हुआ था, लेकिन आतिफ अमीन, मो. साजिद का पोस्टमार्टम 22 सितम्बर को क्यों किया गया। इसके कारणों को बताएं। जबकि मोहन चन्द शर्मा का पोस्टमार्टम 20 सितम्बर को ही किया गया।

9. क्या एक दिन ही पहुंचने वाली लाशों के लिए पोस्टमार्टम का दिन अलग-अलग तय किया जाता है। अगर हां! तो इसके लिए शर्तों का विवरण दें। क्या आतिफ अमीन, मो. साजिद के मामले में भी उपयुक्त शर्त लगू होता है।

10. 20, 21, 22 सितम्बर 2008 को आपके यहां कितने शवों का पोस्टमार्टम किया गया और ये लाशें कब-कब आईं थी।


एम्स ने सूचना देने से मना कर दिया। एम्स प्रशासन ने अपने जवाब में कहा कि यह सूचना मेडिको लीगल रिकॉर्डस से संबंधित है। सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 की उपधारा 8(1) जी और उपधारा 8(1) एच के तहत इस तरह की सूचना संबंधित पुलिस थाना/न्यायलय में सम्पर्क करें।



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दिनांक 20 अप्रैल, 2010 को मैंने एम्स प्रशासन को प्रथम अपील दायर किया। इस अपील में निम्नलिखित बिन्दुओं पर प्रथम अपीलीय अधिकारी महोदय का ध्यान आकृष्ठ कराया।



महोदय,


मैंने सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत आपके संस्थान के जन सूचना अधिकारी को दिनांक 23.03.2010 को एक आवेदन दिया था। (आवेदन की प्रतिलिपी संलग्न) आवेदन देने के लगभग 15 दिनों के बाद दिनांक 07.04.2010 को सूचना प्राप्त हुई, जो आवेदक को गुमराह करने वाली है, और सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 का उल्लंघन करती है। क्योंकि मेरे द्वारा मांगी गई जानकारी सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के दायरे में है, और इसके जवाब देने से इंकार नहीं किया जा सकता।


अत: इस संदर्भ में श्रीमान से यह निवेदन है कि सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा-18 या 19(1) के तहत इस विषय पर सुनवाई करते हुए जन सूचना अधिकारी को तुरंत सूचना उपलब्ध कराने का आदेश दें। साथ ही, सूचना के अधिकार अधिनियम के उल्लंघन के लिए जन सूचना अधिकारी पर अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार जुर्माना भरने का आदेश दें।


मैं आशा करता हूं कि मेरे इस अपील या शिकायत पत्र को गंभीरता से लेते हुए इस दिशा में तत्काल कार्यवाही की जाएगी ताकि मुझे जानकारी मिल सके और सूचना कानून में नागरिकों को दिए गए अधिकारों का मान व मर्यादा बनी रह सके।


आपसे न्याय की अपेक्षा सहित,



प्रथम अपील देने के बाद दिनांक 30.04.2010 को प्रो. एम.सी.मिश्रा ने एक पत्र भेजा, जिसमें मेरे द्वारा पूछे गए प्रश्नों के आधी-अधूरी सूचना उपलब्ध कराई गई, जो इस प्रकार है:-


2.सूचना के लिए अधीक्षक हौली फैमिली हस्पताल औखला एवं थानाधिकारी जामिया नगर से संपर्क करें।

3,4,6,7. आतिफ अमीन, मो.साजिद एवं मोहन चन्द शर्मा के शव परीक्षण के दौरान की गई वीडियोग्राफी, फोटोग्राफी (तस्वीर) रखे गए Specimen और Sample (नमूने) या पोस्टमार्टम रिपोर्ट के विश्लेषण संबंधी कोई जानकारी नहीं दी जा सकती है।

संर्दभ:- 1. सूचना का अधिकार अधिनियम 8(g) और 8(h).

2. माननीय दिल्ली उच्च न्यायलय का आदेश दिनांक 30.11.2009 वाद सं. 7930/2009

अतिरिक्त पुलिस आयुक्त (Crime) विरूद्ध केन्द्रीय सूचना आयोग। आपका अंग्रेज़ी में जो

पत्र आया था तथा जिस पत्र का जवाब पहले दे चुके हैं, उसके साथ दिल्ली उच्च

न्यायालय की कापी संलग्न की गई थी, कृपा उस पर गौर करें।

5. सूचना के लिए थानाधिकारी जामिया नगर नई दिल्ली तथा पुलिस आयुक्त क्राइम एवं रेलवे से

सम्पर्क करें।

8. आतिफ आमिन एवं मोहम्मद साजिद को 19.9.2008 को आपातकालीन विभाग में लाया गया था।

9. और 10. शव परीक्षण पुलिस द्वारा लिखित प्रार्थना पत्र एवं संलग्न विवेचना पत्र चिकित्सा

अधिकारी को प्रस्तुत करने पर किया जाता है। जिस दिन यह पत्र प्रस्तुत किए जाते हैं, उसी दिन

शव परीक्षण किया जाता है।

11.20,21 एवं 22 सितंबर 2008 को छः शवों का शव परीक्षण किया गया (3- 20.09.08, 1-

21.09.08 एवं 2- 22.09.08)



कुछ सवाल ये भी हैं...

कहां गई वो इंसानियत... कहां गई वो मां की ममता... क्या हुआ बाप का सारा लाड व प्यार... बहनें जो कभी सहेलियां बन जाया करती थीं... और वो भाई जो कभी दोस्त तो कभी खुद को गार्जियन बन कर धौंस जताते... और तो और उन पड़ोसियों का क्या हुआ, जो सदा हमदर्द बने हर समारोह में शामिल होते, संग रहने का वादा करते... क्या बचपन में तोड़े खिलौनों की तरह, क्या गुड्डे और गुड़ियों के खेल की तरह बड़े होकर अपनी दोस्ती भी तोड़ दी... क्या कभी उन्हें वो दर्द भरी आखिरी आवाज़ सुनाई नहीं देती, जो उनके अपने रिश्तेदार व नातेदार थे। बात सिर्फ निरूपमा या मीना गोला की नहीं, बल्कि उन तमाम युवा व युवतियों की है, जो खुद उनके अपने उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं। क्यों उन्हें जीने का अधिकार नहीं..? क्या ये अपनी पसन्द की ज़िन्दगी नहीं गुज़ार सकते..?

इस बात से कौन इंकार करता है कि मां-बाप ही सदा अपने बच्चों का भला चाहते हैं। लेकिन ये मां-बाप का कौन सा रूप है, जो हमें इस कलयुग में देखने को मिल रहा है। बहनें क्यों बदल गई..? भाई का प्यार कहां चला गया..? वो रिश्ते व नातेदार... वो पड़ोसियों का संग... क्या हुआ..?

माना कि अपने घर वालों के खिलाफ जा कर कोई फ़ैसला नहीं करनी चाहिए। लेकिन क्या अपने पसन्द का साथी चुनने का अंजाम सिर्फ मौत ही है। खुद हमारे अपने विद्यालय रूपी घर से यह सुनने को मिलता है कि हम उसे प्यार करें, जो हमें चाहता हो। तो फिर क्यों उनकी शिक्षा समय आने पर अचानक बदल जाती है..? हमारे अपने हमसे इस शिक्षा का गुरू-दक्षिणा सिर्फ हमारी मौत से ही लेंगे..? क्या ऐसी घटना सिर्फ हमारे समाचार-पत्रों की सिर्फ एक मामूली सी खबर बनकर रह जाएगी, जो कई बार तो दबा दी जाती हैं।

ज़रा सोचिए! इन मासूमों का कसूर ही क्या था..? अभी तो इन्होंने इस दुनिया को ठीक से देखा भी नहीं था। उनकी लाश तो कहीं दबी मिल गई, लेकिन क्या कभी उनके रूह को इंसाफ मिल पाएगा..?

आज भी हमारे भारतीय समाज में कुछ ऐसे समुदाय हैं, जहां इन बेगुनाह व बेकसूर मासूमों की मौतों का पता तक नहीं चल पाता। सच पूछिए तो हमारे देश में हर दिन सैकड़ों निरूपमा अपने घर वालों की ही शिकार बन रही हैं। निरूपमा तो जर्नलिस्ट थी, लेकिन गांव के उस लड़की के बारे में सोचिए, जिसकी मौत की भनक तक मीडिया को नहीं है। घर वाले अपनी झूठी शान की खातिर इन्हें मारते हैं और मीना गोला की तरह जल्द से जल्द जला डालते हैं।

अफ़सोस की बात तो यह है कि जो घटना हमारे सामने आ भी जा रही हैं। उसका रहस्य साफ नहीं हो पा रहा है। निरूपमाआई.आई.एम.सी. की छात्रा थी। खुद एक जर्नलिस्ट थी। बुराईयों का पर्दाफाश करने की लगातार कोशिश कर रही थीं। लेकिन उसे क्या पता था कि खुद उसके अपने उसके लिए क्या जाल बुन रहे हैं, और वो उन्हीं के हाथों मौत की घाट उतार दी जाएगी।

जहां हमारा देश तमीज़, तहज़ीब, सभ्य और शांति का प्रतीक माना जाता है। जहां हर धर्म के लोग एक साथ रहते हैं। जहां समानता का अधिकार है। वहीं एक तरफ हमारे अपने अपना परम धर्म निभाना भूल गए हैं। खुद की औलाद को मौत के घाट उतार रहे हैं, और बदले में दूसरे मासूम को फंसा देते हैं। ऐसे में ज़रूरत है इस देश में एक ऐसे कानून की, जिससे कि फिर कोई परिजन अपनी औलाद को प्यार करने के जुर्म में दुबारा न मार सके।

यरम नूर सूमी

रविवार, 16 मई 2010

मीना गोला कांड....


नैनीताल में मेरा पहला दिन था। छत पर बैठा अखबार में निरुपमा कांड की खबरे पढ़ रहा था। अभी इसके बारे में सोचना शुरू ही किया था कि बाहर दूर से कहीं नारों की आती आवाज़ मेरे कानों में गुंजने लगी। कुछ ही पलों में मैं भी सड़कों पर था। वहां देखा कि महिलाओं व कुछ मर्दों ने रैली निकाली थी। मैं उस रैली को बगैर समझे उसकी तस्वीरें लेने लगा। धीरे-धीरे पूरी कहानी मेरे समझ में आने लगी। साथ ही और भी जानने की उत्सुकता भी बढ़ने लगी।
दरअसल, क्रालोस, पछास, इमके, आर.डी.एफ., उत्तराखंड लोक वाहिनी, बोरारो विकास संघर्ष समिति, महिला एकता परिषद द्वाराहाट, जनमैत्री संगठन द्वारा बनाए गए दमन विरोधी मोर्चा के बैनर तले दर्जनों मांगों को लेकर सैकड़ों कार्यकर्ता पूर्व नियोजित कार्यक्रम के तहत मल्लीताल में एकत्र हुए थे। वहां से माल रोड होते हुए कमिश्नरी तक यह जुलूस निकाला था। इस जुलूस में कई सारे मुद्दे थे। कई मांगें थी। जैसे, छेड़छाड़ के दोषी सिरोही को गिरफ्तार करो... फर्जी मुकदमों, गैंगस्टर में बंद श्रमिक, नेताओं व उनके समर्थकों को रिहा करो... श्रम कानून लागू करो... पुलिस प्रशासन प्रबंधन के इशारे पर नाचना बंद करो... मजदूरों को संगठित करना और उनकी यूनियन बनाना जायज़ कानूनी अधिकार है, इसका हनन बंद करो... आदि-अनादि...
इन सब मुद्दों में एक कहानी ऐसी भी थी, जो निरुपमा कांड से मिलती जुलती है।
मीना गोला कांड.... परिवर्तनकामी छात्र संगठन (पछास) की सक्रीय कार्यकर्ता मीना गोला का उसके परिजनों ने गांव के कुछ दबंगों के साथ मिलकर 4 अक्टूबर, 2009 को हत्या कर दी थी। दरअसल, मीना के घर वाले उसकी शादी अपने किसी जानने वाले से कराना चाहते थे, पर मीना तैयार न थी।
मीना की दोस्त रजनी जोशी बताती हैं कि हत्या के बाद से ही पछास और महिला उत्पीड़न विरोधी संयुक्त मोर्चा मीना के हत्यारे परिजनों को सज़ा दिलाने के लिए आंदोलन करते रहे हैं। इसी क्रम में 15 व 16 जनवरी, 2010 को धरना, 18,19 व 20 जनवरी को क्रमिक अनशन एवं 21 से 25 जनवरी तक आमरण अनशन किया, जिसके बाद 26 जनवरी को प्रशासन से समझौता हुआ कि 2 माह के भीतर पूरी जांच कर आवश्यक कार्यवाही की जाएगी। (लेखक के पास समझौता-पत्र मौजूद है।) लेकिन दो माह बाद जब मोर्चा के पदाधिकारी एस.डी.एम. से मिलने गए तो उन्होंने जांच पूरी न होने की बात कह कर समझौते को तोड़ दिया। इस प्रकार अपने लिखित समझौते से मुकर कर प्रशासन ने एक बार फिर अपराधियों को बचाने का प्रयास किया है, और अभी तक भी जांच पूरी नहीं हुई है।
रजनी जोशी बताती हैं कि इस प्रकरण में पुलिस व प्रशासन की भूमिका हत्या के दिन से 6 माह तक हत्यारों को बचाने की रही है। 4 अक्टूबर, 2010 को जब फोन पर हत्या की सूचना पुलिस को दी तो पुलिस घटना-स्थल पर नहीं पहुंची। शाम को जब लिखित तहरीर कुण्डा थाने में देने गए तो पुलिस ने तहरीर रिसीव नहीं की। घटना के 21 दिन बाद जब डी.जी.पी. काशीपूर में जनता दरबार में आए तो पछास कार्यकर्ताओं को डी.जी.पी. से मिलने से रोकने में पुलिस अपना पूरा ज़ोर लगा दिया। काफी संघर्ष के बाद पछास कार्यकर्ता डी.जी.पी. से मिले, तब जाकर पुलिस ने मात्र आत्महत्या को उकसाने व साक्ष्य मिटाने का मुकदमा मीना के परिजनों पर लगाया, लेकिन उनको गिरफ्तार फिर भी नहीं किया। आमरण अनशन के दौरान भी मित्र पुलिस अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आई। वह रात में आकर आंदोलनकारियों को धमका रही थी। अनशन पर बैठे लोगों को जबरन उठाकर अस्पताल ले जाकर अनशन तुड़वाने की कोशिश की गई। पुलिस-प्रशासन की शह पाकर दबंगो द्वारा आंदोलनकारियों पर झूठे आरोप लगाए। जब महिला एकता मंच 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मीना के गांव बैंतवाला में सभा करने जाने लगे तो प्रशासन पूरे फोर्स के साथ जुलूस को रोकने का प्रयास करती है, और बैंतवाला गांव इस कार्यक्रम के लगे पोस्टरों को फाड़ दिया जाता है। 8 मार्च के ही दिन बैंतवाला गांव में लाठी-डंडों-पत्थरों से लैस दबंग लोग जो महिला एकता मंच के कार्यकर्ताओं पर हमला करने को तैयार थें, पर उन पर पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं किया।
पछास कार्यकर्ता मुकेश के मुताबिक इस मामले में पुलिस के चरित्र को उजागर करने की लंबी फेहरिस्त है। जिससे साफ तौर पर ज़ाहिर होता है कि पुलिस हत्यारों को बचाने के पूरे प्रयास में है। स्थानीय सांसद महोदय भी इस घटना से न सिर्फ वाकिफ हैं, बल्कि आमरण अनशन पर आकर उन्होंने हत्यारों की गिरफ्तारी का वचन भी दिया। लेकिन जैसा कि हमेशा होता है, जनता से किए अनेक वायदों से मुकरने की तरह वे इस वायदे से भी मुकर गए।
इस मामले में पछास कार्यकर्ताओं ने सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 का इस्तेमाल भी किया, लेकिन इन्हें कोई भी संतोषजनक सूचना प्राप्त नहीं हुई। यही नहीं, इस मामले में कई पत्र व आवेदन विभिन्न अधिकारियों को सौंप चुके हैं, पर कोई सुनवाई व कार्यवाही नहीं हुई। इस मामले में एक Fact Finding Team की एक रिपोर्ट भी मुझे प्राप्त हुई है, जिसे बहुत जल्द सूचना एक्सप्रेस के माध्यम से आपके समक्ष पेश करूंगा। उससे भी दिलचस्प बात यह है कि जब मैं इस मामले के संबंध में कुछ कागज़ात फोटो-कॉपी करा रहा था तो कुछ लोगों ने मुझे इस मामले से दूर ही रहने की सलाह दी। खैर, सच्ची पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों से निवेदन है कि इस मामले को परखने के बाद अपनी भी कलम चलाने की कृपा करें। इस संबंध में कई कागज़ात मुझसे भी प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए आप हमें afroz.alam.sahil@gmail.com पर मेल भी कर सकते हैं या +91-9891322178 पर फोन भी कर सकते हैं। खैर नैनीताल की मेरी और यादों को पढ़ने के लिए पढ़ते रहिए http://suchnaexpress.blogspot.com

क्या क़ानून सिर्फ अमीरों के लिए है...?

निठारीकांड में फांसी की सज़ा सुनाए जाने की खबर से सुरेन्द्र कोली के गांव मंगरूखाल के लोग सदमे में हैं। मुफलीसी में जीवन जी रहा सुरेन्द्र के परिवार को अब उपरवाले पर ही भरोसा है। अपने मायके पौड़ी ज़िले के वीरोंखाल ब्लॉक के जमरिया गांव में रह रही उसकी पत्नी शांति देवी को अपनी 6 वर्षीय लड़की व ढ़ाई वर्षीय पुत्र के भविष्य की चिंता सताने लगी है।
तीन साल से अपने बेटे का इंतज़ार कर रही 70 वर्षीय मां कुन्ती देवी की आंखे पथरा गई हैं। बूढी मां कुन्ती देवी सुरेन्द्र को बेगुनाह मानते हुए कहती हैं कि ऊपरवाला उन्हें न्याय देगा।
शांति देवी पिछले तीन वर्षों से पहाड़ सा दर्द झेलते हुए न्याय की उम्मीदों के साथ जी रही हैं। घर में खाने के लाले पड़ना रोज़ाना की बात हो गई है। साथ ही दो बच्चों के भविष्य की चिंता भी है। लेकिन अदालत के फैसले के बाद उसका कानून पर से भरोसा टूट चुका है। नम आंखों व रुंधे गले से शांति कहती हैं कि कानून सिर्फ अमीरों के लिए ही बना है।
सुरेन्द्र की सज़ा से उसकी पत्नी शांति टूट चुकी हैं। शांति को 26 दिसंबर 2006 का दिन याद है। इसी दिन गांव आए सुरेन्द्र को कुछ लोग दिल्ली बुलाकर ले गए थे। इसके बाद उसने पति के निठारी कांड में शामिल होने के बारे में सुना।
शांति को अब भी न्याय की उम्मीद है, पर कानून पर से उसका भरोसा उठ चुका है। शांति का कहना है कि अगर मेरा पति दोषी है तो सज़ा ठीक है, लेकिन इस मामले में शामिल अन्य लोगों को सज़ा क्यों नहीं मिली..? उसका सवाल है कि पैसे वालों के लिए जेलें नहीं बनी हैं क्या..?
वास्तव में ये वो सवाल हैं जिनका जवाब हम सब को मिलकर तलाशना ही होगा। नहीं तो देश के समस्त कानूनों पर से गरीबों का भरोसा उठ जाएगा और कानून अमीरों की रखैल बन कर रह जाएगी।