खबर है कि बिहार में एड्स मरीज़ों की तादाद लगातार बढ़ती ही जा रही है। सिर्फ पश्चिम चम्पारण ज़िले में वर्ष 2009 के नवम्बर माह तक 256 लोग इससे संक्रमित पाए गए। अप्रैल 2009 से दिसंबर 2009 तक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार नरकटियागंज में एचआईवी पीड़ितों की संख्या 23 है।
इधर हालात को देखते हुए आलोक कुमार सिन्हा की ओर से दायर लोकहित याचिका पर सुनवाई के दौरान पटना हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की जमकर फटकार लगाई है। कोर्ट का आदेश है कि एड्स कंट्रोल बोर्ड में रिक्त पदों को हर हाल में जनवरी 2010 तक भर लिया जाए। अदालत ने एड्स से लड़ने के लिए मिले पैसे का समुचित उपयोग करने की भी बात कही। मामले की अगली सुनवाई की तारीख फरवरी 2010 के पहले सप्ताह में तय किया गया है।
हालांकि विश्व एड्स दिवस यानी दिसम्बर 01 को पश्चिम चम्पारण एवं पूर्वी चम्पारण के विभिन्न छोटे-बड़े शहरों व गांव में एड्स के खिलाफ कार्यक्रमों का तांता लगा रहा। हज़ारों-हज़ार छात्र-छात्राएं, एन.एस.एस., एन.सी.सी. कैडेट्स, स्वास्थयकर्मी, समाजसेवी और राजनीति के पुरोधा इन कार्यक्रमों में शामिल हुए। सभी के ज़ुबान पर एक ही नारा गूंज रहा था- ‘हमने यह ठाना है, एड्स को भगाना है।’ बीच-बीच में एड्स के खिलाफ जागरूकता हेतु भाषणबाज़ी, नुक्कड़-नाटक एवं काव्य पाठ की फुलझरियां भी छुटती रही। जानकारों का अनुमान है कि इस दिन दोनों ज़िलों में सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं एवं संगठनों द्वारा इन आयोजनों पर कागज़ में ही सही कम से कम 40-50 लाख का ज़रूर वारा न्यारा हुआ होगा। ऐसा नहीं है कि इस वर्ष ही एड्स के खिलाफ ऐसे कार्यक्रमों के साथ-साथ एक मेले का तुफान आया हो, बल्कि ऐसा कार्यक्रम एवं मेला-ठेला इस दिन वर्षों से जारी है।
इन कार्यक्रमों के आयोजकों के उत्साह समर्पण तथा परिश्रम को देखा जाए तो ऐसा लगेगा कि एड्स इनसे भयभीत होकर अपना पछुआ खोल भाग खड़ा होगा। उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि विगत एक दशक में विभिन्न अंतराष्ट्रीय व राष्ट्रीय संगठनों ने एड्स नियंत्रण एवं उसके बारे में प्रचार-प्रसार आदि पर करीब कम से कम 20 करोड़ रुपयों से ज़्यादा पानी की तरह बहाया है, परन्तु भारत-नेपाल सीमा पर स्थित इन दोनों ज़िलों में एड्स या एचआईवी पोजीटिव मरीज़ों की तादाद लगातार बढ़ती ही जा रही है। लगता है कि रामायण कालीन सुरसा की तरह एड्स यहां की गरीब जनता को निगलता ही रहेगा। आंकड़े बताते हैं कि पूर्वी चम्पारण ज़िले में वर्ष 2007 से लेकर अब तक 969 एचआईबी रोगी चिन्हित किए गए हैं।
जानकारों के मुताबिक़ ये आंकड़े भ्रामक हो सकते हैं। क्योंकि एड्स नियंत्रण में लगी ज़्यादातर संस्थाओं का कार्यक्रम कागज़ातों, कम्प्यूटरों एवं बैनरों पर ही चलता है। चाहे वो सरकारी संस्थाएं हों या गैर सरकारी। फिर भी इसमें लगे संगठनों के द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़े ही स्वयं गवाह हैं कि एचआईवी पोजीटिव यानी एड्स मरीज़ों की संख्या विगत वर्षों में निरंतर बढ़ती ही जा रही है। कुछ लोगों का दावा है कि दोनों ही ज़िलों में पांच हज़ार से ज़्याद एड्स रोगी हैं।
अब अगर बात संपूर्ण बिहार की करें तो बिहार सरकार इस मामले में कुछ ज़्यादा ही सजग है। सिर्फ 01 दिसम्बर ही नहीं, बल्कि 02 दिसम्बर को भी एड्स दिवस सेलीब्रेट किया गया। इस दिन भी संपूर्ण बिहार में मेले-ठेले व कार्यक्रमों का इंतज़ाम हुआ। कई सरकारी कार्यक्रम में नीतिश जी ने भी अपनी उपस्थिती दर्ज कराई और लोगों को एड्स के प्रति लड़ने क जागरूक करते नज़र आए।
आंकड़े बताते हैं कि बिहार में इस मर्ज के रोगी दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। बिहार राज्य एड्स नियंत्रण समिति के द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार वर्ष 2001 में महज़ एक मर्द व एक औरत एचआईवी पोजीटिव थे तो एक साल बाद यानी 2002 में इनकी संख्या बढ़कर 558 हो गई। वर्ष 2003 में एचआईवी रोगियों की संख्या 1108, वर्ष 2004 में 1148, वर्ष 2005 में 2432, वर्ष 2006 में 3789, वर्ष 2007 में 5283, वर्ष 2008 में 5933, जबकि वर्ष 2009 में अब तक इनकी संख्या 5955 रही। अर्थात ये आंकड़ें 26798 तक पहुंच चुकी हैं। इनमें 16275 मर्द, 9751 महिलाएं और 772 ऐसे बच्चे हैं जो गर्भ से ही एचआईवी पोजीटिव पाए गए हैं। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि ये आंकड़ें सिर्फ उन लोगों से तैयार किया गया है जो किसी न किसी तरह अस्पताल या जांच कैम्प तक गए। अगर यह जांच बड़े पैमाने पर गांव तक चलाई जाए तो यह आंकड़े काफी चौंकाने वाले हो सकते हैं।
यह तो बात हुई रोगियों के संख्या की। आईए अब बात करते हैं कि इस मर्ज़ के नाम पर सरकार कितने पैसे खर्च कर रही है। बिहार राज्य एड्स नियंत्रण समिति के द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार वर्ष 2007-08 में 8,97,74,703/- रुपये (आठ करोड़ सन्तान्वे लाख चौहत्तर हज़ार सात सौ तीन रुपये) खर्च हुए। इसमें से 1,23,65,487/- रुपये (एक करोड़ तेइस लाख पैसठ हज़ार चार सौ सतासी रुपये) सराकर ने गैर सरकारी संगठनों को उपलब्ध कराए हैं।
वर्ष 2006-07 में 15,34,82,042/- रुपये (पंद्रह करोड़ चौतिस लाख बियासी हज़ार बियालिस रुपये) खर्च हुए। वर्ष 2000-01 से लेकर वर्ष 2005-06 तक 5518.20 लाख रुपये खर्च हुए। जबकि वर्ष 1998-99 में 3,06,99,713/- रुपये (तीन करोड़ छः लाख निन्यान्वे हज़ार सात सौ तेरह रुपये) खर्च हुए।
प्रश्न उठता है कि इतनी सारी संगठनों के एड्स के विरूद्ध युद्ध में लगे रहने तथा करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद आखिर इस सुरसा जैसी आतंकवादी बीमारी पर अंकुश क्यों नहीं लग पाया है। इस बीच सरकार भी नरेगा के तहत मजदूरों का पलायन रोकने हेतु करोड़ो-करोड़ रुपया खर्च कर रही है, फिर भी पलायन जारी है और बाहर से घर लौटने वाले मजदूर एड्स सौगात के रुप में लाते हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कहना कि एड्स युद्ध में लगे सभी सरकारी-गैर सरकारी संगठनों ने मेला-ठेला आयोजनों के सिवा कुछ किया ही नहीं है और एड्स नियंत्रण के नाम पर उपलब्ध करोड़ों रुपये बिना ढ़कारे ही डकार गए, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह भी कहना गलत नहीं होगा कि नरेगा कार्यक्रम यहां महज़ एक दिखावा रहा है और मजदूर बराबर पलायन को विवश रहे हैं और घर लौटते समय सौगात के रुप में एड्स को लाते रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति में इन ज़िलों में एड्स महामारी लगाम लगाना संभव हो पाएगा? क्या चम्पारण ज़िले के निरीह लोग इस काल के गाल में समाते रहेंगे? और संगठनें मेला-ठेला की आड़ में लूट मचाते रहेंगे? खैर अब उम्मीदें कोर्ट से हैं। शायद वो ही इस दिशा में कोई कारगर कार्रवाई कर सकती है।
अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’
मंगलवार, 26 जनवरी 2010
एड्स महामारी लगाम लगाना संभव हो पाएगा?
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणियाँ:
Learn wisdom by the follies of others. ..................................................
एक टिप्पणी भेजें