बुधवार, 8 जून 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ़ झंडाबरदारों के नाम खुला पत्र

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महोदय,

आज देश में भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ़ मुहिम ज़ोरों पर है। इस कैंसर से लड़ना वक़्त की ज़रूरत भी है। हाल में सामने आए भ्रष्टाचार के मामले इस बात की गवाही देते हैं कि देश में इसकी जड़ें कितनी गहरी हैं। बानगी के तौर पर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला और आदर्श घोटाले का ज़िक्र किया जा सकता है।

यही वजह थी कि जब अन्ना हज़ारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आमरण अनशन का एलान किया तो लोगों का आक्रोश साफ दिखा। आम लोगों के साथ-साथ सिविल सोसाइटी के सदस्य भी इस आंदोलन से जुड़ते चले गए।

इस मुहिम में ये बात भी देखने को मिली कि किस तरह दो धूरी के लोग मंच साझा करते नज़र आए, हालांकि देश इससे पहले भी इस तरह के नज़ारों का साक्षी रहा है। 1977 के आंदोलन में वामपंथ और दक्षिणपंथ सारथी बने थे, लेकिन इसकी कीमत भी देश को चुकानी पड़ी थी।

ऐसी स्थिति में ये सवाल उठना लाज़मी है कि क्या इतिहास खुद को दोहरा रहा है। ये सवाल इसलिए भी अहम हो जाता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मौजूदा मुहिम के झंडाबरदारों में कईयों के अतीत संदिग्ध हैं। अन्ना हज़ारे हों या बाबा रामदेव अपने-अपने कार्यक्षेत्र के दिग्गज हैं, लेकिन समाजिक समरसता के ताने-बाने को बुनन में इनकी भूमिका नगण्य हैं।



चंद ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब इन झंडाबरदारों से लाज़मी है।

आखिर भ्रष्टाचार की परिभाषा क्या है और क्या अन्ना हज़ारे के सामने केवल वित्तीय अनियमितताएं ही भ्रष्टाचार के दायरे में आती हैं। अन्ना 1975 से ही विभिन्न आंदोलन के अगुवा रहे हैं। लेकिन इस तथाकथित गांधीवादी ने कभी भी किसी सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठाई। इनके गृह राज्य महाराष्ट्र में ही सैकड़ों ऐसे मामले देखने को मिलते हैं जब हिंदुत्ववादी शक्तियों ने मुसलमानों को निशाना बनाया। इसमें प्रशासन ने भी मुसलमानों के साथ पक्षपात किया, लेकिन इन अत्याचारों के खिलाफ़ अन्ना की आत्मा नहीं जागी।

गुजरात दंगा, मेरठ दंगा, अलीगढ़ दंगा, भागलपुर दंगा, सोहराबुद्दीन फर्ज़ी एनकाउंटर और बटला हाउस फर्जी एनकाउंटर, आदि-अनादि। ये सिर्फ बानगी भर हैं। सच तो ये है कि आजाद भारत ऐसे लाखों मामलों का साक्षी रहा है।

राज ठाकरे को फांसी की मांग क्यों नहीं करते अन्ना.... किसानों के लिए अनशन क्यों नहीं। गांधी आश्रमों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर क्यों नहीं बोलते। नीबू पानी की जगह जिस “निम्बूज़” से उन्होंने अपने साथियों का अनशन खुलवाया वो किस ग्रामोद्योग में बनता है। राम माधव ने विचारधारा की तलवार से क्या इस देश की संस्कृति को भ्रष्ट नहीं किया है।

पैसे से जुड़ा भ्रष्टाचार ही अगर मुद्दा है तो अन्ना की ईमानदारी मैं भी मानता हूं पर ईमानदार आदमी अगर बेइमानों के हाथ इस्तेमाल हो जाए तो इससे खतरनाक क्या होगा और अन्ना इतने नासमझ नहीं कि इन बातों को न जान सकें।

बाबा रामदेव का अतीत तो जगजाहिर है। पारदर्शिता की बात करने वाले इस बाबा के को दामन और भी दाग़ार हैं। कभी हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा को चंदा देते हैं तो कभी साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ गलबहियां करते नज़र आते हैं।

बाबा के अतीत को लेकर सवालों की एक लंबी फेहरिस्त है। पतंजलि योग संस्थान की आय के स्रोतों पर सवाल है। उनके विरोधी उन पर अध्यात्मिक गुरु शंकर देव के कत्ल का इल्जाम भी लगाते हैं। बताया जाता है कि गुरु शंकर देव और बाबा रामदेव एक साथ रहते थे। एक दिन गुरु शंकर देव अचानक गायब हो गए। जिनका पता आजतक किसी को भी नहीं चला। आस्था चैनल को जबरिया हथियाने का आरोप है। उसके हेड सी. मेहता को अगवा करने और जान से मारने की धमकी देने का इल्जाम है। संत समाज के नाम पर राजनीति करने की इच्छा का आरोप है। बाबा के विरोधी उन पर धर्म के नाम पर धंधा करने का भी आरोप लगाते हैं। हाल फिलहाल स्वाभिमान ट्रस्ट के सचिव रहे राजीव दीक्षित की रहस्यमय मौत के सिलसिले में भी बाबा सवालों के घेरे में हैं। राजीव दीक्षित कभी बाबा के स्वदेशी आंदोलन के सबसे बड़े अगुवाकार हुआ करते थे। मगर बाद में स्थितियां बदलती गईं। दोनो के बीच के अंतर विरोध खुले विरोध की कगार पर पहुंच गए।

चार जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में उनके आंदोलन में साध्वी ऋतंभरा का आना बहुत कुछ जाहिर कर देता है।

इस मुहिम के एक और झंडाबरदार अरविंद केजरीवाल जो खुद को पारदर्शिता के चैम्पियन के तौर पर पेश करते हैं, उनके के साथ मेरा तजुर्बा भी कम दिलचस्प नहीं है। यह वही अरविन्द केजरीवाल हैं, जो सुन्दर नगरी की देन की वजह से मैग्सेसे अवार्डी है। अरविन्द तो कहां से कहां पहुंच गए लेकिन ये सुन्दरनगरी वहीं की वहीं है। सुन्दर नगरी खासतौर से मुसलमानों का इलाक़ा है और ये अरविन्द को जानते तक नहीं। (अगर अब मीडिया की वजह से जान गए हों तो अलग बात है।) बिहार में जानकारी कॉल सेन्टर खुलवाने में अरविन्द का बहुत रोल रहा था। इससे सुशासन बाबू नीतिश की छवि काफी बेहतर बनी थी, पर आज कॉल सेन्टर, बस भूल ही जाईए। ऐसा नहीं है कि अरविन्द इस कॉल सेन्टर की सच्चाई से वाकिफ नहीं हैं। आज अरविन्द को आर.टी.आई. के छोटे सेमिनारों में जाना अच्छा नहीं लगता। उनके पास तो लोगों को आर.टी.आई. अवार्ड से फुर्सत नहीं है, और फुर्सत हो भी क्यों, आखिर इस आर.टी.आई. अवार्ड के बहाने इंफोसिस और टाटा फाउंडेशन से चंदा जो लेना है।

ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि न केवल भ्रष्टाचार की परिभाषा को व्यापक किया जाए बल्कि इनके पुरोधाओं के अतीत को भी जाना जाए।



अफ़रोज़ आलम साहिल

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