केंद्रीय सूचना आयोग का यह निर्णय स्वागत योग्य है कि आम नागरिक राजनीतिक दलों के आयकर रिटर्न का ब्यौरा मांग सकते है। सूचना आयोग ने यह निर्णय एक गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर की गई याचिका पर दिया है। इस संगठन की यह मांग थी कि राजनीतिक दल अपने आयकर रिटर्न की जानकारी आम जनता के सामने रखें। यह गौरतलब है कि अपने देश के राजनीतिक दलों को धन कहां से प्राप्त होता है, इसके बारे में रहस्य का पर्दा पड़ा रहता है। राजनीतिक दलों पर यह आरोप लगता रहता है कि वे अपनी राजनीति के संचालन और चुनाव लड़ने के लिए भ्रष्ट तरीकों से धन जुटाते है। शायद ही कोई ऐसे राजनीतिक दल हों जो कॉरपोरेट जगत से चेक के जरिये धन लेते हों और उसका विधिवत हिसाब-किताब रखते हों। आम तौर पर वे नगद पैसा ही लेते है, जिसका हिसाब-किताब कोई नहीं रखता-न तो धन लेने वाला और न ही देने वाला। जब राजनीतिक दल यह दावा करते है कि उनकी कार्यप्रणाली पारदर्शी है और वे जनता की भलाई के लिए सक्रिय है तब फिर उन्हे चंदा लेने में पारदर्शिता का परिचय देने और अपने आयकर रिटर्न का ब्यौरा सार्वजनिक करने में क्या तकलीफ है?
यह आश्चर्यजनक है कि केंद्रीय सूचना आयोग के निर्णय का स्वागत केवल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने किया है। अन्य दलों को यह निर्णय रास नहीं आ रहा। उनका तर्क है कि ऐसा करने से उनकी निजता का उल्लंघन होगा। बहुजन समाज पार्टी का मानना है कि इस तरह की जानकारी से जनता का कोई हित नहीं सधने जा रहा। कांग्रेस का कहना है कि वह कोई सार्वजनिक संस्था नहीं। जो भी राजनीतिक दल केंद्रीय सूचना आयोग का विरोध कर रहे है वे किसी न किसी स्तर पर अपनी अंदरूनी राजनीति में पारदर्शिता नहीं बरतना चाहते। ये राजनीतिक दल यह भूल रहे है कि भारतीय नागरिकों को संविधान के तहत यह अधिकार प्राप्त हो गया है कि वे सरकार या सार्वजनिक क्षेत्र के बारे में जानकारी ले सकते है। समस्या यह है कि सूचना के अधिकार के तहत आम जनता को जब से यह सुविधा मिली है तब से शीर्ष पदों पर बैठे लोग इस कानून के दायरे से बाहर रहने की कोशिश कर रहे है।
पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने कहा कि उनका पद संवैधानिक पद है और इसलिए वह सूचना अधिकार कानून के दायरे से बाहर है। ऐसे भी संकेत दिए जा रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को सूचना अधिकार कानून से बाहर रखना चाहिए, जबकि एस नचियप्पन की अध्यक्षता वाली कार्मिक, लोक शिकायत और कानून तथा न्याय विभाग से संबंधित संसद की स्थायी समिति ने यह सिफारिश की है कि सभी संवैधानिक पद सूचना अधिकार कानून के दायरे में आने चाहिए। समिति ने स्पष्ट रूप से कहा है कि पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए न्यायिक व्यवस्था को इस कानून के दायरे में लाना चाहिए। उसने फैसले देने की प्रक्रिया को अवश्य इस कानून के दायरे से बाहर रखने की बात कही है। समिति का मानना है कि न्यायिक तंत्र को सूचना कानून के दायरे में शामिल करने के बाद ही इस ऐतिहासिक कानून का पूरा लाभ आम जनता को मिल सकेगा। समिति ने इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने की भी मांग की है। लोकसभा अध्यक्ष ने भी उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय से असहमति जताई है, लेकिन इसी के साथ लोकसभा की विशेषाधिकार संबंधी समिति ने यह तर्क दिया है कि सूचना अधिकार कानून में संशोधन किया जाए ताकि जानकारी मांगने वाले आवेदनकर्ता के लिए यह घोषित करना अनिवार्य किया जा सके कि उसे कोई सूचना विशेष क्यों चाहिए? इस समिति ने इस बारे में अन्य देशों का हवाला दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका और विधायिका, दोनों पारदर्शिता के पक्ष में नहीं। इन स्थितियों में कार्यपालिका को पूरी तौर पर सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाना संभव नहीं।
यह सही है कि न्यायपालिका और विधायिका की कुछ सूचनाएं ऐसी हो सकती है जिनके सार्वजनिक होने से उनका दुरुपयोग हो, लेकिन संवेदनशील सूचनाओं की व्याख्या तो आसानी से की जा सकती है। यदि सभी तरह की सूचनाओं को संवेदनशील मान लिया जाएगा और सूचना अधिकार कानून के समक्ष बाधाएं खड़ी कर दी जाएंगी तो फिर इस कानून की महत्ता खत्म हो जाएगी। प्रश्न यह है कि क्या सूचना अधिकार कानून के तहत आम नागरिकों को न्यायपालिका और विधायिका की सामान्य काम-काज की भी जानकारी नहीं मिल सकती? जब यह सभी मानते हैं कि अपने देश में ज्यादातर कार्य धीमी गति से आगे बढ़ रहे है और उसके पीछे अकर्मण्यता है तब फिर सूचना अधिकार कानून को कमजोर करने का कोई अर्थ नहीं। यह वह कानून है जिसका सही तरीके से पालन भ्रष्टाचार पर एक हद तक अंकुश लगाने में सहायक हो सकता है। आखिर यह तथ्य है कि देश के विकास में एक बड़ी बाधा भ्रष्टाचार है। इस भ्रष्टाचार के लिए राजनीतिक दल ही सीधे तौर पर जिम्मेदार है। अनेक बार कोई कार्य तभी गति पकड़ता है जब पोल खुलने की नौबत आ जाती है। सूचना कानून के प्रावधान पोल खोलने में सहायक हैं। आम नागरिक इस कानून के जरिये प्रशासन के निचले स्तर पर व्याप्त खामियों को दूर करने अथवा अपने लंबित कार्यो को आगे बढ़ाने में समर्थ है। शीर्ष पदों पर बैठे लोग आम नागरिकों को यह सुविधा देने के लिए तैयार नहीं। अब इनमें राजनेता भी शामिल दिख रहे है। यह समय ही बताएगा कि राजनीतिक दल केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले को मानेंगे अथवा अपने लिए कोई आड़ बनाने में सफल हो जाएंगे? यह जानना भी महत्वपूर्ण होगा कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार के संदर्भ में स्थाई समिति की सुनते हैं या फिर विशेषाधिकार समिति की? यदि वे सूचना अधिकार कानून की धार कम करने अथवा उससे खुद को बचाए रखने में सफल रहते है तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
हमारे राजनीतिक दल यह जानते हुए भी अपनी अंदरूनी कार्यप्रणाली को सार्वजनिक करने से बचना चाहते है कि ऐसा करना कुल मिलाकर उनके और देश के हित में है। दरअसल वे अपने संकीर्ण स्वार्थो का परित्याग नहीं कर पा रहे है। यदि उच्च पदों पर बैठे व्यक्ति चाहे वे राजनेता हों या नौकरशाह या फिर न्यायाधीश, अपनी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता नहीं लाएंगे तो वे देश के समक्ष कोई सही उदाहरण पेश नहीं कर सकते। अगर देश को अंतरराष्ट्रीय पटल पर वास्तव में अपनी छाप छोड़नी है तो भ्रष्टाचार से मुक्ति जरूरी है। यहां यह ध्यान रहे कि भारत उन देशों में लगभग शीर्ष पर है जहां कदम-कदम पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। ऐसा लालफीताशाही और सरकारी कामकाज में अनावश्यक गोपनीयता के चलते है। स्थिति में सुधार के लिए सूचना अधिकार कानून अपने आप में सक्षम है, लेकिन यदि उच्च पदों पर बैठे लोग इस कानून के अनुपालन में हीलाहवाली का परिचय देंगे तो फिर इससे देश का अहित ही होगा।
सूचना कानून से बाहर रहने के उच्च पदस्थ लोगों के प्रयासों पर चिंता जता रहे हैं संजय गुप्त
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