शुभ्रांशु चौधरी
80 के दशक में जब मैं बिलासपुर के साइंस कालेज में पढता था उस कालेज में छात्रसंघ के चुनाव नहीं होते थे । उस समय के मध्यप्रदेश शासन ने यह तय किया था कि जिसके सबसे अधिक मार्क्स आयेंगे वही छात्रनेता भी बन जायेगा ।
इस तरह हमारे ज़माने में कार्ल मार्क्स और राजनीति शास्त्र सिर्फ किताबों तक ही सीमित थे । हमें सिर्फ एक ही तरह के मार्क्स की चिंता करनी थी जो परीक्षाओं के बाद रिज़ल्ट में मिलता है ।
कारण दिया जाता था कि छात्रसंघ चुनावों में काफी वक्त ज़ाया होता है और छात्रों को सिर्फ पढाई में ही ध्यान देना चाहिये ।छात्रसंघ चुनाव न करवाने के पक्ष और विपक्ष में काफी तर्क दिये जा सकते हैं । पर मुझे खुशी है कि भारत के सभी कालेजों में छात्रसंघ चुनाव पर पाबंदी नहीं है ।
कुछ दिनों पहले पूर्व चुनाव आयुक्त लिंग्दोह साहब की एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि छात्रसंघ चुनाव में कोई भी प्रत्याशी 5 हज़ार रू से अधिक खर्च नहीं कर सकेगा ।
मेरे अनेक मित्र इस फैसले से नाखुश हैं । वे पूछते हैं कि आम चुनाव में भी तो खर्च पर पाबंदी है पर उसे कौन मानता है ? पर मुझे लगता है कि यह सही दिशा में पहला कदम है ।
पहले हमें यह विश्वास होना चाहिये कि यदि हम अपने वोटरों के बीच काम करें तो जनता से चंदा लेकर कम खर्च में चुनाव लडा जा सकता है । और यह विश्वास स्कूल, कालेज और ग्राम पंचायत के छोटे चुनाव लडने के बाद ही आ सकता है ।
सबसे पुराने ग्राम गणराज्य और लोकतांत्रिक परम्पराओं के पुरातात्विक अवशेष भारत में भी पाए जाते हैं । और हाल के दिनों में भी यदि हमारे पडोसी मुल्कों से तुलना करें तो लोकतंत्र को ज़िन्दा रखने में हम भारत को सबसे आगे पाते हैं और उस पर गर्व कर सकते हैं ।
पर यह भी सच है कि आज का 60 साल पुराना हमारा लोकतंत्र वेंटीलेटर पर है और आक्सीजन की कमी से तडफडा रहा है ।
चुनावों में भारी खर्च इस राजनीतिक अस्थमा का सबसे प्रमुख कारण है । पर पूरे देश में इस विषय पर कोई खास चर्चा होती नहीं दिखती।
पिछले हफ्ते मुझे तब सुखद आश्चर्य हुआ जब रायपुर से चुनावी खर्च पर एक खबर पढने को मिली । इंडिया एब्राड न्यूज़ सर्विस ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में उनके सूत्रों के हवाले से यह लिखा था कि झाडखण्ड हाथ से निकल जाने के बाद छत्तीसगढ की भाजपा सरकार अपने केंद्रीय नेतृत्व से भारी दबाव में है कि छत्तीसगढ सरकार अगले चुनाव के लिये 500 करोड रू पार्टी फंड में दे ।
यह खबर सही है या गलत यह तो पता नहीं । पर इस पर चर्चा ज़रूर होनी चाहिये ।
आदर्श स्थिति तो यही है कि राजनीति समाज के भले के लिये हो । तब इस आदर्श स्थिति को बनाने के लिये यह समाज का ही दायित्व है कि वह इस चुनाव के खर्च का भी बन्दोबस्त करे ।
लोग दबी ज़ुबान में कहते हैं कि विधायक का चुनाव लडने के लिये आजकल लाखों खर्च करने पडते हैं और सांसद के लिये करोड इसलिये धनी ही चुनाव लडते हैं और कम्पनियों से चन्दा लेना आसान है। पर लोग यह भी जानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति या कम्पनी चुनाव में चंदा दे रहा है तो वह उसकी रिकवरी भी करेगा । चुनावी चन्दा एक अच्छा इंवेस्टमेंट है ।
इस जानकारी के बावजूद समाज ने राजनीतिक चंदा देने के अपने महत्वपूर्ण दायित्व से मुंह मोड लिया है और बडे राजनीतिक दलों में भी यह विश्वास खत्म हो गया है कि जनता के धन से राजनीति की जा सकती है ।
हमारी चुनावी व्यवस्था जिन देशों की चुनाव पद्धति का अध्ययन करके बनी है उस ब्रिटेन या अमेरिका के किसी भी राजनीतिक दल की वेबसाइट पर यह प्रमुखता से लिखा है कि आप उस पार्टी को चन्दा कैसे दे सकते हैं । पर भारत की किसी भी राष्ट्रीय पार्टी की वेबसाइट में मुझे यह जानकारी नहीं मिली । क्या लोकतंत्र में जनता की राजनीति करने वाले दलों को जनता से चन्दा नहीं चाहिये ?
क्या कानून में कुछ बदलाव की ज़रूरत है ?
1956 के कंम्पनी कानून की धारा 293ए के अनुसार भारत में राजनीतिक दल कम्पनियों से चन्दा ले सकते हैं । 2003 में पारित हुए कानून के अनुसार भारतीय आयकर कानून की धारा 80 जीजीबी के तहत राजनीतिक दलों को दिये चन्दे पर अब आयकर की छूट भी मिलती है ।
पर प्रश्न यह है कि यदि राजनीति आम आदमी के धन से चलने की बजाय सिर्फ कम्पनियों के धन से ही चलेगी तो उस राजनीति पर आम आदमी का कितना नियंत्रण रह जायेगा ?
1951 में बने रिप्रेसेंटेशन आफ पीपल एक्ट के अनुसार प्रत्येक राजनीतिक दल को चन्दे में मिली 20 हज़ार रू से अधिक धनराशि का हिसाब रखना होगा और एक नियत तिथि के पहले उसे चुनाव आयोग के समक्ष प्रस्तुत करना होगा । पर न सिर्फ राजनीतिक दलों के वरन चुनाव आयोग की वेबसाइट में भी इस हिसाब का कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
भारत में तो नहीं पर दुनिया के तमाम देशों में चुनावी खर्च के विषय पर गहरी बहस चल रही है । ब्रिटेन में इस विषय पर बनी सर हेडेन फिलिप्स समिति ने 20 अक्टूबर तक जनता की राय जानी है और यह समिति दिसम्बर में अपना फैसला देगी । वहां इस विषय पर वाद विवाद चल रहा है कि क्या सरकार को राजनीतिक दलों को चुनाव के लिये खर्च देना चाहिये । ब्रिटेन में विपक्ष को प्रभावी बनाने के लिये पहले से ही विरोधी दलों को सरकार से धन मिलता रहा है ।
जापान में इस विषय पर काफी बहस के बाद 1993 में कम्पनियों से चुनावी चन्दा गैरकानूनी घोषित कर राजनीतिक दलों को चुनावी खर्च देने का फैसला लिया गया था । अब जापान की सरकार प्रत्येक दल को पिछले चुनाव में मिले प्रत्येक वोट के लिये 250 येन देती है ।
अमेरिका में यद्यपि आम जनता और कम्पनियों से फंड इकट्ठा करने की जबरदस्त प्रथा है पर इसके साथ साथ पिछले चुनाव में सरकार ने अकेले राष्ट्रपति बुश को चुनावी खर्च के लिये 6.4 करोड डालर दिये थे। वहां भी 1999 में किसी भी व्यक्ति द्वारा पार्टी को दिये चन्दे की अधिकतम सीमा 1000 डालर पर सीमित कर दी गयी है ।
छत्तीसगढ में भी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और छत्तीसगढ मुक्ति मोर्चा की तरह राजनैतिक दल मौज़ूद हैं जो आज भी लोगों से चन्दा लेकर चुनाव लडती हैं
क्या छत्तीसगढ में इस पर चर्चा नहीं होनी चाहिये कि 2008 के चुनाव में कौन सी पार्टी कितना खर्च करेगी और वह धन कहां से आयेगा ?
कहते हैं देयर इज़ नो फ्री लंच यानि मुफ्त में कभी कुछ नहीं मिलता। यदि चुनावी चन्दा टाटा, जिंदल और एस्सार ही देंगे तो अगली सरकार उनकी होगी या आम जनता की ?
smitashu@gmail.com
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009
वोट आपका, सरकार चंदा देने वालों की
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2 टिप्पणियाँ:
गम्भीर बातें कही हैं आपने, इसपर ध्यान देना होगा।
आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूं, अच्छा लगा यहां आकर।
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सम्मोहन के यंत्र
5000 सालों में दुनिया का अंत
कहने को कुछ रह ही नहीं गया है जब इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकते.????????!!!!!!!!
देखें:-http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2008/08/080805_sc_slamming.shtml
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