अफ़रोज़ आलम साहिल
2-जी घोटाले की एफआईआर में देश के कई दिग्गज पत्रकारों का नाम दलाल के रूप में आया तो मीडिया जगत में हंगामा हो गया। कहा जाने लगा कि मेकअप में चमकने वाले इन चेहरों का असली रंग अब देश की जनता देखेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, इन चेहरों पर अभी भी मेकअप पुता है, हां इनकी दलाली की कहानी जरूर पुरानी हो गई है।
जस्टिस काटजू ने प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनते ही मीडिया को आईना दिखा दिया। कई सालों बाद अपना चेहरा देखकर मीडिया भी घबरा गई। कुछ के जहन तो कुछ के अहंकार पर चोट हो गई। जस्टिस काटजू द्वारा उठाए गए गंभीर सवालों की आलोचना तो कई ने की लेकिन जवाब (सही या गलत) कोई नहीं दे सका।
मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार जे डे की हत्या में एक महिला पत्रकार का नाम आया तो फिर से पत्रकारिता जगत ने हो हल्ला शुरु किया जो अभी तक जारी है। मीडिया का सांप्रदायिक होना भी किसी से छुपा नहीं है। मालेगांव धमाकों के आरोपियों की रिहा होने की खबर का कवरेज इस बात का गवाह है। अगर मीडिया सांप्रदायिक नहीं है तो क्यूं बटला हाउस ‘एनकाउन्टर’ में मारे गए लड़कों की सारी डिटेल पुलिस की कहानी के अनुसार बता रहा था और बता रहा था कि वहां ‘जेहादी’ साहित्य मिला। क्या इस मीडिया ने ये खबर दी कि उस मकान में ‘पंचतंत्र की कहानियां’ भी मिलीं? क्या पंचतंत्र की कहानियां भी जेहादी साहित्य है? क्या किसी मीडिया के अक़लमंद धुरंधर ने इस बात पर रौशनी डालने का कोशिश किया कि ‘जेहादी साहित्य’ क्या होता है? फिर किस आधार पर मीडिया की खूबसूरत बालाएं चिल्ला-चिल्लाकर कहती हैं कि जेहादी साहित्य मिला? मीडिया के पूर्वाग्रही और सांप्रदायिक होने के एक नहीं एक लाख उदाहरण हैं।
मीडिया के चरित्र पर सवाल यहीं खत्म नहीं होते...एक गंभीर सवाल जो बार-बार उठता रहा है और हाल ही में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में हए घटनाक्रम ने जिसे फिर ताजा कर दिया है वो मी़डिया के जातिवादी चरित्र पर है।
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के सदस्यों की नई लिस्ट जारी हुई है..जिसके नामों में मिश्रा, तिवारी, शुक्ला, उपाध्याय जैसे सरनेम प्रमुखता से हैं। एक बार फिर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की मेंबरशिप बांटने में पारदर्शिता और योग्यता पर ब्राह्मणवाद हावी हो गया।
प्रेस क्लब में इस ब्राह्मणवाद का कारण कई योग्य पत्रकारों को मेंबरशिप नहीं मिला पाई। इस समय संदीप दीक्षित जी प्रेस क्लब के महासचिव हैं। उनके इशारे पर ही प्रेस क्लब के मेंबरशिप में ब्राह्मणवाद को बढ़ावा दिया गया ताकि अगली बार भी ब्राह्मण कार्ड खेलकर संदीप जी आसानी से प्रेस क्लब का चुनाव जीत सकें।
ये ब्राह्मणवाद का ही नतीजा है कि प्रेस क्लब में शामिल होने के तमाम क्रायटेरिया ताक पर रख दिए गए। राष्ट्रीय चैनलों और अखबारों के पत्रकार बेचारे ताकते रह गए जबकि दमदम टाइम्स जैसे अखबारों के पत्रकारों ने प्रेस क्लब में शान से प्रवेश किया।
लेकिन अब पारदर्शिता को ताक पर रखना उतना भी आसान नहीं है जितना की प्रेस क्लब के सदस्य सोच रहे हैं। अपने खिलाफ माहौल बनता देख संदीप जी ने कुछ पत्रकारों को फोन पर धमकियां भी दी हैं, जिन्हें रिकॉर्ड कर लिया गया है। जरूरत पड़ने पर कॉल रिकार्डिंग को भी पेश किया जाएगा।
खैर दिल्ली में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया है तो ब्राह्मणवाद भी है लेकिन मुंबई के प्रेस क्लब के बारे में सुनकर तो आप चौंक ही जाएंगे। मुंबई के एक बुजुर्ग पत्रकार द्वारा आरटीआई के जरिए हासिल किए गए दस्तावेजों के मुताबिक मुंबई प्रेस क्लब ही अधिकारिक नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि जब यह प्रेस क्लब ही अधिकारिक नहीं है तो वो फिर वो चुनाव कैसे कराता है?
बुजुर्ग पत्रकार अली मुहम्मद मुंडिया द्वारा हासिल की गई जानकारी प्रेस क्लब पर कई और गंभीर सवाल खड़े करती है, जैसे, जो पत्रकार और फोटोग्रॉफर सरकार से मान्यता ही नहीं रखते उन्हें चुनाव में वोट देने की अनुमति कैसे दी गई? अली का आरोप यह भी है कि इन गैर मान्यता प्राप्त पत्रकारों से क्लब लाखों रुपए भी लेता है।
अली साहब के सवाल यहीं खत्म नहीं होते। उन्होंने मुंबई प्रेस क्लब को सरकार से मिलने वाले करोड़ों रुपए के फंड और क्लब के अंदर शराब की बिक्री पर भी सवाल खड़े किए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट आदेश है कि स्कूल कॉलेजों, हॉस्पिटल और कोर्ट के नजदीक बार नहीं चल सकते। लेकिन इस आदेश का उल्लंघन कर मुंबई प्रेस क्लब में शराब प्रस्तुत की जाती है।
दिल्ली में संदीप दीक्षीत पत्रकारों को धमकियां दे रहे हैं तो मुंबई में प्रेस क्लब अली मुहम्मद को धमकियां दे रहा हैं। अब बड़ा सवाल यह उठता है कि जब पत्रकार खुद ही जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, खुद पर सवाल उठने पर धमकियां दे रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन कर रहे हैं तो फिर वो अपनी रिपोर्टों में किस नैतिकता से दूसरों पर सवाल खड़े कर सकते हैं। इससे भी बड़ा सवाल यहां यह खड़ा होता है कि क्या ऐसे पत्रकारों और प्रेस क्लबों में कोई नैतिकता है?