मंगलवार, 26 जनवरी 2010

एड्स महामारी लगाम लगाना संभव हो पाएगा?

खबर है कि बिहार में एड्स मरीज़ों की तादाद लगातार बढ़ती ही जा रही है। सिर्फ पश्चिम चम्पारण ज़िले में वर्ष 2009 के नवम्बर माह तक 256 लोग इससे संक्रमित पाए गए। अप्रैल 2009 से दिसंबर 2009 तक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार नरकटियागंज में एचआईवी पीड़ितों की संख्या 23 है।
इधर हालात को देखते हुए आलोक कुमार सिन्हा की ओर से दायर लोकहित याचिका पर सुनवाई के दौरान पटना हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की जमकर फटकार लगाई है। कोर्ट का आदेश है कि एड्स कंट्रोल बोर्ड में रिक्त पदों को हर हाल में जनवरी 2010 तक भर लिया जाए। अदालत ने एड्स से लड़ने के लिए मिले पैसे का समुचित उपयोग करने की भी बात कही। मामले की अगली सुनवाई की तारीख फरवरी 2010 के पहले सप्ताह में तय किया गया है।
हालांकि विश्व एड्स दिवस यानी दिसम्बर 01 को पश्चिम चम्पारण एवं पूर्वी चम्पारण के विभिन्न छोटे-बड़े शहरों व गांव में एड्स के खिलाफ कार्यक्रमों का तांता लगा रहा। हज़ारों-हज़ार छात्र-छात्राएं, एन.एस.एस., एन.सी.सी. कैडेट्स, स्वास्थयकर्मी, समाजसेवी और राजनीति के पुरोधा इन कार्यक्रमों में शामिल हुए। सभी के ज़ुबान पर एक ही नारा गूंज रहा था- ‘हमने यह ठाना है, एड्स को भगाना है।’ बीच-बीच में एड्स के खिलाफ जागरूकता हेतु भाषणबाज़ी, नुक्कड़-नाटक एवं काव्य पाठ की फुलझरियां भी छुटती रही। जानकारों का अनुमान है कि इस दिन दोनों ज़िलों में सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं एवं संगठनों द्वारा इन आयोजनों पर कागज़ में ही सही कम से कम 40-50 लाख का ज़रूर वारा न्यारा हुआ होगा। ऐसा नहीं है कि इस वर्ष ही एड्स के खिलाफ ऐसे कार्यक्रमों के साथ-साथ एक मेले का तुफान आया हो, बल्कि ऐसा कार्यक्रम एवं मेला-ठेला इस दिन वर्षों से जारी है।
इन कार्यक्रमों के आयोजकों के उत्साह समर्पण तथा परिश्रम को देखा जाए तो ऐसा लगेगा कि एड्स इनसे भयभीत होकर अपना पछुआ खोल भाग खड़ा होगा। उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि विगत एक दशक में विभिन्न अंतराष्ट्रीय व राष्ट्रीय संगठनों ने एड्स नियंत्रण एवं उसके बारे में प्रचार-प्रसार आदि पर करीब कम से कम 20 करोड़ रुपयों से ज़्यादा पानी की तरह बहाया है, परन्तु भारत-नेपाल सीमा पर स्थित इन दोनों ज़िलों में एड्स या एचआईवी पोजीटिव मरीज़ों की तादाद लगातार बढ़ती ही जा रही है। लगता है कि रामायण कालीन सुरसा की तरह एड्स यहां की गरीब जनता को निगलता ही रहेगा। आंकड़े बताते हैं कि पूर्वी चम्पारण ज़िले में वर्ष 2007 से लेकर अब तक 969 एचआईबी रोगी चिन्हित किए गए हैं।
जानकारों के मुताबिक़ ये आंकड़े भ्रामक हो सकते हैं। क्योंकि एड्स नियंत्रण में लगी ज़्यादातर संस्थाओं का कार्यक्रम कागज़ातों, कम्प्यूटरों एवं बैनरों पर ही चलता है। चाहे वो सरकारी संस्थाएं हों या गैर सरकारी। फिर भी इसमें लगे संगठनों के द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़े ही स्वयं गवाह हैं कि एचआईवी पोजीटिव यानी एड्स मरीज़ों की संख्या विगत वर्षों में निरंतर बढ़ती ही जा रही है। कुछ लोगों का दावा है कि दोनों ही ज़िलों में पांच हज़ार से ज़्याद एड्स रोगी हैं।
अब अगर बात संपूर्ण बिहार की करें तो बिहार सरकार इस मामले में कुछ ज़्यादा ही सजग है। सिर्फ 01 दिसम्बर ही नहीं, बल्कि 02 दिसम्बर को भी एड्स दिवस सेलीब्रेट किया गया। इस दिन भी संपूर्ण बिहार में मेले-ठेले व कार्यक्रमों का इंतज़ाम हुआ। कई सरकारी कार्यक्रम में नीतिश जी ने भी अपनी उपस्थिती दर्ज कराई और लोगों को एड्स के प्रति लड़ने क जागरूक करते नज़र आए।
आंकड़े बताते हैं कि बिहार में इस मर्ज के रोगी दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। बिहार राज्य एड्स नियंत्रण समिति के द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार वर्ष 2001 में महज़ एक मर्द व एक औरत एचआईवी पोजीटिव थे तो एक साल बाद यानी 2002 में इनकी संख्या बढ़कर 558 हो गई। वर्ष 2003 में एचआईवी रोगियों की संख्या 1108, वर्ष 2004 में 1148, वर्ष 2005 में 2432, वर्ष 2006 में 3789, वर्ष 2007 में 5283, वर्ष 2008 में 5933, जबकि वर्ष 2009 में अब तक इनकी संख्या 5955 रही। अर्थात ये आंकड़ें 26798 तक पहुंच चुकी हैं। इनमें 16275 मर्द, 9751 महिलाएं और 772 ऐसे बच्चे हैं जो गर्भ से ही एचआईवी पोजीटिव पाए गए हैं। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि ये आंकड़ें सिर्फ उन लोगों से तैयार किया गया है जो किसी न किसी तरह अस्पताल या जांच कैम्प तक गए। अगर यह जांच बड़े पैमाने पर गांव तक चलाई जाए तो यह आंकड़े काफी चौंकाने वाले हो सकते हैं।
यह तो बात हुई रोगियों के संख्या की। आईए अब बात करते हैं कि इस मर्ज़ के नाम पर सरकार कितने पैसे खर्च कर रही है। बिहार राज्य एड्स नियंत्रण समिति के द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार वर्ष 2007-08 में 8,97,74,703/- रुपये (आठ करोड़ सन्तान्वे लाख चौहत्तर हज़ार सात सौ तीन रुपये) खर्च हुए। इसमें से 1,23,65,487/- रुपये (एक करोड़ तेइस लाख पैसठ हज़ार चार सौ सतासी रुपये) सराकर ने गैर सरकारी संगठनों को उपलब्ध कराए हैं।
वर्ष 2006-07 में 15,34,82,042/- रुपये (पंद्रह करोड़ चौतिस लाख बियासी हज़ार बियालिस रुपये) खर्च हुए। वर्ष 2000-01 से लेकर वर्ष 2005-06 तक 5518.20 लाख रुपये खर्च हुए। जबकि वर्ष 1998-99 में 3,06,99,713/- रुपये (तीन करोड़ छः लाख निन्यान्वे हज़ार सात सौ तेरह रुपये) खर्च हुए।
प्रश्न उठता है कि इतनी सारी संगठनों के एड्स के विरूद्ध युद्ध में लगे रहने तथा करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद आखिर इस सुरसा जैसी आतंकवादी बीमारी पर अंकुश क्यों नहीं लग पाया है। इस बीच सरकार भी नरेगा के तहत मजदूरों का पलायन रोकने हेतु करोड़ो-करोड़ रुपया खर्च कर रही है, फिर भी पलायन जारी है और बाहर से घर लौटने वाले मजदूर एड्स सौगात के रुप में लाते हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कहना कि एड्स युद्ध में लगे सभी सरकारी-गैर सरकारी संगठनों ने मेला-ठेला आयोजनों के सिवा कुछ किया ही नहीं है और एड्स नियंत्रण के नाम पर उपलब्ध करोड़ों रुपये बिना ढ़कारे ही डकार गए, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह भी कहना गलत नहीं होगा कि नरेगा कार्यक्रम यहां महज़ एक दिखावा रहा है और मजदूर बराबर पलायन को विवश रहे हैं और घर लौटते समय सौगात के रुप में एड्स को लाते रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति में इन ज़िलों में एड्स महामारी लगाम लगाना संभव हो पाएगा? क्या चम्पारण ज़िले के निरीह लोग इस काल के गाल में समाते रहेंगे? और संगठनें मेला-ठेला की आड़ में लूट मचाते रहेंगे? खैर अब उम्मीदें कोर्ट से हैं। शायद वो ही इस दिशा में कोई कारगर कार्रवाई कर सकती है।

अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’

शनिवार, 23 जनवरी 2010

ज़रा! एक नज़र ईधर भी....

विदेशी अवधारणा के मूल से जन्मे, गैर-सरकारी संगठनों का सेवा की आड़ में धंधा जारी है। सेवा भाव, खास तौर पर निस्वार्थ सेवा का भाव, जो गैर-सरकारी संगठनों का ट्रेडमार्क बन चुका है और इसकी आड़ में अनुदान पाने की होड़ भी बढ़ती जा रही है। दरअसल, समाजसेवा की आड़ में इन्हें अपना धंधा चमकाना होता है, जिसके कारण प्रतिबद्धता के साथ काम करने वाले संगठनों की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। इसलिए सारे गैर-सरकारी संगठनों पर उंगली उठाना दुरूस्त न होगा। हज़ारों छोटे-बड़े ऐसे संगठन हैं, जो हज़ारों लोगों के जीवन में गुणात्मक बदलाव लाने के लिए रात-दिन काम करते हैं, और उनमें से कई को तो कड़ी आर्थिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।
बहरहाल, मुझे मतलब उन समाजसेवियों से है, जो दूसरों के लिए पारदर्शिता बहाल करने के लिए बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं, लेकिन खुद उनके यहां पारदर्शिता नहीं है। पिछले दिनों मुझे राय चंदन जी के ब्लॉग ‘लाल बुझक्कड़’ (
http://raichandan.blogspot.com) पर जाने का मौका मिला। उनके कुछ पोस्ट गैर-सरकारी संगठनों की एक अलग ही कहानी पेश करती है।
प्राप्त सूचना के मुताबिक इस ब्लॉग के ब्लॉगर सूचना के अधिकार पर कार्य करने वाली एक संगठन “कबीर” के कार्यकर्ता थे, और अरविंद केजरीवाल जी के संगठन “पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन” के लिए भी कार्य किया है। पेश है उनके कुछ आलेख यहां भी....

लूखा एनजीओ यानी लूटो खाओ एनजीओ

बॉस ने पीछे की सीट पर बैठे अपने चेले की ओर इशारा किया। इशारा भी कुछ यूं था जैसे चुटकी से सुर्ती मली हो। अक्सर ऐसा लोग पैसे के बारे में पूछने के लिए करते हैं। चेला भी पक्का शागिर्द था। उसने सहमति में सिर को हल्का सा यूं झटका दिया, जैसे सब समझ गया हो। कहा- हां! जितना कहा था,मिल गया है। गाडी अपने रफतार में सड़क पर इठलाती चली जा रही थी। खिड़की से बाहर का मनोरम नजारा लुभा रहा था। इस बातचीत में हालांकि मैं कहीं शरीक न था, लेकिन ध्यान इस मौन बातचीत की तरफ चला ही गया। खैर बताता चलूं कि बॉस राजधानी में एक एनजीओ चला रहा था और लोगों के बीच उसने अपनी प्रतिभा का लोहा जरूर मनवा लिया था। ऐसा लग रहा था मानो ड्राइवर को इन बातों से कोई मतलब ही नहीं। लेकिन वो भी था पूरा घाघ। बेफिक्र की तरह दिखना तो उसका एक छदम आवरण भर था। अब बिना भूमिका के बात पर आना ही ज्यादा उचित होगा। तो इस एनजीओ के कर्ताधर्ता हैं हमारे आज के नायक, जो कभी मीडिया में नुमाया हुआ करते थे। किसी ने सलाह दी कि भई कब तक केवल टीवी में चेहरा ही दिखाते रहोगे, या फिर पैसे भी बनाओगे। बात इन महोदय को जंच गई। अगले ही दिन लोगों ने देखा कि उनकी उठ-बैठ एक पक्के समाजसेवक के घर होने लगी। फिर एक स्वामिभक्त लोगों की टीम भी तो खड़ी करनी थी, जिनमें मिशन का जज्बा कूट-कूट कर भरा हो। एनजीओ के लिए विदेशी रकम का इंतजाम भी हो गया था। यों भी दरो-दीवार तो लोगों ने खड़ी की है। पैसे का तो एक ही रंग होता है, अंतर होता है तो बस इतना कि कहीं गांधी की तस्वीर छपी होती है, तो कहीं चर्चिल की। खैर मुददे की बात की जाए, वरना भाई लोग कम्यूनिस्ट ठहरा कर भददी सी गाली निकाल सकते हैं। हुआ यूं कि एक दिन ऑफिस एकाउन्टेन्ट को किसी बात पर झगड़ते देखा। बहस का मुददा यूं था कि बॉस ने जो हजामत कराई है, उसका पैसा एकाउन्ट में भला क्यों न जोड़ा जाए। आखिर हजामत का मकसद कहीं गरीबों को उपर उठाना ही तो है। भई टेलीविजन पर उन दुखियारों की बात करनी है, तो कम से कम चेहरा तो गरीब टाइप का न दिखे ना। तो भला हजामत का पैसा भी तो एकाउन्ट में जुड़ना ही चाहिए। खैर एकाउन्टेन्ट की मजबूरी समझ से परे नहीं थी। एक तो मंदी का असर, दूजे गरीबी के कारण पढ़ाई भी बीच में छोड़ने के दुख से वो लाचार था, ऐसे ही लोगों की तलाश तो बॉस को हमेशा होती है, जो उजबक की तरह बस समय-समय पर गरदन हिलाता रहे और शुतुरमुर्ग की तरह डांट खाने पर गर्दन फर्श में गड़ा ले। तो बॉस के अश्लील इशारे पर बात हो रही थी। गांव में आम सभा होनी थी। गांव के गरीब-गुरबे सुबह से ही इंतजार में थे। महोदय एक लंबी एसी गाड़ी से उतरे। लोगों पर यूं नजरें बिखेरी जैसे कोई एहसान किया हो। मंच पर स्वागत के लिए कुछ लोग दौड़ ही तो पड़े थे। एक लंबे रटे-रटाए भाषण के बाद, जो अक्सर वो सभाओं में दिया करते थे के बाद नारेबाजी शुरू हुई। आयोजक परेशान सा दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया। भई साहब, आप तो साथ में ही आए हो ना। बताओे, कितने पैसे देने हैं। मैं हक्का-बक्का सा उसके मुंह की ओर देखने लगा। भई, मुझे तो मालूम नहीं- बस इतना ही मुंह से निकला होगा। हालांकि इसके लिए मुझे हल्की सी झाड़ भी सुननी पड़ी। आता हुआ पैसा, जो दूर जा रहा था। अंत में बॉस ने अपने विश्वसनीय सिपाहसलार को आगे खड़ा किया, जिसने पूरे काईंयापन के साथ उन मासूमों से वसूली की । तो ये इशारा उस पैसे के बारे में ही किया गया था, जो ड्राइवर को देनी थी और जिसकी रकम एक बार बॉस एकाउन्ट में भी चढ़ा चुके थे। तो हुआ ना दोनों हाथ में लडडू। अपने बॉस तो ऐसे ही थे। लक्ष्मी की भी विशेष कृपा उन पर बनी रही। देखते- देखते राजधानी में दो फ्लैट के मालिक बन चुके थे। एक में खुद रहते थे और दूसरे को किराए पर उठा रखा था। किसी और को नहीं, अपने को ही। इसके बदले एक मोटी रकम एकाउन्ट में ट्रांसफर हो जाती थी। गोरा-चिटटा चेहरा, मॉडर्न लुक और आदर्शवाद का मुलम्मा लगा हो, तो लड़कियां तो फिदा होंगी ही। सो आज कल उनका दिल भी किसी और पर आया था। गाहे-बगाहे वो अपने शौक का इजहार भर करते रहते थे। पर हाय री किस्मत, निगोड़े समाज सेवक का मुखौटा जो लगा चुके थे। खैर दबा-छुपा ये रोमांस ऑफिस की फिजाओं में भी दिखने लगा था। आज-कल वे किसी यंगकमर्स पर फिदा थे। लैपटाप के साथ ऑफिस के कोने-कतरे में नजर आने लगे थे। उनकी चौकस निगाहें हर वक्त उसी का पीछा करती। आजकल बॉस की इन हरकतों से चमचों में हड़कंप मची थी। बॉस की इन हरकतों से उनकी चमचागिरी पर संदेह का साया जो लहराने लगा था। अब हनुमान की तरह दिल चीरकर अपनी भक्ति तो दिखाने से रहे। खैर, कुछ ना कुछ तो करना ही था (सो यहां चमचागिरी का स्तर और तेज हो गया था। अब होड़ किसी लड़के से हो तो, बात समझ में आती है। मामला किसी विपरीत लिंगी का हो, तो भला किया क्या जाए। आपातकाल मीटिंग होने लगी। लोगों में राय-विमर्श कर मामले को अनिश्चितकाल के लिए टालना ही उचित समझा। उड़ते-उड़ते बात मेरे तक पहुंची। एक अपना दुखड़ा यों बयान कर रहा था-क्या करें यार, आज-कल बॉस मुझसे खफा-खफा से रहते हैं। ढ़ंग से बात भी नहीं करते। कुछ ऐसी ही चर्चाएं यहां की फिजाओं में तारी रहती थी।

तो सबकुछ पर्दे के पीछे चल रहा था। बॉस को भी इसकी भनक लग चुकी थी। एक दिन कुछ हुआ यूं कि बॉस के एक चहेते को आकाशवाणी हुई भई, अब तुम भी पैसे बढ़ाने की जुगत करो। खर्च तो इतने में चलने से रहा। हालांकि सैलेरी किसी संस्थान से ज्यादा ही पाते रहे। तो हुआ यूं कि अब वे अपनी सभी घरेलू समस्याओं का जिक्र अकेले में बॉस से करने से नहीं चूकते। मौका मिलते ही दिल का दर्द लेकर बैठ जाते। बॉस को भी एहसास हो चला था कि अकेले लूटने-खाने में एक दो लोगों को शामिल करना अब जरूरी हो गया है। होता ये है कि कोई विदेशी फर्म जब किसी प्रोजेक्ट के लिए एनजीओ को रकम देती है तो सालाना उसका हिसाब भी देना होता है। तो जितनी मोटी रकम आप एकाउन्टेन्ट के साथ मिलकर उड़ा सकते हो उड़ा लो। बाकि की रकम वापस करनी होती है। इसी पैसे पर सबों की नजरें गड़ी थी जिसे लोग सैलरी के नाम पर लूटना चाह रहे थे। तो यही खुल्ला खेल फरूखाबादी चल रहा होता है। बॉस को रकम तो अपने जेब से देनी थी नहीं। सो चमचों को खुश करने के लिए उसे यह मौका अच्छा लगां। आपातकाल मीटिंग बुलाई गई। कुछ विरोध करने वालों को इस मीटिंग से अजीब से तर्क देकर बाहर रखा गया। अब बात इस पर आकर रूकी कि किसकी कितनी सैलरी बढ़े । तो जिसको जितनी जरूरत हो उतनी मिले- पर आकर बात समाप्त हुई। बढ़िया साम्यवाद के नारे का इस्तेमाल था- बॉस को अपनी मनमर्जी करने देने के लिए। तो हुआ ये कि ऑफिसब्वाय को भी इस मीटिंग से बाहर ही रखा गया क्योंकि इसके आधार पर सबसे अधिक हकदार तो वही बनता था। जिसे सरकार की रोजगार गारंटी से भी कम पैसा दिया जा रहा था और काम के नाम पर हाड़-तोड़ मेहनत़। पिता की मौत के बाद परिवार की सारी जिम्मेदारियां भी अपने कमजोर कंधों पर ढ़ो रहा था। पर कहते हैं ना कि बॉस इज आलवेज राइट। तो सभी चमचे गर्दभ राग में बॉस के सुर में सुर मिलाकर ढेंचू-ढेंचू करने लगे। एक-आध विरोध के स्वर भी उठे, तो बेरहमी से दबा दिए गए। बॉस अपनी इस विजय पर लंबी सी मुस्कान बिखेरता मीटिंग से बाहर निकल गया। खैर, इसी पर एक कविता पेश करने की गुस्ताखी चाहता हूं-

कहते हैं बड़े-छोटे का भेद उचित नहीं
ठीक ही कहते होंगे
मेरी उनसे कोई शकायत नहीं
लेकिन मन उचाट हो जाता है
जब देखता हूं एक हाड-तोड़ मेहनत करते
युवा की कातर निगाहें
भारी पड़ता है किराया पूरे महीने की सैलरी पर
फिर एक भरा-पूरे परिवार की जिम्मेदारियां भी तो हैं
जो छोड़ गए हैं पिता उसकी विरासत में
लेकिन बॉस के आगे आते ही सिटटी-पिटटी गुम
आखिर क्या करे वह
न जाने कई हैं कतार में
कि कब वो धम्म से गिरे और दूसरे चढ़ बैठें
एकांत में सोचता है-
कितने खुदगर्ज हैं लोग
लेकिन देखता हूं ऑफिस के एक कोने में
चुपचाप बैठे उस लड़के को
आप पूछ सकते हैं उसके नाम के बारे में
भई नाम में क्या रखा है
यों भी नाम तो नसीब वालों के होते हैं
चाय की दूकान में काम करने वाले हों या फिर
जूते सीने वाले या झाडू पोंछा करने वाले
सबों का एक ही नाम होता है छोटू
कभी खुश होता तो मुझसे आकर कहता
भैया अब मैं पढ़े-लिखों वाला काम करूंगा
ऐसे क्षण में मैं उसे गौर से देखता
और अपनी बदहाली पर भी तरस खाता
सीढ़ियां फलांगते तालीम के शीर्ष पर तो आ पहुंचा था
लेकिन सोचता था अब क्या
अब तो पीछे लौटना भी संभव नहीं
अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है
गया था पिता की बरसी पर छुटटी लेकर
मां के आंसू ने रोक लिए थे दो-चार दिन
लौटते हुए डर से कंपकंपी छूट रही थी
बॉस के अदृश्य निकले हुए नाखूनों की धार
वह महसूस कर रहा था अपने गर्दन पर
और एक ऐसे ही जाड़े के ठिठुरते दिनों में
जब हाथ उठाकर बढ़ायी जा रही थी लोगों की सैलरी
दफतर के एक कोने में सिसक रहा था लिंगप्पा
आज जब हमारे बीच नहीं है वो
याद आती है उसका मासूम सवाल
भैया अब मैं पढ़े-लिखों वाला काम करूंगा।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

An RTI for RTI....

by JOYDEEP HAZARIKA
The Right To Information (RTI) Act is something which has been looked upon as a revolutionary thing in India. This Act was perceived as the ultimate weapon for the people to fight corruption and get accountability from the government. But now it is slowly seen that this Act is also the victim of the nefarious factors that it was made to fight against.

To promote this Act among the common people, the RTI Awards were started to felicitate and recognize the work of activists done in this field. But now more and more complaints have emerged where people are alleging that these awards have become the victims of favoritism. The complaint here is that these awards are given to people who have done no special work which is recognized by people in this field, and is being randomly given away to those who are close to the organizers. This has now put a big question mark on these awards and their authenticity.

Mr. Afroz Alam Sahil, an RTI activist, has put an RTI on these awards questioning various aspects related to them. The RTI was put up to the Public Cause Research Foundation (PCRF) which is run by well-known RTI promoter Mr. Arvind Kejriwal, and this organization runs the RTI Awards. The questions that were put up ranged from when and why was the PCRF started, the number of programmes that have been organized by them and the money spent on them, people who have been associated with this organization and the sources of funds of the same, who were nominated for these awards and on what basis, how much money being spent for these awards and in which forms, etc. There was also the question of how much money did actor Aamir Khan take or give to be a part of these awards.

Apart from Mr. Afroz, an activist from Bihar, Mr. Shivprakash, has also alleged that the awards are given away to people who are close to the organizers and have done very little or no work at all in the field of promoting the RTI Act. Here it is to be noted that the person who was nominated from Bihar for the awards is somebody who is unknown to the media as well as the other activists. And this has led to further suspicion against the awards.

Another thing to be noted is that among the organizers of these awards were also a prominent news channel and a well-known newspaper. According to Mr. Arvind Kejriwal, the entire process of organizing to distribution of the awards took a figure of Rs 50 lakhs, out of which 25 lakhs were given away by Narayan Murthy’s Infosys and Rs 25 lakhs by the Tata Foundation. A total of 1,150 nominations were filled from all over India.

But here the big question is the question of transparency. And this, according to Mr. Afroz, is what the RTI seeks to achieve. The distribution procedure of the awards and the numerous complaints received after those point out that an ugly joke is being made out of the very Act that seeks to achieve transparency. But for now, the reply to the questions are being awaited.

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

आर.टी.आई.अवार्ड के लिए डाली गयी आर.टी.आई.

अभिनव उपाध्याय, नई दिल्ली
सूचना का अधिकार कानून के प्रभावी प्रयोग करने वाले कार्यकर्ताओं और इस कानून के आधार पर कारगर निर्णय देने वाले अधिकारियों को सम्मानित करने के उद्देश्य से शुरू किया गए आरटीआई अवार्ड पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। कार्यकर्ताओं ने इस संबंध में पारदर्शिता न बरतने का आरोप लगाया है। यही नहीं, कुछ सूचना आयुक्तों ने भी इस अवार्ड पर प्रश्नचिह्न लगाए हैं।


सूचना के अधिकार पर काम करने वाले कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल ने इस अवार्ड से संबंधित 18 सवाल पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन से पूछे हैं। जिसमें आमिर खान ने इसमें शामिल होने के लिए कितना पैसा लिया, इस कार्यक्रम में खर्च हुए पैसों का ब्यौरा, पिछले तीन वर्षो में इस संस्थान के लोगों द्वारा की गई यात्राओं के खर्च का ब्यौरा सहित यह अवार्ड जिन लोगों को दिया गया उसका उनके चयन का आधार क्या था? इस अवार्ड को आयोजित करने के लिए कितना फंड मिला और किसने दिया? सहित कई प्रश्न शामिल हैं।


बिहार के कार्यकर्ता शिवप्रकाश ने इस प्रक्रिया और आयोजकों पर आरोप लगाया कि यह अपने करीबी लोगों को दिया गया है जिन्होंने कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया है। यह हास्यास्पद है कि बिहार से जिसे नामित किया गया है, उसे न मीडिया के लोग जानते हैं और न ही अधिकारी। इसकी चयन प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए एक पूर्व सूचना आयुक्त ने बताया कि उनके स्वयं के निर्णय बहुत प्रभावी थे और बाद में सरकार ने उनके द्वारा लिए गए आदेशों पर कार्यवाई की, लेकिन इस अवार्ड में कई महत्वपूर्ण दृष्टिकोणों की अनदेखी की गई।


गौरतलब है कि इस कार्यक्रम के आयोजकों में एक प्रमुख मीडिया चैनल और अखबार भी शामिल था। इस संबंध में कार्यक्र म के आयोजकों में से एक अरविंद केजरीवाल का कहना है कि अवार्ड में नामांकन से लेकर इसे विश्लेषित करने और अवार्ड देने में कुल 50 लाख का खर्च आया, जिसमें 25 लाख इंफोसिस के नारायण मूर्ति ने और 25 लाख टाटा फाउंडेशन ने दिया। अब चैनेल ने कितना खर्च किया, इससे हमारा कुछ लेना देना नहीं है। कुल 1150 नामांकन भारत भर से आए थे। इसके अलावा 52000 आदेशों का भी विश्लेषण किया गया। इसके बाद भी किसी को परेशानी है तो वह संबंधित जानकारियां ले सकता है।
(आज समाज से साभार)


सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत पूछे गए सवाल....

1. PCRF की स्थापना कब और क्यों किया गया। इसकी स्थापना किस उद्देश्य से की गई है।
2. पिछले तीन वर्षों में इस संस्था के द्वारा कितने कार्यक्रम कब-कब आयोजित किए गए। दिनांकवार सूची उपलब्ध कराएं। इन पर आने खर्चों का ब्यौरा भी उपलब्ध कराए।
3. इस संस्था में कौन-कौन से लोग जुड़े हैं। सदस्यों सहित समस्त अधिकारीगण का नाम उपलब्ध कराए।
4. पिछले तीन वर्षों में इस संस्था को कहां-कहां से कितनी राशि फंड के रूप में मिली है।
5. पिछले तीन वर्षों में इस संस्था से जुड़े लोगों ने कितनी और कहां-कहां यात्राएं की। इस पर आने वाले खर्चों का ब्यौरा उपलब्ध कराए।
6. आर.टी.आई. अवार्डस के लिए कितने नामों का नॉमिनेशन हुआ, और इनके नामों का नॉमिशन कितने लोगों ने किया था।
7. जितने भी नामों का नॉमिनेशन हुआ, उन सब के कार्यों का ब्यौरा, जो उन्होंने उपलब्ध कराई है, देने का कष्ट करें।
8. जिन लोगों को अवार्ड दिया गया, वो किस आधार पर दिया गया।
9. इस अवार्ड के लिए फंड कहां-कहां से मिला, तथा कितनी धन-राशि खर्च की गई। किस-किस रूप में।
10. इस अवार्ड के लिए जिन नियम-कानून का पालन किया गया उनकी प्रतिलिपी उपलब्ध कराई जाए।
11. इस अवार्ड में आने के लिए आमिर खान ने कितनी धन-राशि ली या दी।
12. इस अवार्ड के लिए कितने मीडिया पार्टनर थे। उन्होंने कितनी धन-राशि ली या दी।
13. इस अवार्ड के लिए नामित लोगों से किस प्रकार संबंध स्थापित किया गया। फोन के माध्यम से या पत्र के माध्यम से या फिर दोनों के माध्यम से।
14. इस अवार्ड के संबंध में जितने भी विज्ञापन व स्टोरी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए, उन सब की प्रतिलिपी उपलब्ध कराई जाए।
15. इस अवार्ड के लिए चयन व छंटनी की प्रक्रिया के बारे में बताए।
16. जिन लोगों को इस अवार्ड के लिए चयनित या छांटा गया, उनकी फाईल नोटिंग उपलब्ध कराए।
17. अवार्ड देने के लिए जिस टीम का गठन किया गया, उसमें कौन-कौन से लोग शामिल थे। उनका ब्यौरा उपलब्ध कराए। साथ ही यह भी बताए कि उनको किस आधार पर टीम में शामिल किया गया और उनका बैकग्राउंड क्या है।
18. Award Ceremony के लिए कितनी धन राशि खर्च की गई।


बुधवार, 6 जनवरी 2010

EN ROUTE TO END CORRUPTION?

By ASHIM SUNAM

Afroz Alam Sahil, a student of Jamia Millia Islamia University, India has filed more than 2000 RTI (right to information) petitions since its inception in 2005. He has seen major success through the RTI act.

The RTI Act has become a tool to curb the malpractices prevailing in the various Governmental departments. It empowers each and every citizen to get any information they want from the government, inspect their work etc.

RTI Act has proved to be an effective mace to fight corruption. As published by the Transparency International, (a global society organization leading the fight against corruption) “India’s corruption index showed a decline from 88th to 70th position”. This development credit goes to RTI Act.

A group of women in Uttar Pradesh, in India ensured that their children get free school books and uniforms under the Central Government education programme. So they filed an RTI seeking details of free books and the uniforms.

There was an instant response within a month after the RTI had been filed and every child was provided with free school books and uniforms. Several NGO’s (non-governmental organization) have been working to make people aware about the RTI Act. One such NGO is Yuva Koshish,formed in 2009. It recently also conducted RTI awareness campaign in Jamia Millia Islamia. Ali Akthar, President and Founder of Yuva Koshish said “The campaign was attended by around 1000 people per day.” He further adds, “We specially catered to the weaker section of the society and educated them about it” Ajay singh, a Cab driver attended one such campaign where he was encouraged to file RTI petition. He said “I was not aware of such kind of acts”. He had been requesting the government officials to renew his driving license but to no avail. After he attended the RTI awareness campaign, he filed RTI petition and after a month or so he received his driving license without any hassles. He says “Filing an RTI is an easy process and less time consuming, so I filed the petition which later turned out in my favour”. Ajay Singh has knowledge about the RTI Act now so he has been spreading the message around among his fellow Cab drivers.

India is a democratic country where every citizen pays tax. Even while purchasing a pack of chocolates one pays tax to the government. They deserve to know where does this money (taxes) go and other similar questions about the working of the government. Afroz, a resident of Bihar too filed RTI petition, where he requested the chief electoral officer of Bihar to provide funding details of the political parties. According to Election commission Rule 24(a), political party which has more than Rupees 20,000(US $ 445 approx) in their fund are to provide their funding details. He himself had to face some obstacles while filing the RTI petition. He says “It was at first ignored by the Chief electoral Officer of Bihar, India. I then filed a first appeal and later a second appeal to the State Information Commission (SIC)”. The SIC directed the election division of state to provide all the required information. The information provided also brought into light the political parties which were being funded by big industries and Public schools.

Raghunath Jha, a politician from Bihar had never lost during the elections. He won the MP (Member of Parliament) seat around 7 times. This made Afroz question the development taking place of those areas from where he won the Parliamentary seat. He did not see much development in those places. So he filed an RTI petition. “I received the information required through the powerful RTI Act”. The facts that Afroz had with him clearly indicated that Jha had been misusing government money. The work sanctioned had also not progressed. After the exposé it was being tracked by many media houses and people came to know about his misdeeds. This story exposed Raghunath Jha to the public eye. Hence, he lost the elections in 2009.

The RTI Act is powerful enough to change the face of the nation. Since its initiation, it has brought laurels to many sections of the society and development of the country on larger scale.