रविवार, 29 जून 2008

अभी भी संघर्ष जारी है


हिमाँशु शेखर
मध्यप्रदेश के विदिशा में एक मध्यमवर्गीय परिवार का पांच वर्षीय एक बच्चा पहली बार स्कूल जाता है। उस विद्यालय के बाहर वह लड़का अपने एक हमउम्र को जूता पालिश करते देखता है। वह गौर करता है कि जूता पालिश करने वाला बच्चा स्कूल जाने वाले बच्चों के जूतों को निहार रहा है। पहली बार स्कूल जा रहे बच्चे को यह बात अखर जाती है कि सारे बच्चे स्कूल जा रहे हैं लेकिन वह क्यों नहीं जा रहा है। वह इसकी शिकायत अपने शिक्षक से करता है और उचित जवाब नहीं मिलने पर स्कूल के हेडमास्टर से भी इसकी नालिश कर देता है। वहां उसे जवाब मिलता है कि इस जग में ऐसा होता है। अगले दिन वह लड़का जूता पालिश करने वाले बच्चे के पिता के पास जाकर पूछ बैठता है कि वे अपने बच्चे को स्कूल क्यों नहीं भेज रहे हैं? वह अभागा पिता इस नन्हें बालक को देखता रह जाता है और जो जवाब देता है, वह किसी भी सभ्य समाज को पानी-पानी कर देने के लिए काफी है। वह कहता है, 'बाबू जी, स्कूल में न तो मैं पढ़ने गया और न ही मेरे पूर्वज गए इसलिए यह भी नहीं जा रहा है। हम तो मजूरी और दूसरों की सेवा करने के लिए ही पैदा हुए हैं।' इस जवाब से हैरान-परेशान वह मासूम चाहते हुए भी उस अभागे बच्चे के लिए कुछ नहीं कर पाता है, लेकिन वह घटना उसके मन के किसी कोने में पड़ी रहती है। वही बच्चा जब जवान होता है तो एक वक्त ऐसा आता है कि वह लेक्चररशिप छोड़कर मासूमों को उनकी मासूमियत लौटाने की मुहिम में लग जाता है। वही मुहिम कुछ ही वर्षों में 'बचपन बचाओ आंदोलन' का रूप धारण कर लेती है और वह बच्चा देश के हजारों बच्चों की जीवन रेखा बन जाता है। इस जीवन रेखा को सारा जग कैलाश सत्यार्थी के नाम से जानता है। जब यह लेखक कैलाश सत्यार्थी से बातचीत करने पहुंचा तो उनके कार्यालय के रिसेप्शन पर लगा एक बोर्ड दिखा रहा था कि बचपन बचाओ आंदोलन उस पल तक 78,865 बच्चों को मुक्त करा चुका है।कहने के लिए तो बच्चों को देश के भविष्य का तमगा दिया गया है। पर हकीकत यह है कि इस देश में मासूम उपेक्षित ही रहे हैं। उपेक्षा की मार झेल रहे इन बच्चों की दुर्दशा के लिए निश्चित तौर पर मौजूदा व्यवस्था जिम्मेदार है। पर अहम सवाल यह है कि अगर व्यवस्था का रोना रोते हुए हर कोई हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहे तो सामाजिक बदलाव एक गुलाबी सपना से अधक कुछ भी नहीं साबित होगा। अगर वाकई देशवासी व्यवस्था में बदलाव को आतुर हैं तो उन्हें अपने-अपने स्तर पर पहल करनी होगी। नए-नए प्रयोग करने होंगे। प्रयोग जब होगा तब ही उसकी सफलता की संभावना भी बनेगी। अगर प्रयोग करने से पहले ही उसके सफलता-असफलता के कयास लगाने लगे तब तो हो गया बदलाव। इस मामले में भी लोगों के लिए कैलाश सत्यार्थी प्रेरणा के स्रोत हैं। उन्होंने ग्यारह साल की उम्र में ही एक प्रयोग किया था। जिसने देखते ही देखते राई से पहाड़ का रूप धारण कर लिया।उस प्रयोग को याद करते हुए कैलाश सत्यार्थी की आंखों में चमक आ जाती है। खुशमिजाज कैलाश बालकवत् सरलता से जब बोलना शुरू करते हैं तो ऐसा लगने लगता है जैसे सारा दृश्य आंखों के सामने जीवंत हो उठा। वे कहते हैं, 'ग्यारह साल की उम्र रही होगी। छठी का परीक्षा परिणाम आने वाला था। मुझे यह पीड़ा बुरी तरह सता रही थी कि कई गरीब बच्चे सिर्फ किताब नहीं होने की वजह से पढ़ाई छोड़ रहे हैं। सो, मैंने अपने मित्र के साथ मिलकर एक ठेला किराए पर लिया। तीस अप्रैल को परीक्षा परिणाम आना था। उसी दिन ठेला लगाया और उस पर चढ़कर मैं बोलने लगा-बधाई, बधाई। आपके बच्चे पास कर गए हैं इसलिए बधाई। देखते-देखते भीड़ जुटने लगी और मेरा हौसला बढ़ने लगा। फिर मैंने कहना शुरू किया कि आज के बाद कई बच्चे स्कूल नहीं आएंगे। क्योंकि कई परिवारों के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे नई किताब खरीद सकें। पर अगर आप चाहें तो उनकी पढ़ाई जारी रह सकती है। लोगों की जिज्ञासा बढ़ी और मेरा बोलना जारी रहा। मैंने कहा कि आपके घर में जो भी पुरानी किताब हैं उसे हमारे ठेले में डाल दें। जो बच्चे किताब नहीं खरीद सकते, उन्हें हम उनकी जरूरत की पुस्तकें साल भर के लिए पढ़ने को देंगे।' इसके बाद तो देखते ही देखते कैलाश सत्यार्थी का वह ठेला दिन भर में दो बार भरा। पहले ही दिन तकरीबन दो हजार किताबें जमा हो गईं। छठी कक्षा में पढ़ने वाले कैलाश के पास बीए और एमए तक की किताबें एकत्रित हो गईं। इन किताबों की समझ नहीं होने की वजह से उन्हें जानकार लोगों का सहयोग लेना पड़ा।किसी ने ठीक ही कहा है कि जब इरादे नेक हों और रास्ता पाक हो तो कितना भी मुश्किल काम आसान हो जाता है। हजारों किताबें जमा हो जाने के बाद कैलाश सत्यार्थी विदिशा के कुछ स्कूलों के प्रधानाचार्यों से मिले। सब ने उस ग्यारह साल के मासूम के फौलादी इरादों का साथ दिया और विदिशा में पुस्तकों का एक ऐसा भंडार तैयार हो गया, जिसने कई विद्यार्थियों को अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ने के संकट से उबारा। अभी भी यह पुस्तकालय वहां चल रहा है और जरूरतमंद इसका लाभ उठा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि यहां विद्यार्थियों को पुस्तकें साल भर के लिए ही दी जाती हैं ताकि अगले साल उन किताबों से किसी और के अज्ञान का अंधोरा मिट सके। कैलाश सत्यार्थी के इस प्रयोग को छोटे-छोटे स्तर पर किए जाने की जरूरत है। ऐसे प्रयासों से अज्ञान का अंfधयारा मिटाने में काफी मदद मिलेगी और संपूर्ण राष्ट्र का भला होगा।कैलाश सत्यार्थी जेपी आंदोलन में भी सक्रिय रहे। छात्र आंदोलन में सत्यार्थी की सक्रिय भागीदारी रही। इसी दरम्यान 1978 में उनकी शादी हो गई। जयप्रकाश आंदोलन के बाद के दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, 'राजनीति में आने का भारी दबाव था। शरद यादव जैसे मेरे कई मित्र जनता पार्टी की टिकट पर विजय पताका फहरा चुके थे। उस चुनाव के वक्त मेरी उम्र महज 23 साल थी। अगर मैं 25 का होता तो मुझे जबर्दस्ती चुनाव लड़ा दिया जाता।' यह पूछे जाने पर कि 25 के बाद राजनीति में क्यों नहीं गए? क्या टिकट मिलते वक्त उम्र कम होने का बाद में अफसोस नहीं हुआ? पहले तो कैलाश सत्यार्थी जोर का ठहाका लगाते हैं और फिर संजीदगी के साथ बोलते हैं, 'उस वक्त तक मैंने र्धामयुग, दिनमान के साथ-साथ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था। अपने कई लेखों और वक्तव्यों में मैंने साफ तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि राजनीति के जरिए सामाजिक परिवर्तन नहीं होता है, बल्कि समाजनीति के जरिए समाज में बदलाव आता है। जनता की उपेक्षा करके नहीं बल्कि जनता को साथ लेकर ही राज और समाज में सकारात्मक बदलाव होगा।' राजनीति से कैलाश सत्यार्थी के मोहभंग के लिए यही सोच जिम्मेवार रही।इसके बाद कैलाश सत्यार्थी ने 'संघर्ष जारी रहेगा' के नाम से एक पत्रिका निकाली। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर इस पत्रिका को दबे-कुचले लोगों की आवाज बना दी। हाशिए पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे लोगों के दर्द को इस पत्रिका ने समेटा। सत्यार्थी उस दौर को हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की शुरुआत मानते हैं। वे कहते हैं, 'अस्सी के पहले हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में बंधुआ मजदूर जैसे शब्द भी नहीं थे।' संघर्ष जारी रहेगा में बाल मजदूरों की समस्या को भी काफी प्रमुखता दी जाती थी। एक दिन पत्रिका के कार्यालय में वासल खान नाम का एक व्यक्ति आया और उसने बताया कि वह और उसका परिवार पिछले पंद्रह साल से पंजाब के एक ईंट भट्ठा पर बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। भट्ठा मालिक उसकी चौदह साल की मासूम बच्ची को दिल्ली से गए दलालों के हाथों बेचने वाले हैं। कई आंदोलनों में शामिल रहे नौजवान कैलाश ने न आव देखा न ताव और अपने कुछ साथियों और एक फोटोग्राफर को साथ लेकर पंजाब के उस ईंट भट्ठे पर पहुंच गए। चौकीदार को डरा-धमका कर बंधुआ मजदूरों को ट्रक में बैठा भी लिया। लेकिन इसी बीच भट्ठा मालिक पुलिस के साथ आ धमका। मजदूरों के साथ मार-पीट तो हुई ही, साथ ही साथ कैलाश और उनके साथियों के साथ भी दर्ुव्यवहार हुआ। इन नौजवानों को ट्रक के संग बैरंग वापस भेज दिया गया। फोटोग्राफर का कैमरा तोड़ दिया गया। लेकिन उसने फोटो खींची हुई तीन रील किसी तरह बचा ली थी। अगले दिन चंडीगढ़ और दिल्ली के अखबारों में यह फोटो अखबारों के पहले पन्ने पर थी। दिल्ली लौटने और जानकारों से सलाह-मशविरा करने के बाद कैलाश सत्यार्थी उच्च न्यायालय चले गए। अदालत ने 48 घंटे के भीतर उन मजदूरों को पेश करने का फरमान जारी कर दिया। अगले ही दिन वे बंधुआ मजदूर दिल्ली ले आए गए और उन्हें वर्षों की गुलामी से मुक्ति मिली। राष्ट्रीय स्तर पर सत्यार्थी की यह पहली बड़ी जीत थी। इसके बाद कैलाश सत्यार्थी ने स्वामी अग्निवेश के साथ मिल कर बंधुआ मुक्ति मोर्चा का गठन किया। वे बताते हैं, 'काम करने के दरम्यान यह बात पुख्ता होती गई कि बंधुआ मजदूरों में बड़ी संख्या बच्चों की है। इस वजह से मैंने बचपन बचाओ आंदोलन का गठन किया।' वर्तमान में देश भर के 12 प्रांतों में बचपन बचाओ आंदोलन की राज्य इकाईयां हैं। इस संस्था के तकरीबन बीस हजार सदस्य मासूमों को बचपन लौटाने की मुहिम में लगे हुए हैं। बचपन बचाओ आंदोलन ने हजारों बाल मजदूरों को कालीन, कांच, ईंट भट्ठों, पत्थर खदानों, घरेलू बाल मजदूरी तथा साड़ी उद्योग जैसे खतरनाक कामों से मुक्त कराया है। बाल मजदूरी की पूर्ण समाप्ति के लिए बचपन बचाओ आन्दोलन ने बाल मित्र ग्राम की परिकल्पना की है। इसके तहत किसी ऐसे गांव का चयन किया जाता है जो बाल मजदूरी से ग्रस्त हो। बाद में उस गांव से धीरे-धीरे बाल मजदूरी समाप्त की जाती है तथा बच्चों का नामांकन स्कूल में कराया जाता है। इसके बाद इन बच्चों की बाल पंचायत बनाई जाती है। शहरों में इस योजना को बचपन बचाओ आन्दोलन बाल मित्र वार्ड के नाम से चला रहा है।बाल मजदूरी के खिलाफ कैलाश सत्यार्थी ने देश के साथ विदेशों में भी अलख जगाया है। बीते साल ही उनके नेतृत्व में 108 देशों के चौदह हजार संगठनों के सहयोग से बाल मजदूरी विरोधी विश्व यात्रा आयोजित हुई। इसमें लाखों लोगों ने शिरकत की। इसके प्र्रभाव के बारे में सत्यार्थी कहते हैं, 'आंदोलन का लाभ यह हुआ कि सार्क के सदस्य देशों ने जल्द ही बाल मजदूरी पर एक कार्यदल बनाने की घोषणा की है।' बचपन बचाने की इस मुहिम में सत्यार्थी को काफी ठोकरें भी खानी पड़ी हैं। बच्चों से मजूरी कराने वालों ने उनके साथी को मौत के घाट भी उतार दिया। सत्यार्थी पर भी हमला किया गया। 2004 में एक सर्कस में काम कर रही लड़कियों को छुड़ाने सत्यार्थी अपने बेटे और साथियों के साथ पहुंच गए। सर्कस चलाने वालों ने उन पर और उनके साथियों पर हमले किए। खून से सने सत्यार्थी अस्पताल में दाखिल कराए गए। अस्पताल से निकलते ही उन्होंने भूख हड़ताल की। इसके परिणामस्वरूप उन नेपाली बच्चियों को मुक्त कराया गया और उन्हें एक नई जिंदगी मिली। गुलामी की बेड़ियों से जकड़े बच्चों को मुक्त करवाने की बाद उनके जीवन को नई दिशा देने के खातिर बचपन बचाओ आंदोलन बाल आश्रम और बालिका आश्रम जैसे प्रकल्प भी चला रहा है। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कैलाश सत्यार्थी ने जो कार्य किया है, वह वाकई काबिलेतारीफ है। इससे लोगों को प्रेरणा लेकर पहल करनी चाहिए। ताकि सही मायने में सामाजिक बदलाव हो सके और एक जनोपयोगी व्यवस्था कायम हो सके।ईमेल: shekhar.du@gmail.com

शनिवार, 28 जून 2008

सौ सवाल कर गई ........

बडी करीब से देखा है
कूडे के ढेर में।
सिसकती है कैसे जिंदगी
गरीबी के अंधेर में।
है गन्दगी के बीच वो
जर्जर से झोपडे।
कुत्तों की किस्मत से उनमें
रास्ते हैं बडे -बडे।

उन्ही में देखा उस तरुणी को
जो कोने में सिमटी थी।
रूप माधुर्य की मल्लिका
फटे कपडो में लिपटी थी ।
बाप बूढा था हुआ
बेटी के भार से ।
कमर भी झुकी थी शायद
दहेज़ के मार से ।

पिता ने दामाद
अपनी उम्र का ढूंढा था ।
पैसे ने उसके अरमानो को
पैरों तले रौंदा था ।
फ़िर देखा उस सनकी को
जो पति उसका भावी था ।
प्यार नही उसकी आंखों में
बस हवास ही उस पर हावी था ।

गिंजता था जैसे वो
बेजान खिलौना थी ।
केवल दौलत के कारण ही तो
वो देवी भी बौना थी ।
हामी भी न पूछा
और पल्लू थमा दिया ।
बेटी को इस बाप ने
आख़िर ये कैसी सज़ा दिया।

बेमेल झोपडे की
ये बेमेल विवाहें ।
देख दिल रोता रहे
और निकलती रही आहें।

पुकार कर उसे एकांत में बुलाया
फ़िर मैंने उसे कुछ यूँ समझाया ।
क्या मन से इसे पति
स्वीकार कर सकोगी?
यदि नही! तो फ़िर विरोध क्यों नही करती हो?
समाज के चोंचलों से आख़िर क्यों डरती हो?

सुन मेरी बातें कहीं खोने लगी वो
फ़िर आँचल में मुंह छुपा कर रोने लोगी वो
उठी जो नज़र तो कमाल कर गई
जवाब मैंने माँगा था
सौ सवाल कर गई....

शुक्रवार, 20 जून 2008

हम आयें हैं यूपी -बिहार लुटने....




कहने को तो बिहार व यूपी में 'सुशासन' है। यहाँ काफ़ी हद तक बद्लाव आए हैं। परिवर्तन हुए हैं। राज्य तरक्की को लात मार रही है। विधि- व्यवस्था में सुधार आए हैं।

विकास की बात तो कुछ हद तक समझ में आती है, पर विधि-व्यवस्था में सुधार की बात पाच नही रही है। क्योंकि यहाँ विधि-व्यवस्था कानून से नही,नेता की जाति से तय होती है। अमन-चैन गुंडों के सुपुर्द है। रही सही कसर यहाँ की पुलिस पुरी कर देती है। सच पूछे तो राज्य को सरकार नही, बल्कि बाहुबली नेता, पुलिस और रंगदार ही चलाते हैं। और रंगदारी वसूलना तो पुलिस का परम कर्तव्य है। इसलिए उन्होंने पारदर्शिता के लिए बहाल किए गए कानून 'सूचना के अधिकार' को भी कमाई का ज़रिया बना लिया है। सूचना मांगने वालो को जेलों में डालने की बात पुरानी पड चुकी है। अब तो आवेदकों से सूचना जमा करने का भी पैसा वसूल रही है यूपी की पुलिस....

जी हाँ! यूपी पुलिस ने अधिकार से बचने और अपनी जेब गरम करने का आसान रास्ता निकाल लिया है। जब सुल्तानपुर के डॉक्टर राकेश सिंह ने पुलिस महानिदेशक से राज्य में मुसहर जाति के ख़िलाफ़ चल रहे पुलिसिया कारवाई के बारे में सूचना मांगी तो पुलिस महानिरक्षक ने श्री सिंह को बताया कि "इसके लिए 7।15 लाख रुपए जमा करें तभी मिलेगी आपको सूचना...... क्योंकि सूचना मुख्यालय में उपलब्ध नही है, जिससे वांछित सूचना दिया जाना सम्भव नही है। इन सूचनाओ का सम्बन्ध पुरे प्रदेश के थानों से है, इस कारण सूचना संकलित करने में सात लाख पन्द्रह हज़ार रुपये का खर्च आने कि संभावना है, जिसे आप जमा कर दे। "

बात अगर आर टी आई कि करें तो एक्ट में कहीं भी सूचना संकलित करने हेतु उस पर होने वाले व्यय के लेने का प्रावधान नही है, पर पुलिस महानिरक्षक पाण्डेय साहेब एक्ट पर कोई बहस नही करना चाहते...... आप कर भी क्या सकते हैं, और वैसे भी लुटने वालों को लुटने का बहाना चाहिए...........

गुरुवार, 12 जून 2008

हीरों के बदले सूचना का कारोबार

सुशील झा,बीबीसी संवाददाता, मुंबई

ये कहानी हीरों के एक ऐसे व्यवसायी की है जिन्होंने कारोबार में धोखा खाया तो किसी और रास्ते पर ही चल पड़े।
नया रास्ता भी कारोबार का ही पकड़ा लेकिन यह कारोबार किसी सामान का नहीं बल्कि सूचनाओं का है और इस कारोबार से उन्हें ख़ुद को तो फ़ायदा हो ही रहा है, समाज का भी कुछ भला हो रहा है.
मुंबई के चेतन कोठारी पिछले डेढ़ saaलगभग हर सप्ताह एक आरटीआई यानी सूचना के अधिकार के तहत पूछताछ दर्ज कर रहे हैं।
कोठारी पिछले 16 महीनों में 176 आरटीआई मामले दर्ज कर चुके हैं और इससे कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं.
मसलन मुंबई की ट्रेनों में हर दिन औसतन दस लोग दुर्घटना या अन्य कारणों से मरते हैं या फिर राष्ट्रपति भवन का बिजली बिल एक साल में क़रीब डेढ़ करोड़ रुपए का होता है.
ये ऐसे आंकड़ें हैं जो आरटीआई के ज़रिए सामने आए हैं. और सबको चौंकाने वाले हैं.
लेकिन आखिर वो ऐसा करते क्यों हैं?
मुंबई के चर्नी रोड पर अपने छोटे से दड़बेनुमा कार्यालय में बैठे चेतन बताते हैं कि आरटीआई के कारण उनके जीवन में बड़ा बदलाव आया है.
कभी हीरों के व्यापारी रहे कोठारी कहते हैं, "मैंने अपना 11 लाख रुपए सुमन मोटल्स नाम की कंपनी में लगाया था जिसकी कई स्कीमें चल रही थीं. जब पैसा मैच्योरिटी का समय आया तो कंपनी भाग गई. मेरे जैसे क़रीब 30 हज़ार छोटे निवेशक थे जिनका पैसा डूब गया."
जब पैसा नहीं मिला तो कोठारी अदालत में गए, पुलिस में शिकायत की लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला क्योंकि सुमन मोटल्स के बारे में उनके पास कोई जानकारी नहीं थी.
उन्हीं दिनों आरटीआई बिल आया और कोठारी ने इसके तहत सुमन मोटल्स के बारे में जानकारी मांगी.
इस जानकारी के बारे में वो बताते हैं, "आरटीआई के ज़रिए मुझे पता चला कि इस कंपनी के मालिक पर कई और मामले चल रहे हैं, कई वारंट उनके ख़िलाफ़ जारी हो चुके हैं, और उनका घर है मुंबई में."
"मैंने ये जानकारी कोर्ट में पेश की तो हमारा केस मज़बूत हुआ और हमें लोकल कोर्ट में जीत मिली. अब मामला हाई कोर्ट में है."
जादू की चाबी
लेकिन अपनी इस जीत के बाद कोठारी को मानो जादू की चाबी हाथ लग गई हो.
उन्होंने पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार और अन्य समस्याओं पर आरटीआई फाइल करना शुरु किया और इससे मिली जानकारी को मीडिया तक पहुंचाने लगे.
यह पूछे जाने पर कि आरटीआई के तहत सबसे बड़ी जानकारी उन्हें कौन सी मिली, कोठारी कहते हैं, "मुंबई की लोकल ट्रेनों में होने वाली मौतों की जानकारी अचंभित करने वाली थी. पिछले पांच साल में 20,700 लोग मारे गए हैं लोकल ट्रेनों में, मतलब औसतन प्रतिदिन दस लोग. इस जानकारी का न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी इस्तेमाल किया था."
इसके अलावा राष्ट्रपति भवन के बिजली बिल का भी आकड़ा दिलचस्प है. पांच साल में तकरीबन 16 करोड़ रुपए.
चेतन ने मुंबई पुलिस और ट्रैफिक पुलिस से जुड़े कई आरटीआई भी फाइल किए हैं.
लेकिन क्या उनके पास कोई और काम नहीं है आरटीआई फाइल करने के सिवा?
चेतन कहते हैं, "मैं कोशिश करता हूं कि लोगों को जागरुक बना सकूं. मैंने अपना जीवन इसी में लगा दिया है. थोड़ा बहुत पैसा बचा है उसे बैंकों में रखा है. मेरा जीवन चल जाता है. बाकी पूरा समय मैं ऐसी जानकारियां जुटाने में लगा रहता हूं जिनसे समाज को फायदा हो."
लेकिन क्या आरटीआई से जानकारी मिलना इतना सरल होता है?
चेतन कहते हैं, "आपको धैर्य रखना होगा और बार बार अधिकारियों को फोन पर या स्वयं जाकर बताना होगा कि ये जानकारी आपको चाहिए. फॉलो करते रहने पर जानकारी मिल जाती है. कई बार महीने डेढ़ महीने की सीमा में जानकारी नहीं मिलती लेकिन अगर आप कोशिश करते हैं तो जानकारी दे दी जाती है."
चेतन ने एक साल के लिए सेना में कमांडो ट्रेनिंग भी ली थी लेकिन फिर काम नहीं किया.
अब हीरों का व्यापार छोड़ कर सूचना के व्यापार में लग गए हैं.
उनके छोटे से कार्यालय में एक बड़ी सी तिजोरी है जिसमें हीरे होने चाहिए थे लेकिन अब आरटीआई की फाइलें हैं और इससे जुटाए गए आकड़े चेतन के लिए हीरों से कम नहीं हैं.

बुधवार, 11 जून 2008

पैसे की न कोई पार्टी है, न विचारधारा...



बुधवार, 11 जून, 2008 को 10:23 GMT तक के समाचार
पाणिनी आनंदबीबीसी संवाददाता, दिल्ली

आपके लिए भले ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दो अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराएं, अलग नीतियों और दृष्टिकोण वाले दल हों पर कुछ व्यापारिक और औद्योगिक हस्तियों के लिए ये एक ही हैं.
इसीलिए ये प्रभावशाली लोग दोनों ही पार्टियों की 'गुड बुक्स' में रहते हैं. और 'गुड बुक्स' में रहने का एक तरीक़ा है पार्टियों को चंदे देना या आर्थिक मदद पहुँचाना.
यह साबित होता है भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी के पिछले दो वित्तीय वर्षों (2005-07) के दौरान दानदाताओं की सूची देखकर.
सूचना का अधिकार क़ानून के तहत जब दिल्ली के एक छात्र और युवा कार्यकर्ता अफ़रोज़ आलम 'साहिल' ने चुनाव आयोग से दोनों राजनीतिक दलों के दानदाताओं की सूची मांगी तो पता चला कि कुछ संस्थाएं दोनों ही दलों को चंदे दे रही थीं.
और तो और, यूनियन कार्बाइड की वर्तमान मालिक, डाओ कैमिकल्स जैसी कंपनियाँ भी राजनीतिक दलों के लिए अस्पृश्य नहीं हैं. भारतीय जनता पार्टी ने उनसे भी चंदा स्वीकार किया है.
गोवा के कुछ व्यापारिक प्रतिष्ठान, जैसे डेम्पो इंडस्ट्रीज़, वीएस डेम्पो, डेम्पो माइनिंग, सेसा गोवा, वीएम सालगांवकर एंड ब्रदर्स जैसे समूहों ने दोनों वित्तीय वर्षों में दोनों ही पार्टियों को लाखों रूपए के दान दिए हैं.
डेम्पो और सालगांवकर गोवा के सबसे बड़े औद्योगिक समूहों में हैं. प्रदेश में लौह खनन के कारोबार में इनका ख़ासा वर्चस्व है और इनके राजनीतिक दलों से भी अच्छे संबंध माने जाते हैं.
इसी तरह से आदित्य बिरला समूह से संबंधित जनरल इलेक्टोरल ट्रस्ट ने जहाँ वर्ष 2005-06 में भाजपा को 35 लाख रूपए का दान दिया है वहीं वर्ष 2006-07 में कांग्रेस को 10 करोड़ रूपए का दान दिया है.
दिलचस्प बात यह है कि कई ऐसे पब्लिक स्कूल और शैक्षणिक संस्थाएं भी हैं जिन्होंने इन पार्टियों को लाखों रूपए का दान दिया है. दिल्ली के एक शैक्षणिक समूह, अकीक एजुकेशन सेंटर ने तो वर्ष 2005-06 के दौरान भाजपा को 75 लाख रूपए दिए हैं.
कई माइनिंग कंपनियाँ, प्रापर्टी-रियल एस्टेट कंपनियाँ, ट्रस्ट, रेज़िडेंट वेलफ़ेयर एसोसियशन्स, निर्यातक, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ - दानदाताओं में शामिल हैं.
खाने के और, दिखाने के और...
अगर भोपाल गैस त्रासदी को याद करें तो राजनीतिक मंच पर भाजपा ने बहुत प्रभावी ढंग से कांग्रेस को घेरा था.
लेकिन भाजपा को शायद अब यूनियन कार्बाइड के वर्तमान मालिक से कोई तकलीफ़ नहीं है. इसीलिए पार्टी ने वर्ष 2006-07 में डाओ कैमिकल्स से भी एक लाख रूपए का चंदा स्वीकारा है. पार्टी को कंपनी ने सिटी बैंक के ड्राफ़्ट नंबर 1989 के ज़रिए भुगतान किया था.
डाओ कैमिकल्स ने वर्ष 2001 में यूनियन कार्बाइट कंपनी को ख़रीद लिया था. अब यूनियन कार्बाइड के दायित्व और संपदा की मालिक यही कंपनी है.
रसायनों और प्रदूषण के मुद्दे पर काम कर रहे समाजसेवी गोपालकृष्ण इसे एक गंभीर मसला मानते हैं. वे कहते हैं, "डाओ कैमिकल्स दुनिया की सबसे बड़ी कैमिकल कंपनियों में है. यूनियन कार्बाइड जैसे विवादित समूह का अधिग्रहण कर चुकी इस कंपनी से पैसा लेना किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता. ख़ासकर भाजपा जैसी पार्टी के लिए जो कि भोपाल गैस के मुद्दे पर कांग्रेस को घेरती रही है."
भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं - रविशंकर प्रसाद और राजीव प्रताप सिंह रूडी - से जब इस चंदे के बारे में प्रतिक्रिया माँगी गई तो दोनो ने सवाल से पल्ला झाड़ते हुए कहा कि वे इसकी पुष्टि करने के बाद ही टिप्पणी दे पाएँगे.
चंदे का फंडा
राजनीतिक दल आम आदमी की सदस्यता से लेकर बड़े औद्योगिक घरानों तक से पैसे लेते हैं. चंदे के रूप में मिलने वाला यह पैसा ही राजनीतिक दलों के कामकाज का ईधन बनता है.
पर क्या पैसा किसी से भी लिया जा सकता है या चंदा लेते वक्त पार्टी दानदाता कि विचारधारा, उसकी छवि और काम, चरित्र जैसी बातें भी ध्यान में रखी जाती हैं?
कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा कहते हैं, "जो लोग हमारी पार्टी के शुभचिंतक हैं, जिन्हें हम जानते हैं, हम उन्हीं लोगों से चंदा लेते हैं. विचारधारात्मक स्तर पर मेल होना ज़रूरी है. जो कांग्रेस की विचारधारा से सहमत हैं, हम उन्हीं से दान लेते हैं. ऐसे किसी से भी पैसा नहीं ले लिया जाता है."
पर जब हमने बताया कि कुछ लोगों ने दोनों ही पार्टियों को पैसा दिया है, तो पहले तो मोतीलाल वोरा कहते हैं कि हम इसे देखकर ही टिप्पणी करेंगे और फिर टका-सा जवाब मिला, "हमें कैसे मालूम चलेगा, कोई भाजपा को देता है या समाजवादी पार्टी को देता है? या क्या करता है इसे मैं कैसे जान सकता हूँ? उनके खातों का विवरण मेरे पास तो आते नहीं."
भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद इस पर कुछ अलग राय भी रखते हैं. वो कहते हैं, "अगर कोई माफ़िया है या अपराधी है तो उससे पैसे लेने का सवाल ही नहीं उठता है पर बाक़ी के लोग तो पैसा देते हैं. हमारे अलावा और किस-किस को पैसा देते हैं, यह तो हमारा विषय नहीं है. दानदाता इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वो और किन दलों को भी पैसा देगा."
'कोउ नृप होए, हमै का हानि...'
तो क्या एक से ज़्यादा दलों को चंदा देने दानदाताओं के स्वार्थी और अवसरवादी होने का संकेत है?
गोवा के उदाहरण पर भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद कहते हैं, "जब भी अनिश्चितता वाला फ़ैसला आएगा, उससे अनिश्चितता पैदा होगी. इस तरह के तत्वों पर अपने स्वार्थ के लिए (राजनीतिक दलों पर) नियंत्रण करने का दबाव बढ़ेगा. पर इसका उत्तर दान देने वाले के चरित्र पर निर्भर नहीं करता. इसका निर्णय तो जनता को करना पड़ेगा."
सामाजिक कार्यकर्ता और मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित अरुणा रॉय कहती हैं कि इस जानकारी का सार्वजनिक होना इस दलील को और मज़बूत करता है कि राजनीतिक दलों के आय-व्यय में पारदर्शिता सुनिश्चित करना कितना ज़रूरी है.
वे कहती हैं, "इससे राजनीतिक दलों का भीतरी चेहरा लोगों के सामने आ सकेगा और लोगों को पता चलेगा कि नीतियों को तय करने में किन लोगों का स्वार्थ निहित है."
अरुणा रॉय कहती हैं, "दानदाताओं की सूची से तो लगता है कि इन संस्थाओं का विचारधारा से कोई वास्ता नहीं है बल्कि यह एक तरह की रिश्वत है ताकि सरकार किसी की भी बने...हमारा काम कर दे. इसीलिए राजनीतिक शुद्धता और राजनीति को और नैतिक बनाने के लिए भी इन जानकारियों का सार्वजनिक होना ज़रूरी है."
हालांकि राजनीतिक दलों की इस संदर्भ में पारदर्शिता का सवाल जब भाजपा प्रवक्ता से पूछा तो उन्होंने कहा कि ऐसा पहले उन संस्थाओं, संगठनों पर ही लागू हो जो ऐसी माँग उठा रहे है.
पर जनता के पैसों और समर्थन से चलने वाले राजनीतिक दल ख़ुद पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित क्यों नहीं करते? भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद कहते हैं, "चुनाव आयोग हर प्रत्याशी से जानकारी लेता ही है. हम चंदे का ब्यौरा चुनाव आयोग को भेजते ही हैं, इसलिए ऐसा कहना ग़लत है कि पारदर्शिता है ही नहीं. और हो, इसपर राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनाने की ज़रूरत है."
सचमुच, पैसे की न कोई पार्टी है, न विचारधारा...

बिहार नाही सुधरी....


गरीबी, बेचारगी, मायूसी, कत्ल, चोरी, डकैती, बात-बात पर रिश्वत और फिर नेताओं के झुटे आश्वासन..... और उनमें उभरती "बिहार नाही सुधरी..." की सुरीली धुन।
आंखें खुली तो सामने मेरे बोगी में एक सज्जन बिहार में विकास के मुद्दे पर अपनी आम सभा द्वारा कुछ लोगों को सम्भोधित कर रहे थे। उनकी अनेक दलीलें थी,जैसे यहाँ के लोग दो रुपए सरकारी बिजली के बिल का भुगतान करना मुनासिब नही समझते, लेकिन प्राइवेट या निजी जनारेटरों में पैसे फूंकना अच्छा लगता है।
ट्रेनों में टिकट नही लेते,लेकिन जुर्माना या रिश्वत देना भला मालूम पड़ता है........ आदि -अनादी।
मैं पुरी तरह सजग हो कर उनकी बातें सुन रहा था। एक पल के लिए लगा कि इनके तरह बिहार का हर व्यक्ति सोचने लगे तो बिहार सुधर सकता है। देश सुधर सकता है। तभी अचानक टी. सी. आया। टैब जा कर पता चला कि वो सज्जन जो एक जिम्मेदार नागरिक की तरह भाषण दिए जा रहे थे, बेटिकट थे। टिकट मांगने पर बडे शान से ' स्टाफ ' शब्द का प्रयोग किया। जब टी. सी. ने अपनी शान दिखाई तो वो सज्जन फाइन भरना ही मुनासिब समझे।
मैं मन ही मन मुस्कुराया और फिर मेरी आँख लग गई। और सपने में "बिहार नाही सुधरी...." की मधुर धुन मुझे आनंदित कर रही थी।

मंगलवार, 10 जून 2008

मेरे सपनो को जानने का हक रे.......

सोमवार, 9 जून 2008

राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे......

हमारे देश भारत में जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं,उनके संचालन हेतु करोडो-अरबों रुपयों की ज़रूरत होती है। चाहे वह कार्यकर्ताओं की मीटिंग हो या नेता जी के पीछे नारे लगाने के लिए भाडे के कार्यकर्ता ,सबके लिए पैसा चाहिए। आप ख़ुद सोचिये आज के युग में किसके पास इतना वक्त है कि वह मुफ्त में काम करे। वैसे वह दौर कुछ और था जब लोग नेता जी के एक इशारे पर अपनी जान तक देने को तैयार रहते थे लेकिन अब ज़माना कुछ और है।
प्रश्न यह उठता है कि राजनितिक दलों के पास यह पैसे आते कहाँ से हैं?इसका सीधा सा जवाब है ,यह सारे पैसे चंदे द्वारा जमा किए जाते हैं। जी हाँ! उद्योगपति ,राजनितिक दलों को हमेशा से चन्दा देते आए हैं। आख़िर ये चन्दा क्यों दिए जाते हैं यह किसी से छिपा नही है। खैर उध्योग्पतियो की बात तो समझ में आती है। पर यह चन्दा जब प्राइवेट स्कूल वाले दें ,तब इसे आप क्या समझंगे?
जी हाँ! पब्लिक स्कूल वाले भी चन्दा देते हैं और यह चन्दा कोई मामूली रक़म नही है बल्कि लाखों और करोडों में है। और न जाने अंदर ही अंदर कितने चंदे और दिए गए होंगे? यह अभी-अभी तथ्य सूचना के अधिकार से उजागर हुआ है। बहरहाल हमे आपके प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा........

शनिवार, 7 जून 2008

छात्र इस अधिकार से वंचित क्यों.....?


ख़बर है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने सी बी एस ई के तहत दसवीं व बारहवीं कक्षा के परीक्षार्थी की सुविधा के लिए उन्हें उत्तर पुस्तिकाएं देखने का अधिकार देने का समर्थन किया है। यह मांग नातिजाओं से असंतुष्ट छात्रों के लिए एक बड़ी राहत वाली साबित हो सकती है,क्यूंकि वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने विद्या की अर्थी निकाल दी है। हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी है कि छात्रों की कई वर्षों की मेहनत का मूल्यांकन मात्र तीन घंटो ही कर लिया जाता है। तीन घंटो में तीन-चार हज़ार शब्द लिख मारो या मर जाओ,तीसरा कोई विकल्प छात्रों के पास नही होता। हद तो यह कि जो छात्र साल भर मेहनत व लगन से पढ़ाई करता है और उसका शैक्षिक रेकॉर्ड भी दुसरे छात्रों से बेहतर है, फिर भी वह परीक्षा में फेल है। वहीं वह छात्र जिसे गुंडागर्दी करने से फुरसत ही नही है, वही छात्र परीक्षा का टौपर है। आख़िर ऐसा कैसे सम्भव हो जाता है?
ऐसा इसलिए संभव हो जाता है कि आज शिक्षक वर्ग में भी भ्रष्ट व रिश्वतखोर लोग पैदा होने लगे हैं। सच तो यह है कि परीक्षा प्रणाली में बढे पैमाने पर धांधली होती है, इसका इससे बेहतर प्रमाण क्या हो सकता है कि जब परीक्षा व्यस्था में पारदर्शिता की मांग उठी तो छोटे बढे सभी परीक्षा संस्थान हाय-हाय करने लगे। हर वर्ष जब परीक्षा परिणाम घोषित होने लगता हैं , तो छात्रों व अभिभावकों में भारी असंतोष देखने को मिलता है। विशेषकर पिछले वर्ष मेरठ में तो यह असंतोष कुछ ज़्यादा ही मुखर हो गया और एक बढे आन्दोलन का रूप ले लिया। तेज़ गर्मी को बर्दाश्त करते हुए यह छात्र कई दिनों तक धरना- प्रदर्शन करते रहे।
इस तरह के बहुत सारे विवाद हर वर्ष हमें देखने को मिलते हैं। हर वर्ष यह असंतोष उभरता है और हर साल बहुत सारे छात्र पुनः कॉपी जांच की मांग करते है और मांग भी क्यूँ न करें? छात्रों की कॉपियाँ तो कभी कभी जांच होने के पूर्व ही चूल्हे का इंधन बन जाती हैं।

जी हाँ! पिछले वर्ष ही उत्तर प्रदेश में बोर्ड परीक्षाओं की हजारों उत्तर पुस्तिकाएं मूल्यांकन केन्द्र पर पहुँचने के बजाये बलिया-लखनऊ राजमार्ग के किनारे गुज़र बसर करने वाले गरीबों के चूल्हे की इंधन बन गयी. इस तरह की बेशुमार घटनाओं के बावजूद (जो अपने आप में हमारी परीक्षा प्रणाली पर एक सवालिया निशान है.) हर साल परीक्षाओं से संबंधित अधिकारी एक ही जवाब देते हैं कि उतर पुस्तिकाओं का पुनः मूल्यांकन नहीं किया जाएगा और न ही उत्तर पुस्तिका संबंधित छात्र को दिखाई जाएगी. अधिक से अधिक कुछ स्थानों पर यह व्यवस्था तो कर दी गई है कि किसी उत्तर पुस्तिका के अंकों को एक बार और जोड़ कर देख लिया जाए। (कहीं -कहीं पुनः जांच का सिस्टम भी है ,पर आम तौर पर छात्रों के अंक घटा ही दिए जाते हैं।) इससे अधिक और कोई राहत बेचैन छात्रों को देने को हमारे परीक्षा अधिकारी तैयार नही हैं।

ढाई वर्ष पूर्व "सूचना का अधिकार एक्ट-२००५ के आ जाने से छात्रों में एक नई उम्मीद जगी। छात्रों को एहसास हुआ शायद अब परीक्षा प्रणाली में पारदर्शिता आ जाएगी। लेकिन अधिकारियों को यह कहाँ बर्दाश्त होने वाला था। इसलिए उन्होंने सरकार पर दबाव बनाया कि सूचना के अधिकार में संसोधन कर इसके दायरे से "कॉपी के पुनर्मूल्यांकन" या दुबारा जांच को ही बाहर कर दिया जाए, पर ऐसा हो ना सका।

सवाल यह है कि इन परीक्षा अधिकारियों को उत्तर पुस्तिका दिखाने से इतना परहेज़ क्यों है? लगभग बीस मिनट में एक छात्र या छात्रा को उसकी उत्तर पुस्तिका दिखाई जा सकती है और उसे जो भी शिकायत हो उसकी तसल्ली कि जा सकती है। लेकिन समझ में नही आता पारदर्शिता के लिए बहाल किए गए केन्द्रिया सूचना आयोग को इसमे क्या प्रॉब्लम है?जबकि कई राज्य अपने छात्रों को कॉपी दिखाने का आर्डर दे चुके हैं। ख़ुद केंद्रीय सूचना आयोग के सूचना आयुक्त औ पी केजरीवाल किसलय नामक छात्र की एक अपील पर राष्ट्रीय मुक्त शिक्षा संस्थान को प्राप्तांक दिखाने का आदेश दे चुके हैं।

किसलय राष्ट्रीय मुक्त शिक्षा संस्थान से पढ़ाई कर रहा था और २००५ के अंत में उसने बारहवीं की परीक्षा दी थी। जीव विज्ञान विषय में कम अंक आने पर उसने २००६ में फिर से इस विषय की परीक्षा दी थी। लेकिन २००६ की परीक्षा का अंक नही बताया गया। अंत में किसलय ने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए संस्थान से २००६ के परीक्षा का अंक बताने को कहा, जिसे संस्था ने खारिज कर दिया। अंत में किसलय ने केंद्रीय सूचना आयोग में अपील की।

पिछले दिनों कर्नाटक सूचना आयोग ने भी राज्य लोक सेवा आयोग को कहा कि प्रार्थी के मांगने पर परीक्षाओं कि मूल्यांकित कॉपी की प्रतिया छात्रों को उपलब्ध करे जाए। कर्नाटक सूचना आयोग का यह फैसला ई रामामूर्ति बनाम कर्नाटक लोक सेवा आयोग के मामले में आया।

मणिपुर राज्य सूचना आयोग ने भी एक मामले में उत्तर पुस्तिका दिखाने का अहम् फ़ैसला दिया और २४ वर्षीय परीक्षार्थी सलाम प्रसंता गृह मंत्रालय द्वारा पुस्तिका दिखाए जाने से संतुष्ट भी हुआ। यही नही गुजरात और छत्तीसगढ़ के सूचना आयोग भी अपने राज्यों में उत्तर पुस्तिका दिखाने का आर्डर दे चुके हैं, ताकि परीक्षा में असंतुष्ट छात्र अपने को संतुष्ट कर सकें।

ज़ाहिर है कडी मेहनत करने वाले छात्रों कोअंक यदि उनकी उम्मीद से कम आ जाए तो मन में यह शक पैदा होना स्वाभाविक है कि कही शिक्षक द्वारा उसके साथ अन्याय तो नही किया गया?" कम से कम छात्रों का इतना हक तो बनता ही है कि वे बस एक बार यह देख सके कि उनकी उत्तर पुस्तिका का मूल्यांकन किस तरह हुआ है। आख़िर यह कोई बहुत बडी मांग नही जिसे पूरा न किया जा सके।

एक ओर तो शिक्षक विद्यार्थियों के तनाव पर चिंता प्रकट करते हैं और दूसरी ओर इस तनाव को दूर या कम करने का जो उपाय है उनसे ही दूर भागते हैं, आख़िर ऐसा क्यों? विद्यार्थियों पर बढ़ते तनाव को कम करने के लिए ज़रूरी है कि परीक्षा प्रणाली को पारदर्शी बनाया जाए, और वैसे भी भारतीय लोकतंत्र में जब युवाओं विशेषकर विध्याथिर्यों की अग्रणी भूमिका से इनकार नही किया जा सकता है, तो फिर इनके हितों की अनदेखी कैसे की जा सकती है? छात्रों द्वारा हो रही आत्महत्या और विरोध की घटना को कैसे नकारा जा सकता है? जबकि परीक्षा के परिणामों के आ जाने के बाद यह आंकडे और भी बढ़ जाते हैं।(ओर विरोध भी क्यों न हो? क्या सौ नम्बर लाने का अधिकार सिर्फ़ सी बी एस ई के छात्रों को ही है? दिलचस्प तो यह है कि यहाँ हिन्दी जैसे विषयों में भी सौ अंक दिए जा रहे हैं जो बिहार और उत्तर प्रदेश के सामने कहीं भी नही टिक पाएंगे। कम से कम हिन्दी के मामले में तो ज़रुर....) खैर,ऐसे में छात्रों की उत्तर पुस्तिकायों के मूल्यांकन में हो रही धांधली को देखते हुए सरकार की ओर से ठोस पहल की आवश्यकता है। मीडिया को भी इस ओर ध्यान देने की ज़रूरत है,क्यूंकि परीक्षा मिलने वाले ही अंक ही छात्रों के जीवन की दशा और दिशा तय करते हैं।




बुधवार, 4 जून 2008

कैसी सूचना ....? कैसा अधिकार....?

'सूचना का अधिकार' कानून को देश में लागू हुए तीन साल पूरे होने को है, पर आज भी ये कुछ राज्यों की जनता के लिए सिर्फ एक सपना बना हुआ है। सूचना निर्गत करने की कागजी कारवाई के बहाने ही लोगों को इतना टहलाया जाता है कि वह स्वंय एक हास्यास्पद सूचना बन कर रह जाता है। अंततः थक हारकर भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी से लड़ने वाले इस मारक अस्त्र से भी निराश हो जाता है और यह समझ लेता है कि सरकारी विभागों में पारदर्शिता लाने की बात तो दूर इसके बारे में सोचना भी एक बहुत बड़ा अपराध है।
ऐसे में इस कानून का क्या फायदा? जब लोगों को 'सूचना' पाने का 'अधिकार' नहीं, बल्कि सिर्फ 'अधिकार' की 'सूचना' हो।(बल्कि सच्चाई तो यह है की इस अधिकार की सूचना भी आधी अधूरी ही है )
बात अगर मध्य प्रदेश की जाए (जहाँ १९९६ में ही राइट टू इन्फोर्मेशन बिल तैयार कर लिया गया था ) तो आलम यह है कि मुख्य सूचना आयुक्त के दफ्तर में न ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध हैं, और न ही ज़रूरत के अनुसार आयुक्त बनाए गए हैं। नौ की जगह सिर्फ तीन आयुक्त से ही काम चलाया जा रहा है। शिकायतों का अम्बार है ,पर अब तक एक भी सरकारी अफसर दण्डित नही हुआ है।
कुछ राज्यों में मनमर्जी आवेदन फीस वसूलने कि बात भी नई नहीं है।धारा-४ के तहत ख़ुद ही देने वाली सूचना भी कुछ राज्यों के कुछ ही विभागों में उपलब्ध है। दिलचस्प बात तो यह है कि जिस राजस्थान के लोगों ने इस अधिकार के लिए न जाने कितनी रातें सड़कों पर गुजारी , न जाने कितनी बार जेल गए, वहाँ भी स्थिति बेहतर नहीं है। यह बात हाल में हुए एक सर्वे से स्पष्ट हो जाती है।
भारत में सूचना के अधिकार के लिए मॉडल स्टेट माने जाने वाला बिहार की हालत तो और भी भयावह है। सूचना मांगने पर आवेदकों को धारा-107 के तहत फंसा दिया जाता है। मुख्यमंत्री के जनता दरबार में यदि कोई पीड़ित शिकायत करता है, तो उसके खिलाफ कारवाई भी की जाती है। जबकि राज्य में सूचना उपलब्ध करवाने हेतु "जानकारी" नामक एक कॉल सेंटर की स्थापना भी 29 जनवरी, 2007 को की गई थी, पर सच्चाई यह है की यह कॉल सेंटर कुछ दिनों में काम करना बंद कर दिया। ( खबर है की इसे दुबारा शुरू कर दिया गया है), कई जिलों से आप नम्बर लगाते लगाते थक जायेंगे पर यह कमबख्त नम्बर तो लगेगा ही नहीं। आपको बार-बार "यह नम्बर उपलब्ध नहीं है,कृपया डायरेक्टरी की जांच कर लें." सुनने को मिले तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं है,क्यूंकि यह बिहार है, यहाँ सब ऐसे ही चलता है।
उत्तर प्रदेश तो इससे भी दो कदम आगे है। हाल में ही राज्य के आजमगढ़ जिले के दो ग्रामीणों को सूचना मांगने के जुर्म में जेल भेज दिया गया और फिर दिल्ली में संतोष पर हुए जानलेवा हमले को कैसे भुलाया जा सकता है। कितनी अजीब बात है, इस कानून के आने से देश की जनता में यह उम्मीद जगी थी की शायद अब भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जाएगा, भ्रष्टाचार बेलगाम बढ़ता ही जा रहा है। हालत तो यह है की निगरानी तंत्र पर भी निगरानी की ज़रूरत है। ऐसे में मीडिया ही कुछ कर सकती है पर अफ़सोस मीडिया तो लोगो को ग्लैमर और धर्म का पाठ पढ़ाने लगी है। उसके लिए इस सूचना के अधिकार का कोई महत्त्व नहीं।

रोजी की राह में रोड़े बड़े

भारत गांवों का देश है। देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी आज भी गांवों में ही निवास करती है और गांवों में गरीबों की दयनीय हालत किसी से छुपी हुई नहीं है। सरकार द्वारा 'भारत निर्माण' की बात तो की जाती रही लेकिन गांव में बसने वाले 'भारतीयों' के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। ऐसे समय में जब किसान आत्महत्याएं कर रहे थे, नौजवान बेरोजगारी की मार झेल रहे थे तो एक 'कानून' ने देश के इन सबसे गरीब व उपेक्षित लोगों के दिलों में उम्मीद की एक किरण जगाई। वह किरण है 'राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून' यानी 'नरेगा'।
दरअसल, यह कानून भारत सरकार ने ऐसे ही पास नहीं कर दिया। बल्कि जब देश में भूखे पेट और भरे गोदामों की बात सामने आई तो वर्ष 1999 में गोदामों के ताले तोड़ने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के नेतृत्व में किसानों की एक टीम उदयपुर जिला कलेक्ट्री से कूच कर एफ.सी.आई. के गोदामों तक गई। इन्हें बीच में पुलिस ने गिरफ्तार कर शहर से 10 कि.मी. की दूरी पर छोड़ दिया। ये क्षण काफी ऐतिहासिक थे। इसने गरीबों को लड़ने की ताकत दी। इसके बाद ही रोजगार गारंटी कानून की मांग देश भर में उठने लगी और लगातार अकाल से जूझते राजस्थान (जहां लगभग 94 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है) के जनसंगठनों ने 'हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम' नारे के जरिए इस पहल को तेजी से राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया। अंतत: दो फरवरी 2006 को जनता के इस कानून को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में शुरू किया। प्रारंभ में इसे सिर्फ 200 जिलों में ही लागू किया गया जबकि इस देश में तकरीबन 600 जिले हैं। अब तक यह कानून 335 जिलों तक पहुंच चुका है। बाकी जिलों में अप्रैल 2008 से इसे लागू करने की सरकारी घोषणा हुई है।
वर्तमान में इस रोजगार गारंटी कानून को असफल साबित करने के लिए एक वर्ग सक्रिय है। इस वर्ग का मानना है कि इसका सारा पैसा भ्रष्टाचार में चला जाता है। इससे गरीबों का कोई भला नहीं होने वाला है। इसलिए बेहतर है कि इस धन को हवाई जहाज से फेंक कर बांट दिया जाए। वास्तव में यही लोग भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले हैं। आखिर ये कहां की अक्लमंदी है कि सर में हुए जख्म के खातिर पूरे सर को ही काट कर फेंक दिया जाए बजाए इसके कि इसका सही इलाज हो। ये बात सच है कि ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने के लिए बनाया गया यह कानून अब तक ग्रामीण भारत की तस्वीर तो नहीं बदल सका है लेकिन पंचायत के सरपंचों ने अपनी तकदीर व तस्वीर जरूर बदल ली है। बीते दिनों राजस्थान के झालावाड़ जिले के मनोहर थाना की पांच पंचायतों में 'रोजगार एवं सूचना का अधिकार अभियान' द्वारा किए गए 'सोशल आडिट' (सामाजिक अंकेक्षण) द्वारा भ्रष्टाचार के बहुत सारे तत्व उजागर हुए। पहले तो सूचना देने में आनाकानी की गई लेकिन धरना दिए जाने पर दबाव में आकर आधी-अधूरी सूचना उपलब्ध कराई गई। इसके बाद जब उन्हें लगा कि इस सूचना से भी हमारे बहुत सारे घोटाले उजागर हो सकते हैं तो अभियान के लोगों को बुरी तरह से पीटकर गांव से भगाने का रास्ता अख्तियार किया गया। इसके बावजूद इन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हार नहीं मानी बल्कि इस पिटाई से उनका मनोबल और बढ़ गया। प्रशासन व गांव के लोगों ने भी इन कार्यकर्ताओं का भरपूर साथ दिया। पिछले दिनों झालावाड़ के मनोहरथाना ब्लाक में एक 'जन सुनवाई' हुई। इस 'जन सुनवाई' के बाद सामने आने वाले इनके भ्रष्टाचार की कहानियां वाकई पूरे देश को चौंकाने वाली हैं। घोटाले हजारों में नहीं बल्कि लाखों और करोड़ों में थे। सिर्फ मनपसर ग्राम पंचायत के एक छोटे से गांव में दो लाख ग्यारह हजार सात सौ बीस रुपये का गबन एक ही कार्य में पाया गया।
दिनभर चली इस 'जन सुनवाई' में राज्य सरकार के अधिकारी पूरी तरह से अनुपस्थित रहे। हालांकि, केन्द्रीय सरकार के ग्रामीण विकास विभाग की केन्द्रीय रोजगार गारंटी परिषद के तीन सदस्य ज्यां द्रेज, एनी राजा व अरुणा राय तथा केन्द्रीय सतर्कता आयोग के तकनीकी परीक्षक विजय कुमार मौजूद रहे। राज्य सरकार को आमंत्रित किए जाने के बावजूद नदारद रहने का कारण बार-बार लोग अपने भाषण में पूछते रहे। जन सुनवाई के दौरान एकल नारियों को अलग से जाब कार्ड दिए जाने का प्रस्ताव भी पारित हुआ।
सामाजिक अंकेक्षण प्रक्रिया को ताकतवर बनाने, सरपंचों व कार्ड पंचों का मानदेय बढ़ाने संबंधी प्रस्ताव भी आए। जन सुनवाई के पैनलिस्ट श्रीमती एनी राजा ने रोजगार गारंटी योजना के तहत दिए जाने वाले जाब कार्ड के लिए पैसे वसूले जाने की घटना को कानून का उल्लंघन करार दिया। राज्य सरकार की ओर से किसी भी प्रतिनिधि के जन सुनवाई में नहीं आने को चिंताजनक मानते हुए उन्होंने कहा कि सामाजिक अंकेक्षण में राज्य सरकार का कोई सहयोग नहीं करना काफी दुखद है। सरकारी कुर्सियां आज खाली रहीं क्योंकि वे जवाबदेही से बचना चाहते हैं, उनका नहीं आना भी घोटालों को स्वीकारना ही है। जन सुनवाई के दौरान अरुणा राय ने कहा कि सामाजिक अंकेक्षण सच्चाई को सामने लाता है और इससे लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। इस जन सुनवाई में सैकड़ों लोग जिस दृढ़ता, निर्भीकता व ईमानदारी से बोले उससे स्पष्ट होता है कि जनता और भ्रष्टाचार नहीं होने देगी। प्रो. ज्यां द्रेज ने केन्द्रीय दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित किए जाने पर जोर देते हुए कहा कि अगर हमें रोजगार गारंटी कानून को बचाना है तो इसे भ्रष्टाचार से बचाना होगा।
राजस्थान सरकार द्वारा मनोहर थाना इलाके में लगभग 29 करोड़ रुपये खर्च किए जाने के बावजूद लोगों से जाब कार्ड बनाने के लिए 70 से 500 रुपए रिश्वत लिए गए। इसके अलावा जातिगत भेदभाव काफी देखने को मिले। दलितों को यहां भी नजरअंदाज किया गया। राजस्थान के इस इलाके में कहीं भी हो रहे कामों के बोर्ड देखने को नहीं मिले। रोजगार गारंटी योजना में हो रही धांधली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां कई स्थानों पर कागजों में मरे हुए लोगों को भी काम में लगा हुआ दिखाया जा रहा है। मस्टर रोल में अनेकों फर्जी नाम हैं। यहां तक की सरकारी कामों के लिए खरीदी जा रही सामग्री में भी काफी धांधली की जा रही है। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत कराए गए कामों की गुणवत्ता ऐसी थी कि उंगली लगाने मात्र से सिमेंट गिर जाए। यही नहीं गांवों में कई कच्चे चेकडेम बने पर अधिकांश चेकडैम चोरी हो गए हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि एक ही जगह तीन-तीन तालाब खोदे गए और तालाब के नाम पर पेड़ों की बली चढ़ाने में भी लोग नहीं हिचकिचाए।
राजस्थान जैसे राज्य के गरीबों के लिए रोजगार गारंटी कानून आशा की एक किरण की तरह है। अगर ईमानदारी से इस योजना पर काम किया जाए तो इसकी मदद से गांव के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में भी सहायता मिल सकती है। पर इसके लिए शर्त यह है कि कार्यों की गुणवत्ता में सुधार और थोड़ी-सी ईमानदारी बरती जाए। यह एक ऐसी योजना है जिससे ग्रामीण भारत की तस्वीर व तकदीर बदल सकती है। इस कानून की असफलता से ग्रामीण लोगों के साथ-साथ पूरी अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी। क्योंकि जब गरीब की जेब में पैसा नहीं होगा तो वह बाजार तक कैसे पहुंचेगा? अगर रोजगार गारंटी के जरिए पैसा गरीब के घर तक पहुंचता है तो वह पैसा स्थानीय बाजार में ही खर्च करेगा। जाहिर है कि यह पैसा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत करेगा।
रोजगार गारंटी देने वाले इस कानून के क्रियान्वयन में हो रहे तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद इसे समाप्त करने का कोई औचित्य नहीं है। इस भ्रष्टाचार से निपटने का तरीका जनता धीरे-धीरे सीख रही है। हकों को हासिल करने के लिए जन निगरानी को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत भी है। जन नियंत्रण के ऐसे संघर्षों के जरिए भ्रष्टाचार से लड़ना एक 'प्रबंधकीय' प्रक्रिया की बजाए एक 'राजनीतिक' प्रक्रिया का अंग हो सकता है। अगर ऐसा हो सका तो वास्तव में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ग्रामीण भारत में गरीबी, सामंतवाद और शोषण से लड़ने लिए एक प्रभावशाली औजार के रूप में विकसित हो सकेगा।


सूचना के अधिकार का कानून फूलों की सेज नहीं है (अरविंद केजरीवाल)



सूचना के अधिकार के क्षेत्र में श्री अरविंद केजरीवाल के योगदान से पूरा देश परिचित है। उन्हें जब पता चला कि आजमगढ़ में दो लोगों को सूचना मांगने के लिए जेल में डाल दिया गया है, तो वे तुरंत उनका साथ देने के लिए आगे आए। प्रस्तुत है इस संदर्भ में उनसे की गयी बातचीत के मुख्य अंश.....

प्रश्न : जब आपको आजमगढ़ की घटना के बारे में पता चला तो आपने इस मसले को राष्ट्रीय मीडिया में उठाया। टाइम्स आफ इंडिया और एन.डी.टी.वी. ने इसे प्रमुखता से कवर किया। लेकिन ग्रामीणों को सूचना अभी भी नहीं मिली है। इस संबंध में आप आगे क्या करने वाले हैं।
उत्तर : मेरे अकेले करने से कुछ नहीं होगा। इसमें तो सभी लोगों को जुड़ना होगा। सूचना के अधिकार के लिए जो लोग भी संघर्ष कर रहे हैं, उनके लिए मैं जो कुछ कर सकता हूं, जरूर करूंगा। जहां तक आजमगढ़ की घटना की बात है, तो अभी मुझे वहां की जमीनी हालात की जानकारी नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि जो लोग जेल गए, वे इस लड़ाई को कितनी गंभीरता से आगे लड़ना चाहते हैं। मैं अपनी ओर से कुछ भी थोपना नहीं चाहता।
आने वाले दिनों में मैं उन लोगों से बात करूंगा। जरूरत पड़ी तो मैं आजमगढ़ भी जा सकता हूं। वे लोग भी दिल्ली आकर मुझसे मिल सकते हैं। हम मिल-बैठकर बात करेंगे और आगे की रणनीति तय करेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि मैं चाहता हूं हर गांव के लोग अपने गांव से जुड़ी हर चीज को जानें। सरकार उनके गांव के लिए क्या कर रही है, यह तो उन्हें जानना ही चाहिए। और इसके लिए सूचना के अधिकार का कानून निश्चित रूप से एक बढ़िया हथियार हो सकता है।
प्रश्न : मीडिया में जिस ढंग से इस घटना की कवरेज की गयी, उससे कहीं यह संदेश तो नहीं गया कि सूचना के अधिकार का इस्तेमाल एक खतरनाक चीज है, इससे बच के रहना चाहिए।
उत्तर : अगर कोई सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करने की सोच रहा है जिससे किसी व्यक्ति या समूह के निहित स्वार्थों पर आंच आने वाली है तो उसे पलटवार के लिए तैयार रहना चाहिए। सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कोई फूलों की राह नहीं है। इसके रास्ते में आपको कांटे भी मिलेंगे, पत्थर भी मिलेंगे। अगर कोई इन सभी कठिनाइयों को झेलने के लिए तैयार है तभी वह आगे आए। शुरूआती दौर में जब हमने इस कानून का इस्तेमाल करना शुरू किया था तो हमें भी तमाम मुश्किलें झेलनी पड़ी थीं। हमें धमकियां मिलीं और हम पर हमले भी हुए। हां यहां मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि अगर आप में हिम्मत है, आपके इरादे मजबूत हैं तो आपको सफलता जरूर मिलेगी। सूचना के अधिकार का कानून आपकी जरूर मदद करेगा।
प्रश्न : जिस ढंग से प्रशासन द्वारा सूचना मांगने वालों को प्रताड़ित किया जा रहा है, उसे देखते हुए क्या आपको नहीं लगता कि यह कानून असफल साबित हो रहा है।
उत्तर : मैं ऐसा नहीं मानता। आजाद होने के बाद हमारे देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है, साथ ही और भी कई समस्याएं बढ़ी हैं, तो क्या हम यह पूछना शुरू कर देंगे कि हमें आजादी मिलनी चाहिए या नहीं। सूचना के अधिकार को तो होना ही चाहिए। प्रताड़ित करने के मामले कानून व्यवस्था से जुड़े हैं, उन्हें उसी स्तर पर निपटाना होगा। साथ ही समाज को भी इस मामले में अच्छाई के साथ और बुराई के खिलाफ खड़ा होना चाहिए।
प्रश्न : क्या आपको लगता है कि वर्तमान कानून मे कुछ सुधार की जरूरत है?
उत्तर : सैध्दांतिक स्तर पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। लेकिन मैं मानता हूं कि कुल मिलाकर कानून बहुत अच्छा है। जरूरत बस इसे लागू करने और करवाने की है।

हम सबको जिम्मेदार होना पड़ेगा (अरुणा राय)

भारत में 'सूचना का अधिकार' कानून ने दो साल का सफर पूरा कर लिया है। इस कानून को अमली जामा पहनाने में अरुणा राय का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सामुदायिक नेतृत्व के लिए रैमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित अरुणा राय ने 'सूचना के अधिकार' के लिए अपने संघर्ष की शुरुआत एक ऐसी जगह से की जहां न टेलीफोन की सुविधा थी और न फैक्स की। राजस्थान के जयपुर जिले की भीम तहसील के अंतर्गत पड़ने वाले देवदुंगड़ी गांव तक पहुंचने के लिए पक्की सड़क तक नहीं थी। इसके बावजूद यहीं की एक झोपड़ी से शुरू हुए आन्दोलन ने पहले राजस्थान सरकार और फिर भारत सरकार को 'सूचना का अधिकार' कानून बनाने के लिए विवश कर दिया। इस कानून से संबंधित कई मसलों पर हम ने उनसे बातचीत की। पेश है बातचीत के कुछ अंश........

प्रश्न : देश में 'सूचना का अधिकार' कानून को आए दो साल से अधिक हो गया है। ऐसे में यह जमीन पर कितना उतर सका है?
उत्तर : किसी भी कानून के इस्तेमाल से पूरी व्यवस्था का पलट जाना थोड़ा मुश्किल है। यह सच है कि लोग इस कानून की ताकत को पहचानने लगे हैं। दिलचस्प बात यह है कि शहरों से कहीं ज्यादा गांव के लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं, जहां न कोई आन्दोलनकारी है और न ही कोई आन्दोलन। सबसे बड़ी परेशानी यह है कि पढ़ा-लिखा व बुध्दिजीवी वर्ग जितना इसका इस्तेमाल कर सकते थे, उतना नहीं कर रहे हैं। शायद वे इस हथियार की धार को समझ नहीं पा रहे हैं और उससे भी बड़ी परेशानी यह है कि जो इसका इस्तेमाल करते हैं वह यह समझने लगते हैं कि इस्तेमाल करते ही परिवर्तन आ जाएगा। वो यह नहीं समझते कि 'बदलाव' के लिए इसके इस्तेमाल के बाद भी हमें एक 'राजनीतिक लड़ाई' लड़नी पड़ेगी। 'राजनीतिक' का मतलब यह नहीं कि आप किसी पार्टी के अन्दर लड़ाई लड़ें। अब जरा सोचिए कि एक दर्जी यह सोच ले कि हाथ में कैंची आ जाए और कपड़ा खुद-बखुद कट जाए, तो यह कैसे संभव हो सकता है? बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि उम्मीद से ज्यादा लोग सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं।
प्रश्न : क्या आपको नहीं लगता कि लोगों को इस 'अधिकार' की सिर्फ 'सूचना' है, इसका 'अधिकार' नहीं?
उत्तर : अधिकार तो है। इस अधिकार ने कई जगह बहुत पुरानी पध्दतियों, पुराने व्यवहारों को तोड़ा है और सरकार एवं जनता के बीच बुनियादी रिश्ते को भी बदला है। तो ऐसे में कैसे कह सकते हैं कि 'अधिकार' नहीं है। हमें अपनी सोच को बदलना होगा।

प्रश्न : बिहार में सूचना के अधिकार के लिए 'काल सेन्टर' खुला। इस मामले में बिहार 'माडल स्टेट' भी बना। लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। वहां सारी कवायद टांय-टांय फिस्स हो गयी। ऐसे में बिहार में 'सूचना के अधिकार' को लेकर आपका क्या कहना है?
उत्तर : बिहार की जो व्यवस्था है, वह 'सूचना के अधिकार' से नहीं बल्कि सिर्फ राजनीति से संबंधित है। जब वहां टेलीफोन ही काम नहीं करता तो काल सेन्टर की व्यवस्था कैसे काम करेगी। ऐसे में वहां की जनता को राजनीति के साथ-साथ सामाजिक रूप से भी जागरूक होना पड़ेगा। एक आन्दोलन वहां की व्यवस्था के खिलाफ छेड़ना पड़ेगा। तभी जाकर वहां कुछ बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।

प्रश्न : इस अधिकार को लेकर मीडिया की भूमिका के बारे में आपका क्या मत है?
उत्तर : अगर मीडिया हमारे साथ न जुड़ती तो यह कानून ही नहीं बनता। जब-जब इस 'अधिकार' पर सरकार की ओर से आंच आयी तो मीडिया ने ही हमारा साथ दिया। अगर वो साथ नहीं देती तो शायद इस कानून में कुछ बचता ही नहीं। इस हथियार की धार कुंद पड़ गई होती। ऐसे में मीडिया ने तो एक तरीके से बहुत अहम भूमिका निभाई है। मगर मीडिया की दो तरह की भूमिका होती है। एक तो रिपोर्ट करना, लोगों को सूचना देना। दूसरा लोकतंत्र में चौथे स्तंभ के रूप में काम करना। यहां मैं कहना चाहूंगी कि मीडिया अपनी इस भूमिका को समझ नहीं पाई। अगर समझी भी है तो मीडिया के 'मालिक' इसे समझने देना नहीं चाहते। उनका मकसद सिर्फ पैसा कमाने और टीआरपी बढ़ाने तक सीमित रह गया है। यह दुख की बात है।

प्रश्न : स्वयंसेवी संगठनों ने इसके प्रसार-प्रचार में अपनी अहम भूमिका निभाई तो है, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि उनकी 'विश्वसनीयता' संकट में है।
उत्तर : हम सभी एक ऐसे समाज के अंग हैं, जहां ईमानदारी न रखना एक आम बात हो गई है। वहां हम सबको अपनी खुद की ईमानदारी और अपनी विश्वसनीय छवि को पेश करना बहुत जरूरी हो गया है। स्वयंसेवी संस्थाएं कोई विशेष वर्ग तो हैं नहीं। वो भी इसी समाज के एक अंग हैं ऐसे में समाज में जो भी अच्छाई व बुराइयां हैं, वह इसमें भी पाई जाती हैं। ये बुराइयां राजनीतिक दलों में भी पाई जाती हैं। यानि कहा जा सकता है कि विश्वसनीयता का संकट हर जगह मंडरा रहा है।

प्रश्न : सूचना के अधिकार पर पत्रकारों के रवैये के बारे में आपकी क्या राय है?
उत्तर : जैसे एक डाक्टर यह नहीं कह सकता कि मैं इलाज नहीं करूंगा, वैसे ही एक पत्रकार यह कैसे कहता है कि मैं सूचना नहीं लूंगा। सूचना के आधार पर ही तो पूरी पत्रकारिता टिकी है। अगर इस पध्दति को ही एक पत्रकार नकारने लगे तो फिर मानना पड़ेगा कि उसके साथ कुछ गड़बड़ है। मुझे लगता है कि एक अच्छे पत्रकार की यही खासियत है कि आम जनता को ऐसी सूचना दे कि वह न्याय की तरफ आकर्षित हो।
प्रश्न : देश में गरीबों को दबाया जा रहा है। बड़े-बड़े रिटेल सेंटरों के खुलने से किसान व छोटे व्यापारी भूखों मर रहे हैं। ऐसे में सूचना का अधिकार कितना कारगर है।
उत्तर : यह तो कोई नई बात है नहीं। पूंजीपति या मजबूत वर्ग तो हमेशा से गरीबों को दबाता रहा है। जहां तक रिटेल सेन्टरों का सवाल है तो इसके लिए व्यापारियों को चेतना पड़ेगा, उनको जागना पड़ेगा। इसके लिए उनको एक लंबी लड़ाई लड़नी होगी और इस लड़ाई में एक अहम औजार के रूप में सूचना का अधिकार उनके पास है।

प्रश्न : छात्रें को अभी भी इस अधिकार का फायदा नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में वे क्या करें?
उत्तर : यह कहना सही नहीं है कि छात्रें को इस अधिकार का फायदा नहीं मिला है। इसकी मदद से कितने ही छात्रें के परीक्षा परिणाम आए हैं। कितनों को प्रवेश परीक्षा का कट आफ माक्र्स का पता चल पाया है। अब आप यह सोचें कि हम जो कहें सो हो जाए, आज मांगें कल मिल जाए, तो वह तो नहीं हो सकता। छात्रें को भी किसानों-मजदूरों से सीख लेनी होगी। किसान-मजदूर तो 16 सालों तक आन्दोलन के जरिए अपने हक के लिए लड़ते रहे तब जाकर उनको यह अधिकार मिला। छात्रें को भी आज इस बात को समझना पड़ेगा और लगातार मेहनत करनी पड़ेगी। छात्रें को भी अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन करना होगा।

प्रश्न : सूचना के अधिकार को और ज्यादा प्रभावी बनाने में देश के युवाओं की क्या भूमिका हो सकती है?
उत्तर : अगर लोग लोकतांत्रिक मुद्दों में व्यापक रुचि नहीं रखेंगे तो व्यक्तिगत लड़ाई भी हार जाएंगे। जब आप देश हित में नहीं सोचेंगे तो जाहिर सी बात है कि वालमार्ट व रिलायंस जैसी कंपनियां आएंगी ही। ऐसे में कमजोरों को दबाया जाना भी तय है। हमें हर मुद्दे को गहराई से समझना होगा। युवा वर्ग को इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। परिवर्तन उन्हीं से होगा।