भारत में 'सूचना का अधिकार' कानून ने दो साल का सफर पूरा कर लिया है। इस कानून को अमली जामा पहनाने में अरुणा राय का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सामुदायिक नेतृत्व के लिए रैमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित अरुणा राय ने 'सूचना के अधिकार' के लिए अपने संघर्ष की शुरुआत एक ऐसी जगह से की जहां न टेलीफोन की सुविधा थी और न फैक्स की। राजस्थान के जयपुर जिले की भीम तहसील के अंतर्गत पड़ने वाले देवदुंगड़ी गांव तक पहुंचने के लिए पक्की सड़क तक नहीं थी। इसके बावजूद यहीं की एक झोपड़ी से शुरू हुए आन्दोलन ने पहले राजस्थान सरकार और फिर भारत सरकार को 'सूचना का अधिकार' कानून बनाने के लिए विवश कर दिया। इस कानून से संबंधित कई मसलों पर हम ने उनसे बातचीत की। पेश है बातचीत के कुछ अंश........
प्रश्न : देश में 'सूचना का अधिकार' कानून को आए दो साल से अधिक हो गया है। ऐसे में यह जमीन पर कितना उतर सका है?
उत्तर : किसी भी कानून के इस्तेमाल से पूरी व्यवस्था का पलट जाना थोड़ा मुश्किल है। यह सच है कि लोग इस कानून की ताकत को पहचानने लगे हैं। दिलचस्प बात यह है कि शहरों से कहीं ज्यादा गांव के लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं, जहां न कोई आन्दोलनकारी है और न ही कोई आन्दोलन। सबसे बड़ी परेशानी यह है कि पढ़ा-लिखा व बुध्दिजीवी वर्ग जितना इसका इस्तेमाल कर सकते थे, उतना नहीं कर रहे हैं। शायद वे इस हथियार की धार को समझ नहीं पा रहे हैं और उससे भी बड़ी परेशानी यह है कि जो इसका इस्तेमाल करते हैं वह यह समझने लगते हैं कि इस्तेमाल करते ही परिवर्तन आ जाएगा। वो यह नहीं समझते कि 'बदलाव' के लिए इसके इस्तेमाल के बाद भी हमें एक 'राजनीतिक लड़ाई' लड़नी पड़ेगी। 'राजनीतिक' का मतलब यह नहीं कि आप किसी पार्टी के अन्दर लड़ाई लड़ें। अब जरा सोचिए कि एक दर्जी यह सोच ले कि हाथ में कैंची आ जाए और कपड़ा खुद-बखुद कट जाए, तो यह कैसे संभव हो सकता है? बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि उम्मीद से ज्यादा लोग सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं।
प्रश्न : क्या आपको नहीं लगता कि लोगों को इस 'अधिकार' की सिर्फ 'सूचना' है, इसका 'अधिकार' नहीं?
उत्तर : अधिकार तो है। इस अधिकार ने कई जगह बहुत पुरानी पध्दतियों, पुराने व्यवहारों को तोड़ा है और सरकार एवं जनता के बीच बुनियादी रिश्ते को भी बदला है। तो ऐसे में कैसे कह सकते हैं कि 'अधिकार' नहीं है। हमें अपनी सोच को बदलना होगा।
प्रश्न : बिहार में सूचना के अधिकार के लिए 'काल सेन्टर' खुला। इस मामले में बिहार 'माडल स्टेट' भी बना। लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। वहां सारी कवायद टांय-टांय फिस्स हो गयी। ऐसे में बिहार में 'सूचना के अधिकार' को लेकर आपका क्या कहना है?
उत्तर : बिहार की जो व्यवस्था है, वह 'सूचना के अधिकार' से नहीं बल्कि सिर्फ राजनीति से संबंधित है। जब वहां टेलीफोन ही काम नहीं करता तो काल सेन्टर की व्यवस्था कैसे काम करेगी। ऐसे में वहां की जनता को राजनीति के साथ-साथ सामाजिक रूप से भी जागरूक होना पड़ेगा। एक आन्दोलन वहां की व्यवस्था के खिलाफ छेड़ना पड़ेगा। तभी जाकर वहां कुछ बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।
प्रश्न : इस अधिकार को लेकर मीडिया की भूमिका के बारे में आपका क्या मत है?
उत्तर : अगर मीडिया हमारे साथ न जुड़ती तो यह कानून ही नहीं बनता। जब-जब इस 'अधिकार' पर सरकार की ओर से आंच आयी तो मीडिया ने ही हमारा साथ दिया। अगर वो साथ नहीं देती तो शायद इस कानून में कुछ बचता ही नहीं। इस हथियार की धार कुंद पड़ गई होती। ऐसे में मीडिया ने तो एक तरीके से बहुत अहम भूमिका निभाई है। मगर मीडिया की दो तरह की भूमिका होती है। एक तो रिपोर्ट करना, लोगों को सूचना देना। दूसरा लोकतंत्र में चौथे स्तंभ के रूप में काम करना। यहां मैं कहना चाहूंगी कि मीडिया अपनी इस भूमिका को समझ नहीं पाई। अगर समझी भी है तो मीडिया के 'मालिक' इसे समझने देना नहीं चाहते। उनका मकसद सिर्फ पैसा कमाने और टीआरपी बढ़ाने तक सीमित रह गया है। यह दुख की बात है।
प्रश्न : स्वयंसेवी संगठनों ने इसके प्रसार-प्रचार में अपनी अहम भूमिका निभाई तो है, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि उनकी 'विश्वसनीयता' संकट में है।
उत्तर : हम सभी एक ऐसे समाज के अंग हैं, जहां ईमानदारी न रखना एक आम बात हो गई है। वहां हम सबको अपनी खुद की ईमानदारी और अपनी विश्वसनीय छवि को पेश करना बहुत जरूरी हो गया है। स्वयंसेवी संस्थाएं कोई विशेष वर्ग तो हैं नहीं। वो भी इसी समाज के एक अंग हैं ऐसे में समाज में जो भी अच्छाई व बुराइयां हैं, वह इसमें भी पाई जाती हैं। ये बुराइयां राजनीतिक दलों में भी पाई जाती हैं। यानि कहा जा सकता है कि विश्वसनीयता का संकट हर जगह मंडरा रहा है।
प्रश्न : सूचना के अधिकार पर पत्रकारों के रवैये के बारे में आपकी क्या राय है?
उत्तर : जैसे एक डाक्टर यह नहीं कह सकता कि मैं इलाज नहीं करूंगा, वैसे ही एक पत्रकार यह कैसे कहता है कि मैं सूचना नहीं लूंगा। सूचना के आधार पर ही तो पूरी पत्रकारिता टिकी है। अगर इस पध्दति को ही एक पत्रकार नकारने लगे तो फिर मानना पड़ेगा कि उसके साथ कुछ गड़बड़ है। मुझे लगता है कि एक अच्छे पत्रकार की यही खासियत है कि आम जनता को ऐसी सूचना दे कि वह न्याय की तरफ आकर्षित हो।
प्रश्न : देश में गरीबों को दबाया जा रहा है। बड़े-बड़े रिटेल सेंटरों के खुलने से किसान व छोटे व्यापारी भूखों मर रहे हैं। ऐसे में सूचना का अधिकार कितना कारगर है।
उत्तर : यह तो कोई नई बात है नहीं। पूंजीपति या मजबूत वर्ग तो हमेशा से गरीबों को दबाता रहा है। जहां तक रिटेल सेन्टरों का सवाल है तो इसके लिए व्यापारियों को चेतना पड़ेगा, उनको जागना पड़ेगा। इसके लिए उनको एक लंबी लड़ाई लड़नी होगी और इस लड़ाई में एक अहम औजार के रूप में सूचना का अधिकार उनके पास है।
प्रश्न : छात्रें को अभी भी इस अधिकार का फायदा नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में वे क्या करें?
उत्तर : यह कहना सही नहीं है कि छात्रें को इस अधिकार का फायदा नहीं मिला है। इसकी मदद से कितने ही छात्रें के परीक्षा परिणाम आए हैं। कितनों को प्रवेश परीक्षा का कट आफ माक्र्स का पता चल पाया है। अब आप यह सोचें कि हम जो कहें सो हो जाए, आज मांगें कल मिल जाए, तो वह तो नहीं हो सकता। छात्रें को भी किसानों-मजदूरों से सीख लेनी होगी। किसान-मजदूर तो 16 सालों तक आन्दोलन के जरिए अपने हक के लिए लड़ते रहे तब जाकर उनको यह अधिकार मिला। छात्रें को भी आज इस बात को समझना पड़ेगा और लगातार मेहनत करनी पड़ेगी। छात्रें को भी अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन करना होगा।
प्रश्न : सूचना के अधिकार को और ज्यादा प्रभावी बनाने में देश के युवाओं की क्या भूमिका हो सकती है?
उत्तर : अगर लोग लोकतांत्रिक मुद्दों में व्यापक रुचि नहीं रखेंगे तो व्यक्तिगत लड़ाई भी हार जाएंगे। जब आप देश हित में नहीं सोचेंगे तो जाहिर सी बात है कि वालमार्ट व रिलायंस जैसी कंपनियां आएंगी ही। ऐसे में कमजोरों को दबाया जाना भी तय है। हमें हर मुद्दे को गहराई से समझना होगा। युवा वर्ग को इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। परिवर्तन उन्हीं से होगा।
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