भारत गांवों का देश है। देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी आज भी गांवों में ही निवास करती है और गांवों में गरीबों की दयनीय हालत किसी से छुपी हुई नहीं है। सरकार द्वारा 'भारत निर्माण' की बात तो की जाती रही लेकिन गांव में बसने वाले 'भारतीयों' के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। ऐसे समय में जब किसान आत्महत्याएं कर रहे थे, नौजवान बेरोजगारी की मार झेल रहे थे तो एक 'कानून' ने देश के इन सबसे गरीब व उपेक्षित लोगों के दिलों में उम्मीद की एक किरण जगाई। वह किरण है 'राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून' यानी 'नरेगा'।
दरअसल, यह कानून भारत सरकार ने ऐसे ही पास नहीं कर दिया। बल्कि जब देश में भूखे पेट और भरे गोदामों की बात सामने आई तो वर्ष 1999 में गोदामों के ताले तोड़ने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के नेतृत्व में किसानों की एक टीम उदयपुर जिला कलेक्ट्री से कूच कर एफ.सी.आई. के गोदामों तक गई। इन्हें बीच में पुलिस ने गिरफ्तार कर शहर से 10 कि.मी. की दूरी पर छोड़ दिया। ये क्षण काफी ऐतिहासिक थे। इसने गरीबों को लड़ने की ताकत दी। इसके बाद ही रोजगार गारंटी कानून की मांग देश भर में उठने लगी और लगातार अकाल से जूझते राजस्थान (जहां लगभग 94 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है) के जनसंगठनों ने 'हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम' नारे के जरिए इस पहल को तेजी से राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया। अंतत: दो फरवरी 2006 को जनता के इस कानून को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में शुरू किया। प्रारंभ में इसे सिर्फ 200 जिलों में ही लागू किया गया जबकि इस देश में तकरीबन 600 जिले हैं। अब तक यह कानून 335 जिलों तक पहुंच चुका है। बाकी जिलों में अप्रैल 2008 से इसे लागू करने की सरकारी घोषणा हुई है।
वर्तमान में इस रोजगार गारंटी कानून को असफल साबित करने के लिए एक वर्ग सक्रिय है। इस वर्ग का मानना है कि इसका सारा पैसा भ्रष्टाचार में चला जाता है। इससे गरीबों का कोई भला नहीं होने वाला है। इसलिए बेहतर है कि इस धन को हवाई जहाज से फेंक कर बांट दिया जाए। वास्तव में यही लोग भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले हैं। आखिर ये कहां की अक्लमंदी है कि सर में हुए जख्म के खातिर पूरे सर को ही काट कर फेंक दिया जाए बजाए इसके कि इसका सही इलाज हो। ये बात सच है कि ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने के लिए बनाया गया यह कानून अब तक ग्रामीण भारत की तस्वीर तो नहीं बदल सका है लेकिन पंचायत के सरपंचों ने अपनी तकदीर व तस्वीर जरूर बदल ली है। बीते दिनों राजस्थान के झालावाड़ जिले के मनोहर थाना की पांच पंचायतों में 'रोजगार एवं सूचना का अधिकार अभियान' द्वारा किए गए 'सोशल आडिट' (सामाजिक अंकेक्षण) द्वारा भ्रष्टाचार के बहुत सारे तत्व उजागर हुए। पहले तो सूचना देने में आनाकानी की गई लेकिन धरना दिए जाने पर दबाव में आकर आधी-अधूरी सूचना उपलब्ध कराई गई। इसके बाद जब उन्हें लगा कि इस सूचना से भी हमारे बहुत सारे घोटाले उजागर हो सकते हैं तो अभियान के लोगों को बुरी तरह से पीटकर गांव से भगाने का रास्ता अख्तियार किया गया। इसके बावजूद इन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हार नहीं मानी बल्कि इस पिटाई से उनका मनोबल और बढ़ गया। प्रशासन व गांव के लोगों ने भी इन कार्यकर्ताओं का भरपूर साथ दिया। पिछले दिनों झालावाड़ के मनोहरथाना ब्लाक में एक 'जन सुनवाई' हुई। इस 'जन सुनवाई' के बाद सामने आने वाले इनके भ्रष्टाचार की कहानियां वाकई पूरे देश को चौंकाने वाली हैं। घोटाले हजारों में नहीं बल्कि लाखों और करोड़ों में थे। सिर्फ मनपसर ग्राम पंचायत के एक छोटे से गांव में दो लाख ग्यारह हजार सात सौ बीस रुपये का गबन एक ही कार्य में पाया गया।
दिनभर चली इस 'जन सुनवाई' में राज्य सरकार के अधिकारी पूरी तरह से अनुपस्थित रहे। हालांकि, केन्द्रीय सरकार के ग्रामीण विकास विभाग की केन्द्रीय रोजगार गारंटी परिषद के तीन सदस्य ज्यां द्रेज, एनी राजा व अरुणा राय तथा केन्द्रीय सतर्कता आयोग के तकनीकी परीक्षक विजय कुमार मौजूद रहे। राज्य सरकार को आमंत्रित किए जाने के बावजूद नदारद रहने का कारण बार-बार लोग अपने भाषण में पूछते रहे। जन सुनवाई के दौरान एकल नारियों को अलग से जाब कार्ड दिए जाने का प्रस्ताव भी पारित हुआ।
सामाजिक अंकेक्षण प्रक्रिया को ताकतवर बनाने, सरपंचों व कार्ड पंचों का मानदेय बढ़ाने संबंधी प्रस्ताव भी आए। जन सुनवाई के पैनलिस्ट श्रीमती एनी राजा ने रोजगार गारंटी योजना के तहत दिए जाने वाले जाब कार्ड के लिए पैसे वसूले जाने की घटना को कानून का उल्लंघन करार दिया। राज्य सरकार की ओर से किसी भी प्रतिनिधि के जन सुनवाई में नहीं आने को चिंताजनक मानते हुए उन्होंने कहा कि सामाजिक अंकेक्षण में राज्य सरकार का कोई सहयोग नहीं करना काफी दुखद है। सरकारी कुर्सियां आज खाली रहीं क्योंकि वे जवाबदेही से बचना चाहते हैं, उनका नहीं आना भी घोटालों को स्वीकारना ही है। जन सुनवाई के दौरान अरुणा राय ने कहा कि सामाजिक अंकेक्षण सच्चाई को सामने लाता है और इससे लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। इस जन सुनवाई में सैकड़ों लोग जिस दृढ़ता, निर्भीकता व ईमानदारी से बोले उससे स्पष्ट होता है कि जनता और भ्रष्टाचार नहीं होने देगी। प्रो. ज्यां द्रेज ने केन्द्रीय दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित किए जाने पर जोर देते हुए कहा कि अगर हमें रोजगार गारंटी कानून को बचाना है तो इसे भ्रष्टाचार से बचाना होगा।
राजस्थान सरकार द्वारा मनोहर थाना इलाके में लगभग 29 करोड़ रुपये खर्च किए जाने के बावजूद लोगों से जाब कार्ड बनाने के लिए 70 से 500 रुपए रिश्वत लिए गए। इसके अलावा जातिगत भेदभाव काफी देखने को मिले। दलितों को यहां भी नजरअंदाज किया गया। राजस्थान के इस इलाके में कहीं भी हो रहे कामों के बोर्ड देखने को नहीं मिले। रोजगार गारंटी योजना में हो रही धांधली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां कई स्थानों पर कागजों में मरे हुए लोगों को भी काम में लगा हुआ दिखाया जा रहा है। मस्टर रोल में अनेकों फर्जी नाम हैं। यहां तक की सरकारी कामों के लिए खरीदी जा रही सामग्री में भी काफी धांधली की जा रही है। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत कराए गए कामों की गुणवत्ता ऐसी थी कि उंगली लगाने मात्र से सिमेंट गिर जाए। यही नहीं गांवों में कई कच्चे चेकडेम बने पर अधिकांश चेकडैम चोरी हो गए हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि एक ही जगह तीन-तीन तालाब खोदे गए और तालाब के नाम पर पेड़ों की बली चढ़ाने में भी लोग नहीं हिचकिचाए।
राजस्थान जैसे राज्य के गरीबों के लिए रोजगार गारंटी कानून आशा की एक किरण की तरह है। अगर ईमानदारी से इस योजना पर काम किया जाए तो इसकी मदद से गांव के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में भी सहायता मिल सकती है। पर इसके लिए शर्त यह है कि कार्यों की गुणवत्ता में सुधार और थोड़ी-सी ईमानदारी बरती जाए। यह एक ऐसी योजना है जिससे ग्रामीण भारत की तस्वीर व तकदीर बदल सकती है। इस कानून की असफलता से ग्रामीण लोगों के साथ-साथ पूरी अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी। क्योंकि जब गरीब की जेब में पैसा नहीं होगा तो वह बाजार तक कैसे पहुंचेगा? अगर रोजगार गारंटी के जरिए पैसा गरीब के घर तक पहुंचता है तो वह पैसा स्थानीय बाजार में ही खर्च करेगा। जाहिर है कि यह पैसा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत करेगा।
रोजगार गारंटी देने वाले इस कानून के क्रियान्वयन में हो रहे तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद इसे समाप्त करने का कोई औचित्य नहीं है। इस भ्रष्टाचार से निपटने का तरीका जनता धीरे-धीरे सीख रही है। हकों को हासिल करने के लिए जन निगरानी को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत भी है। जन नियंत्रण के ऐसे संघर्षों के जरिए भ्रष्टाचार से लड़ना एक 'प्रबंधकीय' प्रक्रिया की बजाए एक 'राजनीतिक' प्रक्रिया का अंग हो सकता है। अगर ऐसा हो सका तो वास्तव में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ग्रामीण भारत में गरीबी, सामंतवाद और शोषण से लड़ने लिए एक प्रभावशाली औजार के रूप में विकसित हो सकेगा।
बुधवार, 4 जून 2008
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