बुधवार, 11 जून 2008
बिहार नाही सुधरी....
गरीबी, बेचारगी, मायूसी, कत्ल, चोरी, डकैती, बात-बात पर रिश्वत और फिर नेताओं के झुटे आश्वासन..... और उनमें उभरती "बिहार नाही सुधरी..." की सुरीली धुन।
आंखें खुली तो सामने मेरे बोगी में एक सज्जन बिहार में विकास के मुद्दे पर अपनी आम सभा द्वारा कुछ लोगों को सम्भोधित कर रहे थे। उनकी अनेक दलीलें थी,जैसे यहाँ के लोग दो रुपए सरकारी बिजली के बिल का भुगतान करना मुनासिब नही समझते, लेकिन प्राइवेट या निजी जनारेटरों में पैसे फूंकना अच्छा लगता है।
ट्रेनों में टिकट नही लेते,लेकिन जुर्माना या रिश्वत देना भला मालूम पड़ता है........ आदि -अनादी।
मैं पुरी तरह सजग हो कर उनकी बातें सुन रहा था। एक पल के लिए लगा कि इनके तरह बिहार का हर व्यक्ति सोचने लगे तो बिहार सुधर सकता है। देश सुधर सकता है। तभी अचानक टी. सी. आया। टैब जा कर पता चला कि वो सज्जन जो एक जिम्मेदार नागरिक की तरह भाषण दिए जा रहे थे, बेटिकट थे। टिकट मांगने पर बडे शान से ' स्टाफ ' शब्द का प्रयोग किया। जब टी. सी. ने अपनी शान दिखाई तो वो सज्जन फाइन भरना ही मुनासिब समझे।
मैं मन ही मन मुस्कुराया और फिर मेरी आँख लग गई। और सपने में "बिहार नाही सुधरी...." की मधुर धुन मुझे आनंदित कर रही थी।
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