बुधवार, 29 अप्रैल 2009

मौसम और चुनाव..

मौसम में बढ़ती गर्मी, सूखते बादल और हवाओं का बदलता रूख.... हर तरफ धूल-धक्कड़ और चलती लू के थपेड़े... और फिर प्रतिद्वंद्वियों की चुनौतियों के बीच चुनाव की बढ़ती सरगर्मी और चिलचिलाती धूप.... मौसम की इस बेरुखी ने नेता व जनता दोनों को बेहाल कर रखा है।
जी! चुनाव के इस मौसम में सूरज की तपिश अपने उफान पर है। इसने कई जगह चुनावी गर्मी को ठंडा करने की कोशिश भी की है। चुनाव का द्वितीय चरण भी सूरज की तपिश के कारण फीका ही रहा। अब अगले चरण में दिल्ली की बारी है। जहां चुनावी गर्मी से एक ओर नेता परेशान हैं, तो वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक गर्मी ने आम लोगों का जीना दुभर कर दिया है।
ज़रा सोचिए! यह तो अप्रैल का ही महीना है, और पारा 40-42 के पार जा चुकी है। मई-जून की गर्मी तो अभी बाकी ही है। आगे हमारा क्या हाल होगा, यह उपर वाला ही जानता है।
आखिर यह गर्मी हो क्यों ना...? पेड़ों की अंधाधुंध कटाई जो जारी है। यदि आंकड़ों की बात करें तो दिल्ली में विभिन्न विकास कार्यो के नाम पर पिछले 5 सालों में लगभग 50 हज़ार पेड़ काट डाले गए। खैर यह आंकड़े तो सरकारी आंकड़े हैं, जिसे सूचना के अधिकार के तहत लेखक को दिल्ली सरकार के वन एवं वन्यप्राणी विभाग ने उपलब्ध कराया है। अवैध रुप से कटने वाले पेड़ों की संख्या तो लाखों में होगी। लेखक ने स्वयं महरौली के आर्कियोलॉजिकल पार्क में हो रही पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को देखा है। जंगल के जंगल साफ कर दिए गए हैं। लेकिन इसकी खबर प्रशासन को नहीं है।
सूचना के अधिकार के माध्यम से मिले आंकड़ों के मुतबिक वर्ष 2004-05 में 16,552 पेड़, वर्ष 2005-06 में 10,692 पेड़, वर्ष 2006-07 में 5,627 पेड़, वर्ष 2007-08 में 10,460 पेड़ और वर्ष 2008-09 में 17 अप्रैल तक 2,321 पेड़ काटे गए हैं। यही नहीं, कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर जनवरी 2008 से मार्च 2009 तक 2986 पेड़ काटे गए। वहीं दिल्ली मेट्रो के नाम पर 387 पेड़ों की बलि चढ़ाई गई।
हालांकि विभाग के मुताबिक इन पेड़ों को काटने के बाद पेड़ लगाए भी गए हैं। लेकिन इस बात में कितनी सच्चाई है, ये किसी से छिपा नहीं है। बहरहाल, विभाग के मुताबिक वर्ष 2004-05 में 93,755 पेड़, वर्ष 2005-06 में 3,815 पेड़, वर्ष 2006-07 में 22,723 पेड़ और वर्ष 2007-08 में 10,722 पेड़ लगाए गए हैं। इन में से 12889 पौधे दिल्ली मेट्रो कॉरपोरेशन के शामिल हैं, जिसे ग़ाज़ीपूर- हिंडन कट में लगाया गया है। और दिल्ली मेट्रो ने इस कार्य हेतु 14,92,068 रुपये (चौदह लाख बानवे हज़ार अड़सठ रुपये) खर्च किए। बाकी के पेड़ों को लगाने में कितना खर्च हुआ है, इसका ब्यौरा विभाग के पास मौजूद नहीं है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। जहां दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागें विज्ञापन के नाम पर करोड़ों खर्च कर देती हैं, वहीं दिल्ली सरकार के इस विभाग ने लोगों को पर्यावरण के संबंध में जागरुक करने हेतु पिछले 5 सालों में कोई विज्ञापन जारी नहीं किया है।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस मसले पर तमाम राजनीतिक दल खामोश हैं। हालांकि इस बार कुछ राजनैतिक विचारधाराओं ने पहली बार जलवायु परिवर्तन के संकट को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया है। भाजपा ने जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण को समुचित महत्व देने का वायदा किया है, लेकिन हिन्दुत्व के शोर में यह मुद्दा भी नदारद हो गया है। दुखद बात तो यह है कि जो विचार और वायदे कांग्रेस, भाजपा, वामपंथी सहित कुछ दलों ने अपने घोषणा पत्रों में दर्ज किए हैं उन्हें मतदाता तक पहुंचाने की कोई जद्दोजहद नजर नहीं आई।जबकि यह घोर चिंता का विषय है कि मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए पर्यावरण के बारे में राजनीतिक दलों को जितनी गंभीरता से सोचना चाहिए, उतनी गंभीरता से नहीं सोचा जा रहा है। शायद राजनीतिक दल यह भूल रहे हैं कि जब मानव का अस्तित्व बचेगा, तभी राजनीति भी हो सकती है अन्यथा वह भी संभव नहीं है।


अफ़रोज़ आलम साहिल
मों. 9891322178.

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

वोट आपका, सरकार चंदा देने वालों की


शुभ्रांशु चौधरी
80 के दशक में जब मैं बिलासपुर के साइंस कालेज में पढता था उस कालेज में छात्रसंघ के चुनाव नहीं होते थे । उस समय के मध्यप्रदेश शासन ने यह तय किया था कि जिसके सबसे अधिक मार्क्स आयेंगे वही छात्रनेता भी बन जायेगा ।
इस तरह हमारे ज़माने में कार्ल मार्क्स और राजनीति शास्त्र सिर्फ किताबों तक ही सीमित थे । हमें सिर्फ एक ही तरह के मार्क्स की चिंता करनी थी जो परीक्षाओं के बाद रिज़ल्ट में मिलता है ।
कारण दिया जाता था कि छात्रसंघ चुनावों में काफी वक्त ज़ाया होता है और छात्रों को सिर्फ पढाई में ही ध्यान देना चाहिये ।छात्रसंघ चुनाव न करवाने के पक्ष और विपक्ष में काफी तर्क दिये जा सकते हैं । पर मुझे खुशी है कि भारत के सभी कालेजों में छात्रसंघ चुनाव पर पाबंदी नहीं है ।
कुछ दिनों पहले पूर्व चुनाव आयुक्त लिंग्दोह साहब की एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि छात्रसंघ चुनाव में कोई भी प्रत्याशी 5 हज़ार रू से अधिक खर्च नहीं कर सकेगा ।
मेरे अनेक मित्र इस फैसले से नाखुश हैं । वे पूछते हैं कि आम चुनाव में भी तो खर्च पर पाबंदी है पर उसे कौन मानता है ? पर मुझे लगता है कि यह सही दिशा में पहला कदम है ।
पहले हमें यह विश्वास होना चाहिये कि यदि हम अपने वोटरों के बीच काम करें तो जनता से चंदा लेकर कम खर्च में चुनाव लडा जा सकता है । और यह विश्वास स्कूल, कालेज और ग्राम पंचायत के छोटे चुनाव लडने के बाद ही आ सकता है ।
सबसे पुराने ग्राम गणराज्य और लोकतांत्रिक परम्पराओं के पुरातात्विक अवशेष भारत में भी पाए जाते हैं । और हाल के दिनों में भी यदि हमारे पडोसी मुल्कों से तुलना करें तो लोकतंत्र को ज़िन्दा रखने में हम भारत को सबसे आगे पाते हैं और उस पर गर्व कर सकते हैं ।
पर यह भी सच है कि आज का 60 साल पुराना हमारा लोकतंत्र वेंटीलेटर पर है और आक्सीजन की कमी से तडफडा रहा है ।
चुनावों में भारी खर्च इस राजनीतिक अस्थमा का सबसे प्रमुख कारण है । पर पूरे देश में इस विषय पर कोई खास चर्चा होती नहीं दिखती।
पिछले हफ्ते मुझे तब सुखद आश्चर्य हुआ जब रायपुर से चुनावी खर्च पर एक खबर पढने को मिली । इंडिया एब्राड न्यूज़ सर्विस ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में उनके सूत्रों के हवाले से यह लिखा था कि झाडखण्ड हाथ से निकल जाने के बाद छत्तीसगढ की भाजपा सरकार अपने केंद्रीय नेतृत्व से भारी दबाव में है कि छत्तीसगढ सरकार अगले चुनाव के लिये 500 करोड रू पार्टी फंड में दे ।
यह खबर सही है या गलत यह तो पता नहीं । पर इस पर चर्चा ज़रूर होनी चाहिये ।
आदर्श स्थिति तो यही है कि राजनीति समाज के भले के लिये हो । तब इस आदर्श स्थिति को बनाने के लिये यह समाज का ही दायित्व है कि वह इस चुनाव के खर्च का भी बन्दोबस्त करे ।
लोग दबी ज़ुबान में कहते हैं कि विधायक का चुनाव लडने के लिये आजकल लाखों खर्च करने पडते हैं और सांसद के लिये करोड इसलिये धनी ही चुनाव लडते हैं और कम्पनियों से चन्दा लेना आसान है। पर लोग यह भी जानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति या कम्पनी चुनाव में चंदा दे रहा है तो वह उसकी रिकवरी भी करेगा । चुनावी चन्दा एक अच्छा इंवेस्टमेंट है ।
इस जानकारी के बावजूद समाज ने राजनीतिक चंदा देने के अपने महत्वपूर्ण दायित्व से मुंह मोड लिया है और बडे राजनीतिक दलों में भी यह विश्वास खत्म हो गया है कि जनता के धन से राजनीति की जा सकती है ।
हमारी चुनावी व्यवस्था जिन देशों की चुनाव पद्धति का अध्ययन करके बनी है उस ब्रिटेन या अमेरिका के किसी भी राजनीतिक दल की वेबसाइट पर यह प्रमुखता से लिखा है कि आप उस पार्टी को चन्दा कैसे दे सकते हैं । पर भारत की किसी भी राष्ट्रीय पार्टी की वेबसाइट में मुझे यह जानकारी नहीं मिली । क्या लोकतंत्र में जनता की राजनीति करने वाले दलों को जनता से चन्दा नहीं चाहिये ?
क्या कानून में कुछ बदलाव की ज़रूरत है ?
1956 के कंम्पनी कानून की धारा 293ए के अनुसार भारत में राजनीतिक दल कम्पनियों से चन्दा ले सकते हैं । 2003 में पारित हुए कानून के अनुसार भारतीय आयकर कानून की धारा 80 जीजीबी के तहत राजनीतिक दलों को दिये चन्दे पर अब आयकर की छूट भी मिलती है ।
पर प्रश्न यह है कि यदि राजनीति आम आदमी के धन से चलने की बजाय सिर्फ कम्पनियों के धन से ही चलेगी तो उस राजनीति पर आम आदमी का कितना नियंत्रण रह जायेगा ?
1951 में बने रिप्रेसेंटेशन आफ पीपल एक्ट के अनुसार प्रत्येक राजनीतिक दल को चन्दे में मिली 20 हज़ार रू से अधिक धनराशि का हिसाब रखना होगा और एक नियत तिथि के पहले उसे चुनाव आयोग के समक्ष प्रस्तुत करना होगा । पर न सिर्फ राजनीतिक दलों के वरन चुनाव आयोग की वेबसाइट में भी इस हिसाब का कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
भारत में तो नहीं पर दुनिया के तमाम देशों में चुनावी खर्च के विषय पर गहरी बहस चल रही है । ब्रिटेन में इस विषय पर बनी सर हेडेन फिलिप्स समिति ने 20 अक्टूबर तक जनता की राय जानी है और यह समिति दिसम्बर में अपना फैसला देगी । वहां इस विषय पर वाद विवाद चल रहा है कि क्या सरकार को राजनीतिक दलों को चुनाव के लिये खर्च देना चाहिये । ब्रिटेन में विपक्ष को प्रभावी बनाने के लिये पहले से ही विरोधी दलों को सरकार से धन मिलता रहा है ।
जापान में इस विषय पर काफी बहस के बाद 1993 में कम्पनियों से चुनावी चन्दा गैरकानूनी घोषित कर राजनीतिक दलों को चुनावी खर्च देने का फैसला लिया गया था । अब जापान की सरकार प्रत्येक दल को पिछले चुनाव में मिले प्रत्येक वोट के लिये 250 येन देती है ।
अमेरिका में यद्यपि आम जनता और कम्पनियों से फंड इकट्ठा करने की जबरदस्त प्रथा है पर इसके साथ साथ पिछले चुनाव में सरकार ने अकेले राष्ट्रपति बुश को चुनावी खर्च के लिये 6.4 करोड डालर दिये थे। वहां भी 1999 में किसी भी व्यक्ति द्वारा पार्टी को दिये चन्दे की अधिकतम सीमा 1000 डालर पर सीमित कर दी गयी है ।
छत्तीसगढ में भी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और छत्तीसगढ मुक्ति मोर्चा की तरह राजनैतिक दल मौज़ूद हैं जो आज भी लोगों से चन्दा लेकर चुनाव लडती हैं
क्या छत्तीसगढ में इस पर चर्चा नहीं होनी चाहिये कि 2008 के चुनाव में कौन सी पार्टी कितना खर्च करेगी और वह धन कहां से आयेगा ?
कहते हैं देयर इज़ नो फ्री लंच यानि मुफ्त में कभी कुछ नहीं मिलता। यदि चुनावी चन्दा टाटा, जिंदल और एस्सार ही देंगे तो अगली सरकार उनकी होगी या आम जनता की ?
smitashu@gmail.com


Stop Big Business From Funding Political Parties in India

by Rajindar Sachar,
Recently there has been heated public debate on T.V. about donations being made by corporate sector to various political parties for elections, mainly to congress and B.J.P. and to some others – depending on which area particular company has more stake. Previously there used to be somewhat hesitancy in admitting corporate – political monetary axis. But no longer, one industrialist unashamedly boasting that he gave donations to both the parties but of equal amount. Another donor was more cautions but complained that it should not be disclosed publically - clever thinking because of the uncertainty of which party may come to power. Such cynicism of money power playing a dominant role in the elections and the people accepting it as a normal feature is a matter of grave concern for clean politics.


It is unfortunate that there is almost no public debate on corporate money power muddying the political process in the country. In Companies Act 1913, there was no statutory provision banning donation being made by political parties. The High Courts thus had no option but to hold that donations to political parties could be made, it felt uncomfortable and warned of the of the dangers involved, Chagla C.J. of Bombay High Court warned “It is our duty to draw the attention of Parliament to the great danger inherent in permitting companies to make contribution to the funds of political parties. It is a danger which may grow apace and which may ultimately overwhelm and even throttle democracy in this country.”


Similarly Calcutta High Court warned “Its dangers are manifold. In the bid for political favouritism by the bait of money the company which will be the highest bidder may secure the most unfair advantage over the rival trader companies. Thirdly it will mark the advent and entry of the voice of the big business in politics and in the political life of the country.”


Regrettably Parliament ignored this warning and added in 1960 Sec. 293A to the Companies Act permitting them to contribute to political parties 5% of net profits. The danger signs were visible immediately and Santhanan Committee Report 1962 recommended a total ban on all donations by companies to political parties because of the public belief in the prevalence of corruption at high political levels has been strengthened by the manner in which funds are collected by political parties, especially at the time of elections.


However no action was taken till the Parliament became a more diverse body till 1969 and then Parliament was forced to imposed a total ban on contribution by companies to political parties – Madhu Limaye the Socialist M.P. was the dominant voice for banning corporate funding statement and objects of this amendment were given as follows;


A view has been expressed that such contributions have a tendency to corrupt political life and to adversely affect healthy growth of democracy in the country, and it has been gaining ground with the passage of time. It is, therefore, proposed to ban such contributions.” An attempt made in 1976 to modify the law but failed.


In 1978 the Govt. of India constituted a High Powered Expert Committee to review Companies Act 1956 and Monopolies Act. It was presided over by a judge of Delhi High Court. Amongst its members were some of the top lawyers, Industrials Houses trade Union leaders, and accountants. It unanimously recommended that the ban on donations by companies to political parties should continue. – “The Report worked once this is permitted, the danger the democracy can be well visualized; namely, politics being dictated by the interests of large companies which by the very nature of it, would be able to contribute more funds as compared to the smaller companies.”


Notwithstanding the warning Section 293A was amended in 1985 and Board of Directors was authorized to make donation to political parties. That law still continues. It is unfortunate that while other democracies recognize the danger of money power playing an unhealthy part in Elections, we are still continuing with it. Thus in U.S.A. under the Federal Election Campaign Act 1971 it is unlawful for any corporation to make or for any candidate for president, Vice President, Senate, Congress to receive any contribution is prohibited and it is unlawful for any company to make any contribution to political parties.


It is beyond doubt that contribution by companies is given not because of any ideological reason but really as a device to be in the good books of the ruling party. Thus; between 1966 to 1969, 75 companies paid down Rs. 1.87 crore out of which Rs. 144 lakhs were given to the ruling party, the ruling Congress Party in 1967 alone received Rs. 87 Lakhs.


Perception and reality has not changed – thus we find that in 2003 –n 2004 B.J.P. got 90 crores as against Congress at 65 crores. The peak of BJP was 155 crores in 2004 –05 down to 137 crores in 2007 –08. The rise in the share of the Congress Party during this period was phenomenal uprise starting from 2002 – 03 at 53 crores, upswinging to Rs. 265 crores in 2007 – 08. More significant of Corporate political nexus is illustrated by corporate donation to BSP of Mayawati rising in 2002 – 03 from 10,9 crores to Rs. 55.6 crores in 2007 –08. Does one need more proof of invidious entry of corporate sector in our body politic and of the dangerous consequences.


Another infirmity is the vesting in Board of Directors the power to choose a political party, for giving contribution. Why it is legitimately asked, the decision to utilize corporate funds be determined by a coterie of 10 or 15 Directors rather than that of thousands of shareholders who are the real owners of the company.


A further question relates to the legitimate demands of the workers in the company to have a say for distribution of corporate funds - in (the Supreme Court has recognized their right in funds of the company).


All these problems are bound to become more controversial as actual working of utilization of these funds becomes public. A straightforward, honest, equitable solution is to ban the corporate funding of political parties, as in USA and UK. Clean politics mandates this as a minimum prerequisite by all political parties. Let electorate demand that manifestos of the parties include such a provision - let them give straight answer immediately.
(Published earlier in The Tribune on 11 April 2009)

वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना


अफरोज आलम ‘साहिल’


खबर है कि केन्द्र सरकार के ढाई करोड़ की राशि से वंचित होने के बाद भी वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना कार्यालय (वाल्मीकीनगर, बिहार) की ओर से वर्ष 2009-10 के लिए नया वार्षिक योजना बनाने की कवायद तेज कर दी गयी है। सूत्रों की मानें वार्षिक योजना पर अंतिम रिपोर्ट अप्रैल माह के अंत तक तैयार कर दिया जायेगा। लगभग 900 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत इस परियोजना क्षेत्र का विकास एवं प्रबंधन वार्षिक योजना की राशि से पूरा किया जाता है। समय पर इस राशि के नहीं मिलने से बाघों की सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ता है।




स्पष्ट रहे कि वर्ष 2008-09 में वार्षिक योजना के रूप में केन्द्र सरकार ने कुल ढ़ाई करोड़ रुपये की स्वीकृति दी थी। यह स्वीकृति जुलाई माह में मिली, लेकिन बिहार सरकार के लापरवाही के चलते समय पर वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना को यह राशि नहीं मिल सकी। इससे जहां एक ओर इतनी बड़ी राशि से टाईगर प्रोजेक्ट को हाथ धोना पड़ा है, तो दूसरी ओर यहां के वनों की सुरक्षा एवं वन प्राणियों के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो गया है। अगर समय रहते राज्य सरकार की ओर से पहल नहीं की जाती है, तो सुबे का एक मात्र टाईगर प्रोजेक्ट कुछ ही दिनों में नष्ट हो सकता है। इतना ही नहीं राज्य सरकार की लापरवाही के वजह से टाईगर प्रोटेक्शन फोर्स का गठन वर्ष 2008-09 के तहत नहीं हो सका है। वनों की सुरक्षा के लिए नियमित गश्ती भी पिछले चार माह से बंद है। जबकि बाघों की सुरक्षा के लिए केन्द्र सरकार के निर्देश पर प्रत्येक टाईगर रिजर्व क्षेत्र में टाईगर प्रोटेक्शन फोर्स का गठन किया जाना है।



आश्चर्य की बात तो यह है कि मानदेय की राशि नहीं मिलने से सुरक्षा के लिए लगाये गये पांच भूतपूर्व सैनिक नौकरी छोड़ दिये। अब दस भूतपूर्व सैनिक ही अपनी सेवा दे रहे हैं। इधर डीएफओ एस. चन्द्रशेखर की माने, तो भूतपूर्व सैनिकों के मानदेय के भुगतान के लिए गैर योजना मद से चार लाख रुपये दिये गये हैं। इससे उनके एक वर्ष में से मात्र आठ माह का ही वेतन भुगतान हो पाया है। इसके अलावा अतिरिक्त राशि की मांग राज्य सरकार से की गयी है। स्पष्ट रहे कि टाईगर प्रोजेक्ट में सुरक्षा सहित विभिन्न योजनाओं का संचालित करने के लिए केन्द्र सरकार की ओर से प्रति वर्ष वार्षिक योजना की राशि दी जाती है। राशि की स्वीकृति के बाद केन्द्र सरकार के नेशनल टाईगर कंजर्वेशन ऑथारिटी एवं बिहार सरकार के बीच मोड ऑफ अंडरस्टैडिंग कराया जाता है। इसके बाद राशि का इस्तेमाल हो सकता है। आश्चर्य तो यह कि केन्द्र सरकार ने वर्ष 2008-09 के लिए जुलाई 08 में दो करोड़ 50 लाख रुपये स्वीकृत की थी, जिसमें प्रथम किस्त के रूप में उसी माह एक करोड़ रुपये वाल्मीकि टाईगर प्रोजेक्ट को दे दिया गया। लेकिन राज्य सरकार की ओर से एमओयू पर दस्तखत नहीं होने के कारण 31 मार्च बीत जाने के बाद भी उस राशि का इस्तेमाल नहीं किया जा सका। प्रथम किस्त की उपयोगिता प्रमाण पत्र नहीं देने के चलते दूसरी किस्त की राशि से भी हाथ धो लेना पड़ा।




ऐसा नहीं है कि यह घटना पहली बार हुआ। इससे पूर्व भी बिहार सरकार इस तरह की लापरवाही लगातार दिखाती रही है। पिछले आठ वर्षों में केन्द्र सरकार द्वारा जारी फंड और बिहार सरकार द्वारा किए गए खर्चों को देखे तो आश्चर्य होगा। वर्ष 2000-01 में केन्द्र सरकार ने 38.7765 लाख रुपये दिए, पर बिहार सरकार ने सिर्फ 17.73454 लाख रुपये ही खर्च किया। वर्ष 2001-02 में केन्द्र सरकार ने 50 लाख रुपये जारी किए, पर बिहार सरकार सिर्फ 3.75 लाख रुपये ही खर्च कर पाई। वर्ष 2002-03 में केन्द्र सरकार ने 39.15 लाख रुपये उपलब्ध कराए, और बिहार सरकार ने इसे पूरा खर्च कर दिया।
वर्ष 2003-04 में केन्द्र सरकार ने 50 लाख रुपये दिए, और बिहार सरकार ने खर्च किया 77.828 लाख रुपये। वर्ष 2004-05 में केन्द्र सरकार ने 85 लाख रुपये दिए, बिहार सरकार ने सिर्फ 42.7079 लाख रुपये ही खर्च किया। वर्ष 2005-06 में केन्द्र सरकार ने कोई फंड उपलब्ध नहीं कराया, लेकिन बिहार सरकार ने 73.2290 लाख रुपये खर्च किए। वर्ष 2006-07 में केन्द्र सरकार ने 63.9554 लाख रुपये दिए, और बिहार सरकार ने 73.8575 लाख रुपये खर्च किया। वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार ने 92.810 लाख रुपये दिए, और बिहार सरकार ने 66.9436 लाख रुपये खर्च किया।



यह सारे आंकड़े भारत सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय के नेशनल टाईगर कंजरवेशन ऑथोरिटी से लेखक द्वारा डाले गए आर.टी.आई. के माध्यम से प्राप्त हुए हैं। मंत्रालय ने यह फंड बिहार के वाल्मीकी टाईगर रिजर्व के विकास एवं संरक्षण हेतु उपलब्ध कराए थे।




गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

BJP, Congress hog big biz funds


Aditya kaul
Whose cash are the major political parties banking on this time? A good part of election financing is obviously done with black money, but a close look at formal business funding in the recent past offers enough clues on who's bankrolling whom.

Quite clearly, businessmen have their favourites, but many others tend to back all major parties even-handedly. Else, they offer donations based on the popular votes/seats received by each major party at the last elections.

The Congress' big backers are the Aditya Birla group and the Tatas, while the BJP received substantial funding from the Sterlite group of Anil Agarwal and the Gujarat-based Adanis. The Dhoots of Videocon backed both the major parties and also the Shiv Sena in Maharashtra.
Using the Right to Information Act extensively, DNA obtained the officially declared contribution figures of various political parties between 2003 and 2007. Since disclosures are voluntary, the figures are only indicative, and may also hide more than they reveal. Thus, there is little data on Mayawati's BSP, which did not submit any declaration to the Election Commission.

Missing from the declarations are the contributions of the Ambani brothers. While Mukesh has access to the highest levels in the Congress, Anil Ambani is close to the Samajwadi Party's Amar Singh.

The Congress and the BJP hogged the lion's share of the booty during 2003-07 -- almost identical amounts of Rs 52.42 crore and Rs 52.93 crore. No business house obviously wants to fall foul of the two principal nodes of Indian politics, whether they are in power or on the sidelines.

But given the growth in coalitions, the smaller parties aren't doing too badly either.
Adani contribution of Rs4 crore to BJP underscores proximity to Modi
Small parties, big bucksSmaller regional parties haven't done too badly either in the queue for formal business funding. The Shiv Sena (Rs 4.17 crore), the SP (Rs 2.45 crore), the TDP (Rs 2.25 crore) and health minister Anbumani Ramadoss' PMK (Rs 2.86 crore) were key beneficiaries during this period.

The Aditya Birla group headed by Kumar Mangalam Birla emerges as the country's biggest donor, having made total donations to the tune of Rs 24.67 crore. The bulk of it went to the Congress party -- Rs 21.71 crore.

The BJP got all of Rs 2.96 crore. The Birla General Electoral Trust made donations only to these two major political parties.

The BJP's political interests, on the other hand, were strongly supported by the Public and Political Awareness Trust based in Silvassa. It received Rs 9.5 crore between 2003 and 2007 from this trust, which, in turn, received most of its funds from the Sterlite group of Anil Agarwal.
In 2000, 51% of public sector unit Balco was sold to the Sterlite group by the then NDA government. Separately, Sterlite Industries donated Rs 1 crore to the Congress and another Rs 50 lakh to the BJP.

The Venugopal Dhoot-led Videocon consumer durables group gave more than Rs 10 crore to three major parties - the BJP, Congress and Shiv Sena. Of this, Rs 4.5 crore went to the Congress and Rs 3.5 crore to BJP. The Sena got a generous Rs 2.63 crore. Not surprising, since Dhoot's brother Raj Kumar is in the Rajya Sabha, courtesy Shiv Sena.

The Tatas are not far behind. They have donated Rs 4.32 crore to the Congress and another Rs 2.67 crore to the BJP. The Shiv Sena got Rs 60.94 lakh and the Telugu Desam (TDP) Rs 48.48 lakh. These donations were made through Electoral Trust, which was set up before the 1999 general elections for encouraging transparent political funding.

The Gujarat-based Adani group, which is into commodities trading, edible oil, infrastructure and private port operations, was the biggest benefactor of the BJP. Gautam Adani's proximity to Gujarat chief minister Narendra Modi, often seen using the former's private planes, brought the BJP Rs 4 crore. The Congress got only Rs 20 lakh.

The professionally-managed ITC has scattered its largesse far and wide as it donates money on the basis of the parliamentary representation of each political party. The company gave Rs 1.45 crore to the Congress, Rs 1.38 crore to the BJP, Rs 36 lakh to the Samajwadi Party, Rs 12 lakh to the Shiv Sena, Rs 14.5 lakh to the TDP, Rs 8 lakh to Janata Dal (U) and even Rs 5 lakh to the AIADMK.

Engineering giant Larsen & Toubro has given Rs 1.6 crore to BJP, Rs 1 crore to Congress and another Rs 35 lakh to the Shiv Sena. The Mahindra group has distributed Rs 2.2 crore between the Congress, BJP, Shiv Sena and TDP. The Bajaj group has given Rs 1 crore each to Congress and BJP.

Naveen Jindal, who was elected to the current Lok Sabha on a Congress ticket, has donated a sum of Rs 1 crore to the Congress. Interestingly, he has also donated Rs 75 lakh to his party's main rival, the BJP.

The GMR group, which bagged major contracts for airport development across the country, donated Rs 1 crore to the BJP and Rs 25 lakh to the Congress through GMR Power Corporation and its promoters. Vijay Mallya's Shaw Wallace group, acquired in June, 2005, donated a sum of Rs 1 crore to the BJP in 2004-05.

There are several other notable names in the list. Pharma firm Ranbaxy donated Rs 95 lakh - Rs 65 lakh to the Congress, Rs 25 lakh to BJP and another Rs 5 lakh to TDP. The LM Thapar group donated Rs 70 lakh to the Congress and BJP. The Umesh Modi group gave Rs 50 lakh to the BJP and Rs 25 lakh to the Congress

Among lesser-known financiers are Akik Education Centre, based in Delhi's Shahdara area at Baldev Park. Akik poured Rs 1.5 crore into the BJP's coffers. There is a three-storey building at the given address but DNA did not find any educational institute. Ahmedabad-based Nima Specific Family Trust gave Rs 1 crore to the BJP and Rs 30 lakh to the Congress.

Real estate groups - often operating at the edge of the law - also found a place among the formal donors to the major parties. The Ambience Group, led by Raj Singh Gehlot, which is into the construction of malls and luxury apartments, donated Rs 1.05 crore to the Congress from its Green Park Extension office. Another builder based in the capital, Somdutt Builders, gave Rs 75 lakh to the BJP.

Punj Lloyd, an engineering, construction and project management firm, doled out Rs 1 crore to the BJP while real estate developer Today House & Infrastructures donated Rs 55 lakh to the Congress.

The Jubilant group, which is into hyper and supermarket development, and real estate association Creda handed over Rs 50 lakh and Rs 47 lakh to BJP. Sanskriti Developers dished out Rs 50 lakh to the Congress and Rs 15 lakh to the Shiv Sena.

Quite clearly, from obscure trusts to famous industrial houses, all of them have contributed to keep the wheels of political parties greased.

चुनाव में अरबों का खर्च


नई दिल्ली। देश और दुनिया भली ही आर्थिक मंदी से जूझ रही हो, लेकिन भारत के लोकतांत्रिक उत्सव में इसकी कही झलक भी नहीं देखी जा रही है। जिस तरह उत्सव में हैसियत से ज्यादा खर्च करने की हमारी आदत रही है। वहीं सब लोकसभा चुनाव में देखने को मिल रहा है। लगभग 10 हजार करोड़ इस पर्व में खर्च होने का अनुमान है। जिसमें राजनीतिक दलों का बजट और उम्मीदवारों द्वारा खर्च किए जाने वाला धन शामिल है। इस बार के चुनाव में तकनीकी संसाधनों का सबसे ज्यादा उपयोग किया जा रहा है। उसमें मुख्य रूप से इलेक्ट्रानिक और इंटरनेट के साधन सर्वाधिक है। कांग्रेस भाजपा सहित बड़े राजनैतिक दल पेशेवर एजेंसियों की सेवाएं ले रहे हैं। कांग्रेस के चुनाव अभियान में विज्ञापन के लिए तीन एड एजेंसियों की सेवा ली है। जिसे घोषित रूप से 150 करोड़ आवंटित किए हैं। भाजपा ने करीब 100 करोड़ रूपए एड एजेंसी को दिए हैं। चुनाव अभियान में विज्ञापनों के लिए दिया गया यह पैसा नाममात्र है। एक रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव आयोग चुनावी प्रकिया को सम्पन्न कराने के लिए लगभग 12 सौ करोड़ खर्च करेगा। इस लोकसभा चुनाव में 74 करोड़ से अधिक मतदाता अपने 543 उम्मीदवारों का चुनाव करेंगे। इस मंदी के दौर में उद्योग कम हो रहे हैं। नौकरियां कम पड़ती जा रही है। 30 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने को मजबूर है। कही भूख और कही कुपोषण से भी पीडि़त है। ऐसी स्थिति एक माह में 10 हजार करोड़ खर्च होना एक विचारणीय प्रश्न है। चुनाव आयोग में वैसे तो प्रत्याशियों की खर्च करने की सीमा 25 लाख रूपए निर्धारित की है, लेकिन चुनाव में इससे कही गुना अधिक खर्च हो रहा है। औसतन 16 करोड़ रूपया एक संसदीय क्षेत्र में खर्च होगा। प्रश्न यह खड़ा होता है कि राजनीतिक दलों के पास यह सब कहा से आ रहा है। देश के औद्योगिक घराने इन्हें घोषित रूप से चंदा दे रहे हैं जो इनके हाथों में दर्शाए गए हैं, लेकिन ऐसा पैसा भी इन औद्योगिक घरानों द्वारा राजनीतिक दलों और नेताओं को दिया जा रहा है। जिसका कही उल्लेख नहीं है। बिरला ने 21।71 करोड़ कांग्रेस को और 2.96 करोड़ भाजपा को दिए। सिलवासा के पब्लिक एंड पॉलिटिकल ने भाजपा को 9.5 करोड़ दिए। यह ट्रस्ट स्टारलिट के मालिक अनिल अग्रवाल का है। अग्रवाल देश के सबसे बड़े एल्युमीनियम उत्पादन और निर्यातक के सबसे बड़े समूह के मुखिया है। विडियोकोन ने कांग्रेस को 4.5 और भाजपा को 3.5 करोड़ रूपए बतौर चुनावी चंदा दिया है। अन्य छोटे दल शिवसेना, पीडीपी को भी लाखों में चंदा दिया है। गुजरात का आदानी समूह भाजपा को चंदा देने में सबसे आगे है। उसने 4 करोड़ रूपया चंदे के रूप में दिया साथ ही कंपनी का चार्टर प्लेन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार अभियान संचालित करने को दिया है। कांग्रेस के सांसद नवीन जिंदल जो जिंदल समूह के प्रमुख है ने कांग्रेस के अलावा भाजपा को भी चंदा दिया है। एएण्डटी, महिन्द्रा ग्रुप, बजाज, माल्याग्रुप, रियल स्ट्रेट कंपनियों के साथ कहीं समूहों ने राजनीतिक दलों को चंदा दिया है। यह चंदा इसलिए विचारणीय है कि जिन राजनीतिक दलों को इन घरानों ने बतौर चुनावी चंदा दिया है। वह चुनाव बाद इस चंदे की भरपाई किस रूप में करेंगे। एक ओर राजनीतिक दल के उम्मीदवार जनता में सेवा के नाम पर वोट मांग रहे हैं। यह विजयी होने के बाद जनता की सेवा करेंगे या इन औद्योगिक घरानों ने चुनाव लड़ने के लिए इन्हें धन उपलब्ध करवाया। पिछले कुछ चुनावों में यह देखने को आ रहा है कि इसमें धन, बल और बाहुबल का उपयोग बड़ा है। यह सब लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।

चुनाव में अरबों का खर्च


नई दिल्ली। देश और दुनिया भली ही आर्थिक मंदी से जूझ रही हो, लेकिन भारत के लोकतांत्रिक उत्सव में इसकी कही झलक भी नहीं देखी जा रही है। जिस तरह उत्सव में हैसियत से ज्यादा खर्च करने की हमारी आदत रही है। वहीं सब लोकसभा चुनाव में देखने को मिल रहा है। लगभग 10 हजार करोड़ इस पर्व में खर्च होने का अनुमान है। जिसमें राजनीतिक दलों का बजट और उम्मीदवारों द्वारा खर्च किए जाने वाला धन शामिल है। इस बार के चुनाव में तकनीकी संसाधनों का सबसे ज्यादा उपयोग किया जा रहा है। उसमें मुख्य रूप से इलेक्ट्रानिक और इंटरनेट के साधन सर्वाधिक है। कांग्रेस भाजपा सहित बड़े राजनैतिक दल पेशेवर एजेंसियों की सेवाएं ले रहे हैं। कांग्रेस के चुनाव अभियान में विज्ञापन के लिए तीन एड एजेंसियों की सेवा ली है। जिसे घोषित रूप से 150 करोड़ आवंटित किए हैं। भाजपा ने करीब 100 करोड़ रूपए एड एजेंसी को दिए हैं। चुनाव अभियान में विज्ञापनों के लिए दिया गया यह पैसा नाममात्र है। एक रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव आयोग चुनावी प्रकिया को सम्पन्न कराने के लिए लगभग 12 सौ करोड़ खर्च करेगा। इस लोकसभा चुनाव में 74 करोड़ से अधिक मतदाता अपने 543 उम्मीदवारों का चुनाव करेंगे। इस मंदी के दौर में उद्योग कम हो रहे हैं। नौकरियां कम पड़ती जा रही है। 30 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने को मजबूर है। कही भूख और कही कुपोषण से भी पीडि़त है। ऐसी स्थिति एक माह में 10 हजार करोड़ खर्च होना एक विचारणीय प्रश्न है। चुनाव आयोग में वैसे तो प्रत्याशियों की खर्च करने की सीमा 25 लाख रूपए निर्धारित की है, लेकिन चुनाव में इससे कही गुना अधिक खर्च हो रहा है। औसतन 16 करोड़ रूपया एक संसदीय क्षेत्र में खर्च होगा। प्रश्न यह खड़ा होता है कि राजनीतिक दलों के पास यह सब कहा से आ रहा है। देश के औद्योगिक घराने इन्हें घोषित रूप से चंदा दे रहे हैं जो इनके हाथों में दर्शाए गए हैं, लेकिन ऐसा पैसा भी इन औद्योगिक घरानों द्वारा राजनीतिक दलों और नेताओं को दिया जा रहा है। जिसका कही उल्लेख नहीं है। बिरला ने 21।71 करोड़ कांग्रेस को और 2.96 करोड़ भाजपा को दिए। सिलवासा के पब्लिक एंड पॉलिटिकल ने भाजपा को 9.5 करोड़ दिए। यह ट्रस्ट स्टारलिट के मालिक अनिल अग्रवाल का है। अग्रवाल देश के सबसे बड़े एल्युमीनियम उत्पादन और निर्यातक के सबसे बड़े समूह के मुखिया है। विडियोकोन ने कांग्रेस को 4.5 और भाजपा को 3.5 करोड़ रूपए बतौर चुनावी चंदा दिया है। अन्य छोटे दल शिवसेना, पीडीपी को भी लाखों में चंदा दिया है। गुजरात का आदानी समूह भाजपा को चंदा देने में सबसे आगे है। उसने 4 करोड़ रूपया चंदे के रूप में दिया साथ ही कंपनी का चार्टर प्लेन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार अभियान संचालित करने को दिया है। कांग्रेस के सांसद नवीन जिंदल जो जिंदल समूह के प्रमुख है ने कांग्रेस के अलावा भाजपा को भी चंदा दिया है। एएण्डटी, महिन्द्रा ग्रुप, बजाज, माल्याग्रुप, रियल स्ट्रेट कंपनियों के साथ कहीं समूहों ने राजनीतिक दलों को चंदा दिया है। यह चंदा इसलिए विचारणीय है कि जिन राजनीतिक दलों को इन घरानों ने बतौर चुनावी चंदा दिया है। वह चुनाव बाद इस चंदे की भरपाई किस रूप में करेंगे। एक ओर राजनीतिक दल के उम्मीदवार जनता में सेवा के नाम पर वोट मांग रहे हैं। यह विजयी होने के बाद जनता की सेवा करेंगे या इन औद्योगिक घरानों ने चुनाव लड़ने के लिए इन्हें धन उपलब्ध करवाया। पिछले कुछ चुनावों में यह देखने को आ रहा है कि इसमें धन, बल और बाहुबल का उपयोग बड़ा है। यह सब लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।

1200 करोड़ खर्च होंगे लोकसभा चुनाव में

- प्रतिभा ज्योति
राजनीतिक दल चुनाव लड़ने पर कितना पैसा खर्च करते हैं इसका अंदाजा केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 125 करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए थे जबकि भाजपा ने 93 करोड़ रुपए से अधिक धनराशि खर्च की थी। सपा ने 5 करोड़ 60 लाख और बसपा ने 4 करोड़ से अधिक खर्च किए थे। पिछले चुनाव में पार्टियों ने 232 करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए थे। अनुमान है कि इस बार 1200 करोड़ से अधिक की धनराशि खर्च होगी। पिछले लोकसभा चुनाव में विभिन्न दलों के चुनावी खर्चे का जो ब्योरा चुनाव आयोग को मिला है, उसके मुताबिक चुनाव की घोषणा के समय कांग्रेस के पास 69 करोड़ 70 लाख 47 हजार 359 रुपए थे। 25 मई 2004 तक राज्यों से 1 करोड़ 3८ लाख 33 हजार 807 रुपए मिले थे। पार्टी को चंदे के रूप में 94 करोड़ 61 लाख 2८ हजार 589 रुपए मिले। पार्टी ने चुनाव में 125 करोड़ 43 लाख 33 हजार 247 रुपए खर्च किए। हालाँकि दलों ने आधिकारिक तौर पर चुनाव आयोग को खर्चे का यह ब्योरा दिया है पर वास्तव में दल इससे कहीं अधिक रकम चुनाव में खर्च करते हैं। आयोग के दस्तावेज बताते हैं कि 29 फरवरी 2004 को चुनाव की घोषणा के समय भाजपा के पास 78 करोड़ 20 लाख 81 हजार 110 रुपए थे। 25 मई यानी चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक विभिन्न स्रोतों से पार्टी को 88 करोड़ 65 लाख 18 हजार 866 रुपए प्राप्त हुए। चुनाव के दौरान पार्टी ने कुल 93 करोड़ 48 लाख 30 हजार 183 रुपए खर्च किए। पिछले चुनाव में रेल मंत्री लालूप्रसाद यादव की पार्टी राजद के पास चुनाव की घोषणा के समय 12 लाख 39 हजार 657 रुपए थे। पार्टी को चंदे के रूप में 45 लाख 17 हजार मिले और पार्टी ने चुनाव में 68 लाख 19 हजार 870 रुपए खर्च किए। वहीं सपा के पास चुनाव की घोषणा के समय 16 करोड़ 71 लाख 90 हजार 839 रुपए थे। पार्टी को चंदे और विभिन्न स्रोतों से 7 करोड़ 31 लाख 76 हजार 756 रुपए हासिल हुए। पार्टी ने चुनाव में खर्च किए 5 करोड़ 60 लाख 11 हजार 289 रुपए। बसपा के पास चुनाव की घोषणा के समय 33 करोड़ 97 लाख 88 हजार 490 रुपए थे। चंदे के रूप में पार्टी को मिले 3 लाख 13 हजार 113 रुपए और पार्टी ने लोकसभा चुनाव में खर्च किए 4 करोड़ 20 लाख 51 हजार 742 रुपए।

http://72.14.235.132/search?q=cache:lA0SJ3FWJqYJ:hindi.webdunia.com/news/news/national/0903/22/1090322046_1.htm+%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A4%BE+%E0%A4%95%E0%A5%8B+%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE+%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%BE&cd=20&hl=en&ct=clnk&gl=in

चंदा वसूलने में भाजपा आगे...

भाजपा ने चंदा वसूली के मामले में भी कांग्रेस को काफी पीछे छो।ड दिया है। वर्ष 2007.08 में भाजपा ने 25 करो.ड रूपया चंदा के रूपमें वसूल किया वहीं भारत की बुढ़ी और सशक्त पार्टी केवल 8 करो.ड रूपया ही सारे देश से चंदा के रूप में मिला। चुनाव अयोग मेंजमा चंदा के बयौरे से उक्त तथय उजागर हुआ है। इसके पूर्व भी वर्ष 2003.04 में भाजपा.कांग्रेस को चंदे के धंधे में पछा.ड चुकी है। 18 पार्टियों ने ही चुनाव आयोग को अपने चंदे का बयोरा दिया है जबकि देश में 7 राष्ट्रीय दल, 41 क्षेत्रीय दल और 949 गैरमान्यता प्राप्त दल हैं। देश में केवल 18 राजनीतिक दलों ने ही चुनाव आयोग के पास फाँर्म 24ए भरकर जमा कराया है। इसी फाँर्म में चंदे की जानकारी दी जाती है। फाँर्म भरकर जमा नहीं कराने वाले दलों में राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशकिंत पार्टी, झरखंड मुकिंत मोर्चा, बीजू जनता दल, शिरोमणि अकाली दल, बहुजन समाज पार्टी, डीएमके, पीएमके, जनता दल एस, टीआरएस, नेशनल काँन्प्रेंसस, फाँरवर्ड बलाँक, आरएसपी और राष्ट्रीय लोकदल प्रमुख हैं। चुनाव आयोग 2007.08 में सबसे ज्यादा चंदा भाजपा को मिला। इस दौरान पार्टी को 24.96 करो.ड रूपये सियासी चंदे के तौर पर मिले। उसी साल कांग्रेस को 7.89 करो.ड रूपये का चंदा प्राप्त हुआ।

http://qphindi.indopia.in/37631.html

पार्टियां क्या छिपाना चाहती हैं

सुधांशु रंजन

सूचना के अधिकार को असरदार तरीके से लागू करने में केंद्रीय सूचना आयोग के रवैये की आलोचना होती रही है, लेकिन हाल में उसने एक ऐसा फैसला दिया है, जो उसकी साख बहाल कर सकता है। आयोग ने आदेश दिया है कि सियासी पार्टियों को अपनी आमदनी के स्त्रोत जाहिर करने होंगे। एक संस्था ने यह जानकारी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से मांगी थी कि क्या पार्टियों ने सन 2002 से रिटर्न फाइल किए हैं, अगर हां, तो उनकी कॉपी मुहैया कराई जाए। इस पर सिर्फ जम्मू-कश्मीर और असम के आयकर आयुक्तों ने पीडीपी और एजीपी के रिटर्न मुहैया कराए।

बाकी का कहना था कि सूचना का अधिकार इस मामले पर लागू नहीं होता, क्योंकि यह पार्टियों की व्यावसायिक गतिविधि है और इसका जनहित से भी कोई ताल्लुक नहीं। दूसरा तर्क यह था कि आयकर कानून के तहत गोपनीय जानकारी जाहिर करने की कोई मजबूरी नहीं है। गौरतलब है कि सीपीआई और सीपीएम को छोड़कर बाकी पार्टियां भी इन्हीं विचारों के जरिए अपना हिसाब छिपाना चाहती हैं।

बहरहाल सूचना आयोग ने इन विचारों को खारिज कर दिया। यह सही है कि आज कोई भी कानून नहीं कहता कि पार्टियों को अपनी कमाई का जरिया बताना ही होगा। जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत उन्हें बीस हजार रुपये से ज्यादा के अंशदानों का ब्यौरा इलेक्शन कमिशन को देना होता है, लेकिन यह वैकल्पिक है, यानी नहीं मानने पर कोई सजा नहीं मिलती। फिलहाल देश में 55 मान्यता प्राप्त और 900 गैर मान्यता प्राप्त, लेकिन रजिस्टर्ड पार्टियां हैं। सन 2006-07 में इनमें से सिर्फ 14 ने इलेक्शन कमिशन को अपनी रिपोर्ट सौंपी।

तत्कालीन चीफ कमिश्नर टी। एस. कृष्णमूर्ति ने प्राइम मिनिस्टर को लिखा था कि पार्टियों के खातों को सार्वजनिक करने का इंतजाम होना चाहिए। बाद में कमिशन ने ऑडिट की भी मांग की थी। सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता के लिए जरूरी है कि पारदर्शिता हो। इसका कोई विकल्प नहीं। लॉ कमिशन ने अपनी 170 वीं रिपोर्ट में कहा था कि पार्टियों के कामकाज में अंदरूनी लोकतंत्र, वित्तीय पारदर्शिता और जवाबदेही लाई जानी चाहिए। जो पार्टी अपने अंदरूनी कामकाज में लोकतांत्रिक मर्यादाओं की इज्जत नहीं करती, उसे देश का शासन चलाने के नाम पर छूट नहीं दी जा सकती।

इसी तरह संविधान समीक्षा आयोग ने भी पार्टियों के खातों की ऑडिटिंग की सिफारिश की थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में पार्टियों के कामकाज को पारदर्शी बनाने की बात कही है। 1996 में कॉमन कॉज बनाम केंद्र सरकार मामले में उसने कहा था कि सत्ता पाने के लिए पार्टियां लोकसभा चुनाव में एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर देती हैं, लेकिन न तो कोई इसका हिसाब मांगता है और न ही कोई पैसे के स्त्रोत का खुलासा करता है। किसी को पता नहीं होता कि पैसा कहां से आता है। इसी सिलसिले में आगे बढ़ते हुए 2003 में पीयूसीएल केस में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि सभी उम्मीदवार अपनी देनदारियों, प्रॉपर्टी और क्रिमिनल केसों का लेखाजोखा नामांकन पत्र भरते समय दें।

राजनीतिक दलों के हिसाब-किताब और आमदनी के जरियों का खुलासा होने पर लोग जान पाएंगे कि उन्हें पैसा कहां से मिल रहा है और कैसे खर्च हो रहा है। उसके बाद जो दल इलेक्शन कमिशन को अपने खर्च का ब्यौरा नहीं दे रहे हैं, वे भी ऐसा करने को मजबूर हो जाएंगे। पब्लिक को यह पता लग सकेगा कि किसी पार्टी को किस कंपनी से चंदा मिला है और कहीं वह उसके हित में काम तो नहीं कर रही? हालांकि तब नुकसान यह होगा कि चेक की बजाय नकदी में चंदा दिया जाने लगेगा। आमतौर पर कंपनियां सभी पार्टियों को खुश रखने की कोशिश करती हैं। अब वे अपनी पहचान छिपाने की पूरी कोशिश करेंगी। लेकिन वैसे भी पार्टियों के खजाने में काले धन की भरमार रहती है।

असल चुनौती काले धन की समस्या से निपटने की है। अकेले सूचना के अधिकार से यह काम नहीं हो सकता। काले धन पर कंट्रोल के लिए कड़े कानूनों और निगरानी की जरूरत है। जहां तक पारदर्शिता का सवाल है, दूसरे देशों से हम कुछ सीख सकते हैं। मसलन जर्मनी के बेसिक लॉ की धारा 21 के तहत पार्टियों को अपनी आमदनी और खर्च का हिसाब सार्वजनिक करना ही होता है। अमेरिका में फेडरल इलेक्शन कमिशन चुनाव के दौरान होने वाले खर्च का रेकॉर्ड रखता है। फंडिंग की लिमिट और स्त्रोत पर उसकी कड़ी नजर रहती है।

भारत में इलेक्शन कमिशन काफी ताकतवर है, लेकिन पार्टियों के पैसे पर शिकंजा कसने में उसके हाथ बंधे हुए हैं। उसे पर्याप्त कानूनों का सहारा हासिल नहीं है, और जो कानून हैं, उनमें भी खामियां हैं। मसलन, जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 में कहा गया है कि शुभचिंतकों की तरफ से किसी उम्मीदवार पर खर्च की जाने वाली रकम उसके चुनाव खर्च में शामिल नहीं की जाएगी। इससे लिमिट से ज्यादा खर्च करने का रास्ता खुल जाता है। पार्टियों को कसने के लिए पर्याप्त कानूनों के न होने के पीछे एक वजह यह भी है कि हमारे संविधान में कहीं भी राजनीतिक दल का जिक्र नहीं है, जबकि पूरा सिस्टम दलगत राजनीति पर टिका है। पहली बार बावनवें संविधान संशोधन (दलबदल निरोधक कानून) के जरिए राजनीतिक दलों को मान्यता मिली।

सूचना आयोग का फैसला स्वागत योग्य है और यह इस कानून के बढ़ते दायरे का ही सबूत है। सूचना का अधिकार एक क्रांतिकारी कानून था, लेकिन इसका कई कोनों से विरोध हुआ। देखा जाए, तो यह स्वाभाविक ही था। खुलापन सभी को डराता है। अब भी कई संस्थाएं और विभाग इसके दायरे से बचने की कोशिश में हैं। शुक्र है कि ये कोशिशें एक-एक करके नाकाम होती जा रही हैं और पारदर्शिता के पक्ष में दबाव बढ़ता जा रहा है। सियासी पार्टियों ने इस कानून को तो पास किया, लेकिन इसका असर उन्हें भी तकलीफ दे रहा है। लेकिन इस गढ़ को तोड़ना बेहद जरूरी है, क्योंकि जब सियासत के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं रहेगा, तो वह दूसरे क्षेत्रों में खुलेपन के लिए जोर देगी। अलबत्ता पब्लिक को भी समझना होगा कि सिर्फ कानून के जरिए सियासत की गंदगी साफ नहीं की जा सकती। इसके लिए हमें जाति, धर्म और स्वार्थ से ऊपर उठकर सही उम्मीदवार की पहचान करनी होगी।

( लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं)

नेक काम में बाधाएं

केंद्रीय सूचना आयोग का यह निर्णय स्वागत योग्य है कि आम नागरिक राजनीतिक दलों के आयकर रिटर्न का ब्यौरा मांग सकते है। सूचना आयोग ने यह निर्णय एक गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर की गई याचिका पर दिया है। इस संगठन की यह मांग थी कि राजनीतिक दल अपने आयकर रिटर्न की जानकारी आम जनता के सामने रखें। यह गौरतलब है कि अपने देश के राजनीतिक दलों को धन कहां से प्राप्त होता है, इसके बारे में रहस्य का पर्दा पड़ा रहता है। राजनीतिक दलों पर यह आरोप लगता रहता है कि वे अपनी राजनीति के संचालन और चुनाव लड़ने के लिए भ्रष्ट तरीकों से धन जुटाते है। शायद ही कोई ऐसे राजनीतिक दल हों जो कॉरपोरेट जगत से चेक के जरिये धन लेते हों और उसका विधिवत हिसाब-किताब रखते हों। आम तौर पर वे नगद पैसा ही लेते है, जिसका हिसाब-किताब कोई नहीं रखता-न तो धन लेने वाला और न ही देने वाला। जब राजनीतिक दल यह दावा करते है कि उनकी कार्यप्रणाली पारदर्शी है और वे जनता की भलाई के लिए सक्रिय है तब फिर उन्हे चंदा लेने में पारदर्शिता का परिचय देने और अपने आयकर रिटर्न का ब्यौरा सार्वजनिक करने में क्या तकलीफ है?

यह आश्चर्यजनक है कि केंद्रीय सूचना आयोग के निर्णय का स्वागत केवल मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने किया है। अन्य दलों को यह निर्णय रास नहीं आ रहा। उनका तर्क है कि ऐसा करने से उनकी निजता का उल्लंघन होगा। बहुजन समाज पार्टी का मानना है कि इस तरह की जानकारी से जनता का कोई हित नहीं सधने जा रहा। कांग्रेस का कहना है कि वह कोई सार्वजनिक संस्था नहीं। जो भी राजनीतिक दल केंद्रीय सूचना आयोग का विरोध कर रहे है वे किसी न किसी स्तर पर अपनी अंदरूनी राजनीति में पारदर्शिता नहीं बरतना चाहते। ये राजनीतिक दल यह भूल रहे है कि भारतीय नागरिकों को संविधान के तहत यह अधिकार प्राप्त हो गया है कि वे सरकार या सार्वजनिक क्षेत्र के बारे में जानकारी ले सकते है। समस्या यह है कि सूचना के अधिकार के तहत आम जनता को जब से यह सुविधा मिली है तब से शीर्ष पदों पर बैठे लोग इस कानून के दायरे से बाहर रहने की कोशिश कर रहे है।

पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने कहा कि उनका पद संवैधानिक पद है और इसलिए वह सूचना अधिकार कानून के दायरे से बाहर है। ऐसे भी संकेत दिए जा रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को सूचना अधिकार कानून से बाहर रखना चाहिए, जबकि एस नचियप्पन की अध्यक्षता वाली कार्मिक, लोक शिकायत और कानून तथा न्याय विभाग से संबंधित संसद की स्थायी समिति ने यह सिफारिश की है कि सभी संवैधानिक पद सूचना अधिकार कानून के दायरे में आने चाहिए। समिति ने स्पष्ट रूप से कहा है कि पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए न्यायिक व्यवस्था को इस कानून के दायरे में लाना चाहिए। उसने फैसले देने की प्रक्रिया को अवश्य इस कानून के दायरे से बाहर रखने की बात कही है। समिति का मानना है कि न्यायिक तंत्र को सूचना कानून के दायरे में शामिल करने के बाद ही इस ऐतिहासिक कानून का पूरा लाभ आम जनता को मिल सकेगा। समिति ने इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने की भी मांग की है। लोकसभा अध्यक्ष ने भी उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय से असहमति जताई है, लेकिन इसी के साथ लोकसभा की विशेषाधिकार संबंधी समिति ने यह तर्क दिया है कि सूचना अधिकार कानून में संशोधन किया जाए ताकि जानकारी मांगने वाले आवेदनकर्ता के लिए यह घोषित करना अनिवार्य किया जा सके कि उसे कोई सूचना विशेष क्यों चाहिए? इस समिति ने इस बारे में अन्य देशों का हवाला दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका और विधायिका, दोनों पारदर्शिता के पक्ष में नहीं। इन स्थितियों में कार्यपालिका को पूरी तौर पर सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाना संभव नहीं।

यह सही है कि न्यायपालिका और विधायिका की कुछ सूचनाएं ऐसी हो सकती है जिनके सार्वजनिक होने से उनका दुरुपयोग हो, लेकिन संवेदनशील सूचनाओं की व्याख्या तो आसानी से की जा सकती है। यदि सभी तरह की सूचनाओं को संवेदनशील मान लिया जाएगा और सूचना अधिकार कानून के समक्ष बाधाएं खड़ी कर दी जाएंगी तो फिर इस कानून की महत्ता खत्म हो जाएगी। प्रश्न यह है कि क्या सूचना अधिकार कानून के तहत आम नागरिकों को न्यायपालिका और विधायिका की सामान्य काम-काज की भी जानकारी नहीं मिल सकती? जब यह सभी मानते हैं कि अपने देश में ज्यादातर कार्य धीमी गति से आगे बढ़ रहे है और उसके पीछे अकर्मण्यता है तब फिर सूचना अधिकार कानून को कमजोर करने का कोई अर्थ नहीं। यह वह कानून है जिसका सही तरीके से पालन भ्रष्टाचार पर एक हद तक अंकुश लगाने में सहायक हो सकता है। आखिर यह तथ्य है कि देश के विकास में एक बड़ी बाधा भ्रष्टाचार है। इस भ्रष्टाचार के लिए राजनीतिक दल ही सीधे तौर पर जिम्मेदार है। अनेक बार कोई कार्य तभी गति पकड़ता है जब पोल खुलने की नौबत आ जाती है। सूचना कानून के प्रावधान पोल खोलने में सहायक हैं। आम नागरिक इस कानून के जरिये प्रशासन के निचले स्तर पर व्याप्त खामियों को दूर करने अथवा अपने लंबित कार्यो को आगे बढ़ाने में समर्थ है। शीर्ष पदों पर बैठे लोग आम नागरिकों को यह सुविधा देने के लिए तैयार नहीं। अब इनमें राजनेता भी शामिल दिख रहे है। यह समय ही बताएगा कि राजनीतिक दल केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले को मानेंगे अथवा अपने लिए कोई आड़ बनाने में सफल हो जाएंगे? यह जानना भी महत्वपूर्ण होगा कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार के संदर्भ में स्थाई समिति की सुनते हैं या फिर विशेषाधिकार समिति की? यदि वे सूचना अधिकार कानून की धार कम करने अथवा उससे खुद को बचाए रखने में सफल रहते है तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

हमारे राजनीतिक दल यह जानते हुए भी अपनी अंदरूनी कार्यप्रणाली को सार्वजनिक करने से बचना चाहते है कि ऐसा करना कुल मिलाकर उनके और देश के हित में है। दरअसल वे अपने संकीर्ण स्वार्थो का परित्याग नहीं कर पा रहे है। यदि उच्च पदों पर बैठे व्यक्ति चाहे वे राजनेता हों या नौकरशाह या फिर न्यायाधीश, अपनी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता नहीं लाएंगे तो वे देश के समक्ष कोई सही उदाहरण पेश नहीं कर सकते। अगर देश को अंतरराष्ट्रीय पटल पर वास्तव में अपनी छाप छोड़नी है तो भ्रष्टाचार से मुक्ति जरूरी है। यहां यह ध्यान रहे कि भारत उन देशों में लगभग शीर्ष पर है जहां कदम-कदम पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। ऐसा लालफीताशाही और सरकारी कामकाज में अनावश्यक गोपनीयता के चलते है। स्थिति में सुधार के लिए सूचना अधिकार कानून अपने आप में सक्षम है, लेकिन यदि उच्च पदों पर बैठे लोग इस कानून के अनुपालन में हीलाहवाली का परिचय देंगे तो फिर इससे देश का अहित ही होगा।

सूचना कानून से बाहर रहने के उच्च पदस्थ लोगों के प्रयासों पर चिंता जता रहे हैं संजय गुप्त

जोर पकड़ने लगा चंदे का धंधा....

सत्तासीन भाजपा के प्रदेश चुनाव प्रभारी वैकेंया नायडू भले ही कहें कि उनके मंत्री या विधायक चुनावी चंदा नहीं जुटाएँगे, लेकिन चुनावों की आहट ने सभी पार्टियों को चुनावी चंदे के लिए चिंतित कर दिया है। पिछली बार की तुलना में इस बार चुनाव और महँगा साबित होना है। ऐसी स्थिति में इस भारी-भरकम राशि की व्यवस्था ने शीर्ष पदाधिकारियों की पेसानी पर बल ला दिए हैं। पार्टियाँ भले ही स्वीकार न करें, लेकिन चुनावी चंदे का धन ही चुनावी जीत का रास्ता खोलता है।
हाल ही में खरगोन जिले की कसरावद सीट पर बसपा के संभावित प्रत्याशी का घटनाक्रम भी कुछ यही बयाँ करता है। इस सीट से बसपा की ओर से संभावित प्रत्याशी रमेश उपाध्याय ने यह कहते हुए पार्टी छोड़ने का ऐलान कर दिया था कि उनसे दो लाख रुपए माँगे जा रहे हैं। यहाँ का राजनीतिक घटनाक्रम देखें, तो बसपा प्रदेश प्रभारी राजाराम पूर्व में रमेश उपाध्याय के नाम को संभावित प्रत्याशी के तौर पर मंच से बोल चुके थे, मगर बाद में उपाध्याय ने आरोप लगाया कि उनसे जोन प्रभारी भगवानदास ने दो लाख रुपए माँगे। इस मुद्दे पर उपाध्याय ने पार्टी छोड़ने और चुनाव मैदान से हटन की घोषणा कर दी।दरअसल, यह पूरा घटनाक्रम बसपा सुप्रीमो मायावती के नाम पर हुआ। चर्चा है कि हर प्रत्याशी से चुनावी चंदे के लिए मायावती के जन्मदिन के नाम पर दो लाख रुपए माँगे जा रहे हैं। इससे कुछ समय पूर्व ही इंदौर में विधायक महेंद्र हार्डिया के नाम पर चुनावी चंदा माँगा गया था। तब चंदा माँगने वाले फर्जी निकले, जिन्हें दानदाता व्यापारियों की मदद से पकड़ा गया। ये दोनों घटनाक्रम भले ही सच हों या झूठ, लेकिन इनसे चुनावी चंदे का कुछ सच जरूर पर्दे से बाहर आ जाता है।
कैसे इकट्ठा होता है चुनावी चंदा : चुनावी चंदे के लिए हर पार्टी की अलग रणनीति होती है। प्रमुख पार्टियों की बात करें, तो प्रदेशाध्यक्ष और कोषाध्यक्ष पर चुनावी चंदा इकठ्ठा करने का दारोमदार होता है। सत्ताधारी पार्टी के मामले में मुख्यमंत्री भी इस जिम्मेदारी में शामिल होते हैं। सत्ताधारी दल के मामले में हर मंत्री को चुनावी चंदे का लक्ष्य दिया जाता है। वहीं हर विधायक व टिकट चाहने वालों को भी चुनावी चंदे में सहयोग करना होता है। इसके बाद प्रमुख उद्योगपति और व्यापारियों से चंदा उगाही की जाती है। इस उगाही के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सभी तरीके अपनाए जाते हैं। इसमें सत्ता का उपयोग भी किया जाता है।
रिकॉर्ड पेश करना अनिवार्य : हर पार्टी के लिए चुनावी चंदे का रिकॉर्ड पेश करना अनिवार्य किया गया है। पार्टियों को निर्वाचन आयोग को यह रिकार्ड देना होता है, इस कारण दानदाताओं को चंदे की रसीद भी दी जाती है। कई बार अप्रत्यक्ष तौर पर चंदा देने वाले बिना रसीद के सहयोग करते हैं। इसके अलावा पार्टियाँ चंदे के कूपन भी चलाती हैं। इसमें रसीद की बजाए जितना चंदा दिया गया है, उतनी राशि का कूपन दिया जाता है।
पार्टियाँ नहीं देतीं चंदे का रिकॉर्ड : निर्वाचन आयोग ने भले ही चंदे का रिकॉर्ड देना अनिवार्य किया हो, लेकिन अधिकतर पार्टियाँ रिकार्ड पेश नहीं करती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर 920 राजनीतिक दलों में से केवल 21 दलों ने चंदे का रिकॉर्ड पेश किया। रिकॉर्ड न देने वाली पार्टियों में राजद, बसपा, लोजश, झारखंड मुक्ति मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस सहित 899 पार्टियाँ शामिल हैं। इस पर जमकर बवाल भी हुआ, लेकिन पार्टियाँ फिर भी ना मानी।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार फटकारा : सुप्रीम कोर्ट कई बार चुनावी खर्च और चंदे को पारदर्शी बनाने के निर्देश दे चुकी है। वर्ष 1996 में केस के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में आने के लिए 1000 करोड़ खर्च कर देती हैं, लेकिन इस खर्च का हिसाब न तो कोई उनसे पूछता है और न कभी वे बताती हैं। इसलिए पार्टियों के पैसे के स्त्रोतों का खुलासा होना
कानून ही देता है बचने का रास्ता : पार्टियों को भले ही चंदे का हिसाब-किताब निर्वाचन आयोग को सौंपना अनिवार्य हो, लेकिन कानून खुद बचने का रास्ता देता है। पार्टियों व प्रत्याशियों पर चंदे के मामले में जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा-77 में लिखा है कि शुभचिंतकों की ओर से दी या खर्च की गई राशि चुनावी खर्च में शामिल नहीं होगी। इसी कानूनी गली से पार्टियों व प्रत्याशियों के पास बच निकलने के रास्ते खुल जाते हैं।
सूचना का अधिकार बना हथियार : चुनावी चंदे के मामले में सूचना का अधिकार बड़ा हथियार साबित हो रहा है। हाल ही में दिल्ली में सूचना के अधिकार के तहत एक व्यक्ति ने राजनीतिक पार्टियों के चंदे की सूची माँगी थी। इसी सूची में भाजपा का डाऊ केमिकल से चंदा लेना साबित हुआ, जिसके बाद बवाल हुआ। राजनीतिक पार्टियों के रिकॉर्ड पेश न करने से चुनावी चंदे का सच पर्दे में ही रह जाता है।
प्रमुख पार्टियों में चंदे की हलचल : सूत्रों की मानें तो इंवेस्टर मीट में आए करीब 123 उद्योगपतियों की सूची बनाई गई है, जो भाजपा को चुनावी चंदा दे सकते हैं। सत्ता व संगठन के आला पदाधिकारी इस चंदे के लिए अब माकूल व्यक्ति तलाश रहे हैं, जिसे उगाही की पूरी जिम्मेदारी सौंपी जा सके। वहीं दूसरी प्रमुख पार्टी के प्रदेश पदाधिकारी अभी केंद्र की ओर ही टकटकी लगाए हैं। इनका मानना है कि केंद्र से निर्देश आए फिर चंदे की स्थिति टटोली जाए।

कायदाही धाब्यावर - १०५५ पैकी केवळ १८ पक्षांनी दिला हिशेब

http://beta.esakal.com/2009/04/08083616/home-politician-donate-amount.html

चंदा उगाहने में भाजपा अव्वल

अहमदाबाद। केन्द्र में सरकार कौन बनाएगा, इसका फैसला तो होना बाकी है, लेकिन राजनीतिक चंदा उगाहने की बात की जाए तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कांग्रेस व अन्य दलों से खासी आगे है। वर्ष 2007-08 में भाजपा को मिले चंदे की राशि पहले दस स्थानों में शामिल नौ राजनीतिक दलों को मिलने वाली कुल राशि के दोगुने के बराबर है। वैसे, चंदे के लिहाज से कांग्रेस दूसरे स्थान पर है।

यह खुलासा ए।जे. किदवई मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेन्टर, जामिया मिलिया इस्लामिया के मीडिया छात्र अफरोज आलम साहिल को चुनाव आयोग से मिली जानकारी में हुआ है। मूलत: बेतिया चम्पारण के 21 वर्षीय साहिल ने राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट जगत व व्यक्तिगत स्तर पर मिलने वाले चंदे के बारे में जानकारी मांगी थी।

साहिल के अनुसार यह राजनीतिक दलों के वित्तीय संसाधनों के बारे में पारदर्शिता का प्रयास है। साथ ही सवाल उठता है कि आखिर जो लोग चंदा दे रहे हैं, वो इसका क्या फायदा उठा रहे हैं। साल 2007-08 के लिए देश के मात्र 18 राजनीतिक दलों ने ही चुनाव आयोग को चंदे का ब्यौरा दिया है, जबकि देश में सात राष्ट्रीय दल, 41 क्षेत्रीय दल व 949 गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल हैं।

साहिल ने बताया कि राजनीतिक दलों को चंदा देने वालों में खनन कम्पनियां, रीयल एस्टेट कम्पनियां, ट्रस्ट, कल्याण संगठनों से लेकर शिक्षा के मन्दिर यानी निजी विद्यालय भी शामिल हैं। यही नहीं चंदा लेने में ज्यादा गुरेज नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए भाजपा कभी भोपाल गैस कांड की दोषी कम्पनी की घोर विरोधी थी, लेकिन वर्ष 2006-07 में यूनियन कार्बाइड के नए मालिक डाओ कैमिकल्स से एक लाख रूपए चंदा लेने में परहेज नहीं किया गया। यह जरूर है कि भाजपा को नियमित चंदा देने वाले बहुत कम है अर्थात एक बार दे दिया तो दोबारा देना मुनासिब नहीं समझा जाता।

फॉर्म 24 ए में देनी होती है जानकारी
रिप्रेजेन्टेशन ऑफ पीपुल्स एक्ट 1951 में वर्ष 2003 में संशोधन के तहत नियम बनाया गया था कि सभी राजनीतिक दलों को धारा 29 (सी) की उपधारा -(1) के तहत फॉर्म 24 (ए) के माध्यम से चुनाव आयोग को यह जानकारी देनी होती है कि उन्हें हर वित्तीय वर्ष में किनसे और कितना चंदा मिला। इस नियम के तहत राजनीतिक दलों को बीस हजार रूपए से अधिक के चंदे की ही जानकारी देनी होती है। राजनीतिक दल निजी स्तर पर अंकेक्षण करा आयकर विभाग या आयोग को जानकारी देते हैं।

जानकारी देने की जरूरत ही नहीं समझी
भारतीय राजनीति के कद्दावर नेताओं में शुमार किए जाने वाले रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, करूणानिधि, शिबूसोरेन और चंदे के कारण चर्चाओं में रहने वाली बहुजन समाज पार्टी ने चंदे के बारे में चुनाव आयोग को जानकारी देने की जानकारी देने की जरूरत ही महसूस नहीं की।

मुकेश पाण्डे

http://www.patrika.com/news.aspx?id=157737



मंगलवार, 21 अप्रैल 2009



सोमवार, 20 अप्रैल 2009

फॉर्म 24-ए भरने वाले पार्टियों का विवरण:-

http://www.pravakta.com/?p=1383#respond

ज़रा एक नज़र इधर भी......

बिहार का खुब विकास हो रहा है। हर दिन नए-नए विकास योजनाओं का उदघोषनाएं हो रही हैं। विकास कार्यो के विज्ञापन अखबारों में खुब छप रहें हैं। हर दिन किसी न किसी काम का शिलान्यास हो रहा है। यानी हम कह सकते हैं कि बिहार अब तरक्की को लात मार रही है। इसके लिए बधाई के पात्र हैं हमारे सुशासन बाबू यानी नीतिश कुमार जी।
पर अफसोस..... नीतिश कुमार जी के बिहार में एक ऐसा भी वार्ड है, जहां विकास का कोई कार्य नहीं हुआ। य़े बातें मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि बिहार के पश्चिम चम्पारण ज़िले के बेतिया नगर परिषद के कार्यपालक पदाधिकारी महोदय लिखित रूप में कह रहे हैं।
दरअसल, पिछले वर्ष दिसम्बर में मैंने वार्ड नम्बर-18 के वार्ड पार्षद द्वारा अपने वार्ड में कराए गए विकास कार्यों को जानने हेतु सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन बेतिया नगर परिषद में डाला (इस आवेदन को डालने में मुझे काफी मेहनत व मुशक्कत करनी पङी थी। यहां तक कि राज्य सूचना आयोग को शिकायत भी करनी पङी। 20-25 दिनों के प्रयास के बाद मैं सफल हो पाया था। इस तरह यह आवेदन की अपनी एक अलग कहानी है। खैर छोङिए इन बातों को)
आवेदन के जवाब में बताया गया कि वार्ड पार्षद द्वारा विकास से संबंधित किसी प्रकार का कोई भी कार्य नहीं कराया गया है। खैर यह मामला 31 जनवरी 2008 का है।
मैंने पुनः 18 जून 2008 को बिहार के जानकारी नामक कॉल सेन्टर के माध्यम से एक आवेदन दर्ज कराई। कॉल सेन्टर की मेहरबानी से मेरा यह आवेदन नगर परिषद,बेतिया के बजाए नगर विकास एवं आवास विभाग,पटना को पहुंच गया। लेकिन मैं इसलिए संतुष्ट था कि नगर विकास एवं आवास विभाग आर.टी.आई. की धारा-6(3) का प्रयोग करते हुए मेरे इस आवेदन तो सही जगह पहुंचा देगी। और हुआ कुछ ऐसा ही..... मेरे आवेदन को ठीक 43 दिनों बाद यानी 31 जुलाई 2008 को बेतिया नगर परिषद के कार्यपालक पदाधिकारी सह लोक सूचना पदाधिकारी महोदय को भेज दिया गया।(हालांकि इसे यह काम अधिनियम के अनुसार सिर्फ 5 दिन के अन्दर करना था।) खैर बेतिया नगर परिषद के कार्यपालक पदाधिकारी ने मेरे इस आवेदन के साथ क्या किया,ये उपर वाला ही जाने। क्योंकि मेरे पास कहीं से कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई। वैसे मैंने 25 जुलाई को प्रथम अपील भी इसी कॉल सेन्टर के माध्यम से दायर कर दिया था। जब कोई फायदा नहीं हुआ तो 29 सितम्बर 2008 को द्वितीय अपील भी दायर की।
22 अक्टूबर को नगर विकास एवं आवास विभाग, पटना ने मुझे एक सूचना भेजी। ये सूचना अपने आप में काफी दिलचस्प है। इसके लिए नगर विकास एवं आवास विभाग, पटना की जितनी प्रशंसा की जाए,कम होगी। मैंने वार्ड नम्बर-18 के वार्ड पार्षद द्वारा अपने वार्ड में कराए गए विकास कार्यों की सूचना मांगी थी,पर इस विभाग की कृपा से वार्ड-15 जो अब वार्ड-19 है के पूर्व वार्ड पार्षद सुरैया साहाब के कार्यकाल में वार्ड में कराए गए 5 कार्यों की सूची मिल गई, वह भी आधी-अधूरी। वाह रे बिहार....... वाकई तरक्की को लात मार रही है बिहार। इधर द्वितीय अपील भी दायर किए तीन महीने पूरे हो चुके थे, अंतत: राज्य सूचना आयोग ने दिनांक 12 दिसम्बर 2008 को नगर विकास एवं विकास विभाग के लोक सूचना पदाधिकारी को एक पत्र निर्गत कर यह आदेश दिया कि 09 जनवरी 2009 तक यदि सूचना आवेदक को उपलब्ध न कराई गई तो 18.07.2008 के प्रभाव से 250/- रुपये प्रतिदिन की दर से आर्थिक दंड लगाया जाएगा।
आयोग के इसी आदेश का असर हुआ कि अंतत: मुझे आयोग के फैसले के मुतबिक 5 दिन की देरी से अर्थात दिनांक 13 जनवरी 2009 को नगर परिषद कार्यालय, बेतिया द्वारा सूचना प्राप्त हुआ। पर अफसोस यह सूचना भी गलत ही निकली, क्योंकि इस सूचना में वर्तमान वार्ड पार्षद के बजाए पूर्व वार्ड पार्षद की सूचनाए हैं, वह भी आधी-अधूरी.....
नीतिश जी! आप सिर्फ विकास के कागजी घोङे मत दौङाइए, ज़रा इन वार्ड पार्षद और सूचना के अधिकार के तहत बहाल जन सूचना अधिकारियों पर भी ध्यान दीजिए। और वैसे भी सिर्फ जुबानी जमा खर्च से पब्लिक अब बेवकूफ बनने वाली नहीं है।

A play with a difference!


By Joydeep Hazarika
Published April 18, 2009

On the evening of 15th April, in Delhi, the Friends group of Jamia Millia Islamia university performed a street play at the Delhi Haat. The play titled “Pyaar Kiya To Darna Kya?” (What is to fear when your are in love?) was based on the concept of homosexuality and gay rights. The group consisted of students of AJK Mass Communication Research Centre of Jamia Millia Islamia.

Watching the play was a welcome experience as it touched on a topic which is talked about behind closed doors. Homosexuality, though coming to the focus of various talks, is still a subject of great hush-hush. In this season of elections and IPL, watching a play on a different topic was surely refreshing. And it is solely to those students' credit that a controversial topic like homosexuality was shown to a whole public.

The play was all about showing the angst and isolation that the people of the gay community face. The play was presented on different levels which showed ostracisation from family and society and how it drives the victims to be driven to the point of extreme acts. Also worth mentioning were some sequences in the play where some really serious aspects of gay discrimination were shown. Be it the plight of a gay AIDS patient or the harassment of gay couples by the police, the ridicule society gives out to homosexuals or suicides committed by such people; every aspect was shown in a stark reality. And each time a question was raised. Why do they have to face this?

Afroz Alam Sahil, who was a part of the play, said that the message of the play is to make the voices of these people get heard. He further says that the play does not pass any judgement. It is more of a case study of actual incidents and shows the tribulations that the homosexuals have to undergo in our country.

At a time when gay pride parades are coming out and people are talking of scraping Article 377 which criminalises homosexuality in India, this play reminded us that there are issues which we simply cannot ignore. However gross people might find them, we have to sit back and notice them because they exist among us. And homosexuals are one such reality.
As far as reactions are concerned, the play did succeed in shocking the spectators with its bold theme. As the play progressed on, I could notice that people had shocked expressions on their faces. And there was pin drop silence throughout the play. But one thing was for sure. The play succeeded in conveying its message. And again talking of reactions, the play has evoked some reactions from the moral police as well. Activists of the Republican Party of India (RPI) staged a demonstration in front of AJK MCRC in Jamia on 16th April protesting against the staging of this play. This is just another instance when the so called moral police leaves no stone unturned in silencing those voices which raise such issues that are deemed unfit for a ‘sane’ society. On top of that, the Urdu daily, Humara Samaj, went on to publish an editorial condemning the staging of this play. They even criticised Jamia Millia Islamia for giving permission to go ahead with this play and also accused the university of damaging the image of the Islamic culture.

But the performers of the play are unfazed because they believe they have touched a legitimate topic. And it is this attitude that reminds us of the fact that democracy is all about expressing oneself inspite of all oppositions. Homosexuality is a tabooed topic in our country. And the staging of this play only signals that we are free to express ourselves in a democratic setup. And people will have to look up to such issues one day. Because it is a human issue after all.

http://www.upiu.com/articles/a-play-with-a-difference

Indian Muslims facing discrimination in housing: WP

Published: April 20, 2009
Muslim Bollywood director who is trying to promote religious harmony through his films and his Facebook site. “We shouldn’t be an India that ghettoises all Muslims to apartments near a mosque. This is a real test for modern India.”With national elections across India that began Thursday and last a month, correspondent Wax pointed out some Muslim activists and Bollywood film directors are raising the issue with political parties and trying to form a voting bloc.

“This election, we have to talk about housing discrimination against Muslims,” said Zulfi Sayed, a Muslim actor who is outspoken about the issue and is courting Hindus who agree with him. “In a shining India, this shouldn’t be still such a common practice.”In the days after November’s Mumbai attacks, Muslims, fearing attacks from Hindu mobs, held candlelight vigils with a message to protest terrorism and pledge loyalty to India, according to the dispatch.

Afroz Alam Sahil, 21, a student activist at Jamia Millia Islamia College in New Delhi, said that more than a dozen students from states such as Uttar Pradesh and Bihar - which have large Muslim populations - have been unable to find housing since the Mumbai attacks.“Some Muslim friends have dropped out of college because they have nowhere to stay,” Sahil was quoted as saying. “There is intense suspicion. Sometimes I ask myself why I was born Muslim.”Rana Afroz, a Muslim editor with the newspaper the Hindu, is investigating the issue after spending three months unable to find a landlord willing to rent to her and her husband.“It is ridiculous that I have to prove to non-Muslims that I am not making bombs in my kitchen,” she said. “Is this really the modern India I live in?”

Correspondent Wax wrote, “In India, Muslims are often segregated, and they experience high poverty rates and low literacy. Although they make up nearly 14pc of India’s population, they hold fewer than 5pc of government posts and are just 4pc of the student body in India’s elite universities, according to a 2006 government report.“But there are few issues more emotional than housing, especially in Mumbai ...

India’s pulsating city of dreams where aspiring farmers and filmmakers come from across the country to seek fame and fortune”.

http://www.nation.com.pk/pakistan-news-newspaper-daily-english-online/International/20-Apr-2009/Indian-Muslims-facing-discrimination-in-housing-WP/1

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

Muslims Find Bias Growing In Mumbai's Rental Market
Recent Increase Is Blamed On Terrorist Attacks Last Fall

By Emily Wax

Washington Post Foreign Service

Sunday, April 19, 2009

MUMBAI -- The sunny apartment had everything Palvisha Aslam, 22, a Bollywood producer, wanted: a spacious bedroom and a kitchen that overlooked a garden in a middle-class neighborhood that was a short commute to Film City, where many of India's Hindi movies are shot.


She was about to sign the lease when the real estate broker noticed her surname. He didn't realize that she was Muslim, he said. Then he rejected her. It was just six weeks after the November Mumbai terrorist attacks and Indian Muslims were being viewed with suspicion across the country. He then showed her a grimy one-room tenement in a Muslim-dominated ghetto. She felt sick to her stomach as she watched the residents fight over water at a leaky tap in a dark alley.


"That night I cried a lot. I was still an outcast in my own country -- even as a secular Muslim with a well-paid job in Bollywood," said Aslam, who had similar experiences with five other brokers and three months later is still crashing on friends' sofas. "I'm an Indian. I love my country. Is it a crime now to be a Muslim in Mumbai?"


In the months after the brazen three-day Mumbai terrorist attacks, stories like Aslam's are common, even among some of the country's most beloved Bollywood actors, screenwriters and producers in India's most cosmopolitan city. The accusations of discrimination highlight the often simmering religious tensions in the world's biggest democracy, where Muslim celebrities can be feted on the red carpet one minute and locked out of quality housing the next.

The phenomenon has become known here as "renting while Muslim." It raises questions that go to the heart of India's identity as a secular democracy that is home to nearly every major religion on the planet. Although India has a Hindu majority, it also has 150 million Muslims, one of the largest Islamic communities in the world.


"The new generation wants a better India that isn't bogged down in religious strife," said Junaid Memon, 34, a Muslim Bollywood director who is trying to promote religious harmony through his films and his Facebook site. "We shouldn't be an India that ghettoizes all Muslims to apartments near a mosque. This is a real test for modern India."


With national elections across India that began Thursday and last a month, some Muslim activists and Bollywood film directors are raising the issue with political parties and trying to form a voting bloc. "This election, we have to talk about housing discrimination against Muslims," said Zulfi Sayed, a Muslim actor who is outspoken about the issue and is courting Hindus who agree with him. "In a shining India, this shouldn't be still such a common practice."
Muslims have long served as an important swing vote in India since Hindus are increasingly divided among nearly 200 regional parties. Historically, India's Congress party won elections with the help of the Muslim vote by running on a platform of promoting religious diversity. The opposition Hindu nationalist Bharatiya Janata Party has, at times, used anti-Muslim sentiment to court votes while pledging to keep Hindu heritage alive.


India blames the Pakistan-based Islamist militant group Lashkar-i-Taiba for the November attack in which 10 gunmen left more than 170 people dead, including 40 Indian Muslims.
Many Muslims here feared the attacks would unleash cycles of revenge killing of the sort that has been a recurring theme of India's modern history, from the violence of partition between India and Pakistan in 1947 to the 1992 riots in Mumbai. In the days after November's Mumbai attacks, Muslims from all corners of society united, holding candlelight vigils with a message to protest terrorism and pledge loyalty to India. In the end, there was no communal violence.
But across the country, reports of housing discrimination have increased.


Afroz Alam Sahil, 21, a student activist at Jamia Millia Islamia College in New Delhi, said that more than a dozen students from states such as Uttar Pradesh and Bihar -- which have large Muslim populations -- have been unable to find housing since the Mumbai attacks.

"Some Muslim friends have dropped out of college because they have nowhere to stay," Sahil said. "There is intense suspicion. Sometimes I ask myself why I was born Muslim."


Rana Afroz, a Muslim editor with the newspaper the Hindu, is investigating the issue after spending three months unable to find a landlord willing to rent to her and her husband.
"It is a ridiculous that I have to prove to non-Muslims that I am not making bombs in my kitchen," she said. "Is this really the modern India I live in?"


In India, Muslims are often segregated, and they experience high poverty rates and low literacy. Although they make up nearly 14 percent of India's population, they hold fewer than 5 percent of government posts and are just 4 percent of the student body in India's elite universities, according to a 2006 government report.


But there are few issues more emotional than housing, especially in Mumbai, formerly known as Bombay, India's pulsating city of dreams where aspiring farmers and filmmakers come from across the country to seek fame and fortune.

"The ethos of Bombay is a city open to the world. The Muslims of this city feel that way, too. But the real question is why do we as Indian Muslims always have to be proving our loyalty?" asked Nawman Malik, a popular Bollywood producer who spent months searching for an apartment. "We have no problem with security screenings; in fact, we prefer it. But to reject us outright for our religion is harassment."

Mumbai has always had tensions over what are known here as "vegetarian buildings," where meat eaters are not allowed to live and are thus seen as devices to keep out Muslims and lower-caste Hindus. Those kinds of buildings have become more common in middle-class and posh neighborhoods as more merchants and industrialists from the neighboring state of Gujarat, where vegetarian Hinduism is the norm, migrate to India's richest city.


Vegetarian-building managers say they don't want the smell of meat in their hallways. But they often also explain their rules by saying they are worried about security and want like-minded residents to live together.

"Say you check one renter and they seem okay. But then they go to mosque and bring back their bearded friends and those friends are terrorists," said Raj Pathak, a vegetarian-building manager in downtown Mumbai. "Why do we have to live with such fears?"
Muslims, who have seen housing discrimination and the number of vegetarian buildings spike after every terrorist attack, see the issue as blatant discrimination.

"Everyone knows the vegetarian-only restriction is code language for 'No Muslims,' " said Naved Khan, a Muslim real estate broker who is trying to help Bollywood's Muslims find housing.
Muslim technicians, editors, cinematographers and writers are the backbone of the film industry. Many of the country's top film stars are also Muslim, including mega Hindi hero Shahrukh Khan, known as King Khan. On a recent afternoon, Aslam, the producer, hung out at a cafe, as she sometimes does so she doesn't get on the nerves of those she is staying with. She wore jeans and a hooded sweat shirt. Her khaki side bag was festooned with countercultural buttons. Until January, she was living with a Hindu roommate. Then their lease ended. Her roommate was getting married.

"So I thought I would get my own place as a successful adult," said Aslam, who had come to Mumbai from Kolkata with dreams of landing a Bollywood job. "My mom was really proud of me. Now she's really upset."


A broker recently showed her a house in a working-class neighborhood. "It looked haunted. But I was denied even that," she said.


Another broker gave her advice: "Madam, live with a Hindu roommate. Only then will you get a flat."


Special correspondent Ria Sen in New Delhi contributed to this report.

http://www.washingtonpost.com/wp-dyn/content/article/2009/04/18/AR2009041800792.html

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

Elections: A Saga of Violence and Violations

The 15th General Elections are knocking on our doors। And again the world’s largest democracy is gearing up to witness this political spectacle। Numerous campaigns are being carried out to urge the people to vote. And what is more interesting is that this time a huge chunk of the voters will be youngsters. And already our politicians have started to give us a good time with their political circus of myriad coalitions for the polls. But what is most noticeable is the trend where political parties openly violate election commission rules and give us rounds of violence in every election.


We have noticed it in earlier elections, and it has already started in these elections as well. The first reports of violence have appeared in the newspapers. This is a stark reminder of the fact that muscle power still dominates our electoral process. With the first phase of polling starting from 15th April, the show of violence has finally come out with the cases of two murders and one incident of violence.

On 13th April, Bahadur Sahab Sonkar, who was contesting the Jaunpur Assembly seat from the Indian Justice Party (IJP), was found dead with his body hanging from a tree। His supporters have raised a hue and cry calling it a murder, while the post-mortem report states it as a case of suicide। But inspite of it, the Election Commission has still decided to go ahead with the pollings. On the same day, Congress MLA Makhanlal Jatav was murdered in cold blood while returning from campaign in his Bhind constituency. Both these incidents took place in Uttar Pradesh, which once again highlights the high level of lawlessness prevalent there. Again on the same day, in the Godda seat of Jharkhand, the Bharatiya Janata Party (BJP) candidate Nishikant Dubey was attacked by supporters of the opposition party.

These incidents are such which are not something new during elections in our country. Incidents of violence and breaking of Election Commission rules are something which political parties commit with great vigour. If we look incidents in the past, then we find out that the Election Commission has been totally inept in handling political parties for violation of rules.

If we look in the last Assembly Elections held in 2007, we find that one of the most infamous scandals was the CD scandal committed by the BJP in Uttar Pradesh। And a reply to an RTI has brought in more discredit to the Election Commission in handling discipline among political parties. Afroz Alam Sahil, an RTI activist, had filed an RTI seeking information on the CD scandal from the Election Commission. The reply stated that the Commission had received 19 complaints against the Party. The nature and the gravity of the offence committed by the BJP have also been mentioned very clearly as per the Indian Constitution. The Commission had directed the CEO of Uttar Pradesh to file the same number of FIRs against the State BJP President Mr. Lalji Tandon and his associates for the production of the CDs. But even today the information on the Police enquiry is awaited by the Commission. This clearly shows the real level of importance given to the Election Commission by government institution like the Police Force.


This single incident shows the inability of the Election Commission in handling serious cases of indiscipline during elections. Glorifying the gory acts of the Godhra carnage and using them as acts of rhetoric is a serious offence as it spreads communalism among the general masses. The use of communalistic propaganda is something which has been used particularly by communal parties like the BJP. Even in the recent case of Varun Gandhi’s hate speech, we see how a communal feeling has been stirred to gain on the Hindu vote bank. And here again, the inability of the Election Commission to handle the situation properly has come out. And Varun Gandhi has now emerged as the new hero of Hindutva.

So, violation of rules and incidents of violence are something which have become synonymous with elections। And we can only speculate how many more incidents of violations and violence we have to see in this General Election. And all this because our Election Commission has turned out to be a toothless organisation in dealing with these offending parties.

Joydeep Hazarika

चंदे के लिहाज से कांग्रेस दूसरे स्थान पर

केन्द्र में सरकार कौन बनाएगा, इसका फैसला तो होना बाकी है, लेकिन राजनीतिक चंदा उगाहने की बात की जाए तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कांग्रेस व अन्य दलों से खासी आगे है। वर्ष 2007-08 में भाजपा को मिले चंदे की राशि पहले दस स्थानों में शामिल नौ राजनीतिक दलों को मिलने वाली कुल राशि के दोगुने के बराबर है। वैसे, चंदे के लिहाज से कांग्रेस दूसरे स्थान पर है।

यह खुलासा ए।जे। किदवई मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेन्टर, जामिया मिलिया इस्लामिया के मीडिया छात्र अफरोज आलम साहिल को चुनाव आयोग से मिली जानकारी में हुआ है। मूलत: बेतिया चम्पारण के 21 वर्षीय साहिल ने राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट जगत व व्यक्तिगत स्तर पर मिलने वाले चंदे के बारे में जानकारी मांगी थी। साहिल के अनुसार यह राजनीतिक दलों के वित्तीय संसाधनों के बारे में पारदर्शिता का प्रयास है। साथ ही सवाल उठता है कि आखिर जो लोग चंदा दे रहे हैं, वो इसका क्या फायदा उठा रहे हैं। साल 2007-08 के लिए देश के मात्र 18 राजनीतिक दलों ने ही चुनाव आयोग को चंदे का ब्यौरा दिया है, जबकि देश में सात राष्ट्रीय दल, 41 क्षेत्रीय दल व 949 गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल हैं।साहिल ने बताया कि राजनीतिक दलों को चंदा देने वालों में खनन कम्पनियां, रीयल एस्टेट कम्पनियां, ट्रस्ट, कल्याण संगठनों से लेकर शिक्षा के मन्दिर यानी निजी विद्यालय भी शामिल हैं। यही नहीं चंदा लेने में ज्यादा गुरेज नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए भाजपा कभी भोपाल गैस कांड की दोषी कम्पनी की घोर विरोधी थी, लेकिन वर्ष 2006-07 में यूनियन कार्बाइड के नए मालिक डाओ कैमिकल्स से एक लाख रूपए चंदा लेने में परहेज नहीं किया गया। यह जरूर है कि भाजपा को नियमित चंदा देने वाले बहुत कम है अर्थात एक बार दे दिया तो दोबारा देना मुनासिब नहीं समझा जाता। रिप्रेजेन्टेशन ऑफ पीपुल्स एक्ट 1951 में वर्ष 2003 में संशोधन के तहत नियम बनाया गया था कि सभी राजनीतिक दलों को धारा 29 (सी) की उपधारा -(1) के तहत फॉर्म 24 (ए) के माध्यम से चुनाव आयोग को यह जानकारी देनी होती है कि उन्हें हर वित्तीय वर्ष में किनसे और कितना चंदा मिला। इस नियम के तहत राजनीतिक दलों को बीस हजार रूपए से अधिक के चंदे की ही जानकारी देनी होती है। राजनीतिक दल निजी स्तर पर अंकेक्षण करा आयकर विभाग या आयोग को जानकारी देते हैं। भारतीय राजनीति के कद्दावर नेताओं में शुमार किए जाने वाले रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, करूणानिधि, शिबूसोरेन और चंदे के कारण चर्चाओं में रहने वाली बहुजन समाज पार्टी ने चंदे के बारे में चुनाव आयोग को जानकारी देने की जानकारी देने की जरूरत ही महसूस नहीं की।

http://rajnitisamachar.blogspot.com/2009/04/blog-post_4407.html

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

जारी है चुनावी आचार संहिता उल्लंघन का दौर…


मशहूर उपन्यासकार जार्ज बर्नाड शॉ ने ठीक ही कहा था “चुनाव एक नैतिक सदमा है, इससे जुड़े हर किसी के लिए कीचड़ में सनना लाज़िमी है।” आज यही स्थिति हमारे आंखों के सामने मौजूद है, क्योंकि भारत में इन दिनों लोकसभा चुनावों का मौसम है। सारे नेता एक-दूसरे को बड़े प्यार से कीचड़ से नहला रहे हैं। एक दूसरे नेताओं के वक्तव्यों पर राजनीति हो रही है, मुद्दे उछाले जा रहे हैं, उपलब्धियाँ गिनाई जा रही हैं, वोट मांगे जा रहे हैं। और इन सब के बीच जारी है चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन का दौर…


सच पूछे तो आचार संहिता का उल्लंघन सारे राजनीतिक दलों के लिए एक मज़ाक बन कर रह गया है। आयोग भी असहाय है। और वैसे भी नियम कानून बनते ही हैं तोड़ने के लिए…

हालांकि पिछले दस वर्षों में भारत में चुनाव लड़ने के तौर-तरीक़ों में काफ़ी अंतर नज़र आ रहा है, चुनाव आयोग उम्मीदवारों और पार्टियों के ख़र्च पर कड़ी नज़र रख रहा है। चुनाव आचार संहिता को भी सख़्ती से लागू कराने की कोशिश की जा रही है, पर निर्वाचन आयोग इस कार्य में बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं है।
हर दिन कहीं न कहीं आचार संहिता उल्लंघन के मामले सामने आ रहे हैं। इस वर्ष देश में आचार संहिता उल्लंघन के कितने मामले दर्ज हुए हैं, इसका सही आंकड़ा तो नहीं बताया जा सकता है। पर वर्ष 2004 के 14 वीं लोक-सभा चुनाव में निर्वाचन आयोग में आचार संहिता उल्लंघन के कितने मामले दर्ज हुए॥? साथ ही आयोग ने इन मामलों में क्या कार्रवाई किया है, यह जानना भी दिलचस्प होगा। बहरहाल, इसका आंकड़ा हमारे सामने है। यह आंकड़े सूचना के अधिकार कानून द्वारा प्राप्त हुए हैं।


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-अफोज आलम साहिल

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

निमंत्रण....

क्या कभी आपने प्यार किया है.....?
क्या कभी आपने किसी को दिल दिया है....?
अगर हाँ! तो फ़िर आपका स्वागत है, क्योंकि ए जे के एमसीआरसी का फ्रेंड ग्रुप्स आपको दिखाएगा ''प्यार किया तो डरना क्या नामक एक नुक्कड़ नाटक। जो कल यानि १५ अप्रैल को होने वाला है दिल्ली हाट में। समय है शाम के ६:३० बजे।
तो आप आना मत भूलियेगा..... हम आपका इंतज़ार करेंगे।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009



चंदे की जानकारी देने से कतरा रहे हैं कई दल...

हिमांशु शेखर / नई दिल्ली April 13, 2009

साल 2007-08 के लिए देश की महज 18 पार्टियों ने ही चुनाव आयोग को अपने चंदे का ब्योरा दिया है जबकि देश में 7 राष्ट्रीय दल, 41 क्षेत्रीय दल और 949 गैरमान्यता प्राप्त दल हैं।
यह जानकारी खुद चुनाव आयोग ने सूचना का अधिकार (आरटीआई)कानून के तहत एक कार्यकर्ता को दी है। आरटीआई कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि देश में केवल 18 राजनीतिक दलों ने ही चुनाव आयोग के पास फॉर्म 24 ए भरकर जमा कराया है। इसी फॉर्म में चंदे की जानकारी दी जाती है।
यह फॉर्म भरकर जमा नहीं कराने वाले दलों में राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, बीजू जनता दल, शिरोमणि अकाली दल, बहुजन समाज पार्टी, डीएमके, पीएमके, जनता दल एस, टीआरएस, नेशनल कॉन्फ्रेंस, फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी और राष्ट्रीय लोकदल प्रमुख हैं।
2007-08 के दौरान सिर्फ भाजपा, कांग्रेस, जदयू, सपा, माकपा, भाकपा, अन्नाद्रमुक, तेलुगू देशम पार्टी, असम यूनाइटेड डेमाक्रेटिक फ्रंट, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, शिवसेना, राष्ट्रीय विकास पार्टी, सत्य विजय पार्टी, थर्ड व्यू पार्टी, जागो पार्टी, एडीएसएमके, हरियाणा स्वतंत्र पार्टी और लोकसत्ता पार्टी ने ही फॉर्म 24 (ए) भरा है।
चुनाव आयोग के मुताबिक 2007-08 में सबसे ज्यादा चंदा भाजपा को मिला। इस दौरान पार्टी को 24.96 करोड़ रुपये सियासी चंदे के तौर पर मिले। उसी साल कांग्रेस को 7.89 करोड़ रुपये का चंदा प्राप्त हुआ। वहीं लोकसत्ता पार्टी को 3.42 करोड़ रुपये और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 1.02 करोड़ रुपये चंदे के तौर पर मिले।
वामपंथी पार्टियों में माकपा को 72.26 लाख रुपये और भाकपा को 41.25 लाख रुपये मिले। वहीं तेलुगू देशम पार्टी के दानदाताओं ने पार्टी को 61.89 लाख रुपये दिए। शिव सेना को 43 लाख रुपये का राजनीतिक चंदा मिला। बिहार में राज करने वाली जनता दल यू को इस दौरान 21 लाख रुपये का चंदा मिला।
अन्नाद्रमुक ने सिर्फ 1.08 लाख रुपये ही सियासी चंदे के तौर पर मिलने की जानकारी दी है। साहिल ने बताया कि 2006-07 की तुलना में 2007-08 में कांग्रेस को छोड़कर ज्यादातर राजनीतिक दलों को अधिक चंदा मिला। 2006-07 में भाजपा को 2.95 करोड़ रुपये चंदे के तौर पर मिला था।
भाकपा को 12.69 लाख रुपये और माकपा को 11.24 लाख रुपये का चंदा मिला था। तेलुगू देशम पार्टी को 18.25 लाख रुपये और लोकसत्ता पार्टी को 80.40 लाख रुपये का सियासी चंदा प्राप्त हुआ था। कांग्रेस को इस दौरान जो 12. 07 करोड़ रुपये का सियासी चंदा मिला था, वह 2007-08 के मुकाबले कम है।
इस बार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, जागो पार्टी, राष्ट्रीय विकास पार्टी, थर्ड व्यू पार्टी और हरियाणा स्वतंत्र पार्टी ने पहली बार अपने चंदे का ब्योरा चुनाव आयोग को दिया है। जबकि 2006-07 के दौरान चंदे का ब्योरा देने वाले एमडीएमके, मातृ भक्ता पार्टी, भारतीय महाशक्ति मोर्चा, और जनमंगल पक्ष ने इस मर्तबा फार्म 24 ए भरकर नहीं जमा किया है।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

पैसा बोलता है.....

राजनीति और धनबल एक-दूसर के पर्याय बन चुके हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि पार्टियां जमकर चंदा उगाहती हैं और फिर चुनावी फायदे के लिए इसे दोनों हाथों लुटाती हैं। यह जानना तो मुश्किल है कि चंदा देने वाले संगठनों या कारोबारी समूहों ने बदले दलों से क्या फायदा उठाया पर सूचना अधिकार के कानून ने पार्टियों के बही-खातों की ताकझांक के जरिये जनसेवकों के असली चेहर सामने लाना मुमकिन बना दिया है। अफ़रोज़ आलम साहिल की रिपोर्ट

हमारे देश में जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं, उन्हें अपना जनसेवा और राजनीति का कारोबार चलाने के लिए पैसा चाहिए। और पैसा भी खूब चाहिए। जलसा, सम्मेलन, चुनाव और प्रचार में उड़ते विमान-हेलीकॉप्टर, धरना, प्रदर्शन, रैली हर चीज पैसे से ही चलती है। इसके लिए ये पैसा चाहे जहां से मिले, बस मिले। यह कहां से आता है। कौन देता है। इससे पार्टी को कोई मतलब नहीं। और वैसे भी पैसे की न कोई पार्टी होती है न विचारधारा। पैस के मामले में किसी को किसी से कोई भेदभाव, परहेज नहीं। पार्टियां हाथ फैलाए खड़ी हैं और देने वाला खुशी-खुशी दिए जा रहा है। आखिर ये दानी कौन है। इस बात से जनता वाकिफ नहीं है। पर सूचना क्रांति के इस युग में वर्तमान भारत सरकार ने शायद गलती से ही सही जनता के हाथों में सूचना के अधिकार के रूप में एक ऐसा हथियार मुहैया करा दिया जो बही-खातों और फाइलों के बीच के घपलों को जनता के बीच लाकर इन तथाकथित जन-सवकों की असलियत जनता के सामने रखने लगी है।
निर्वाचन आयोग से मिली जानकारी के मुताबिक सात राष्ट्रीय पार्टियों, 41 क्षेत्रीय पार्टियों और 949 गैरमान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों में से सिर्फ 18 पार्टियों ने 2007-08 में फॉर्म 24-ए भरा है। जबकि वर्ष 2004 से लेकर 2007 तक फॉर्म 24-ए भरने वालों की संख्या 16 रही है। यही नहीं जिन पार्टियों ने फॉर्म 24-ए भरा है, उनके दानदाताओं की सूची भी काफी चौंकाने वाली है। कई माइनिंग कंपनियां, प्रापर्टी-रियल एस्टेट कंपनियां, ट्रस्ट, रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशंस, निर्यातक व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ शिक्षा के मंदिर कहे जाने वाले प्राइवेट स्कूल व शैक्षणिक संस्थान भी दानदाताओं की सूची में शामिल हैं। राजनीतिक पार्टियों के दानदाताओं की सूची कई सवाल खड़े करती हैं। इस सूची में देखा गया कि कई औद्योगिक घराने और व्यापारिक प्रतिष्ठान व समूह जैसे आदित्य बिड़ला समूह से संबंधित जनरल इलेक्टोरल ट्रस्ट, वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज लिमिटेड, गोवा की डेम्पो इंडस्ट्रीज वीएस डेम्पो, डेम्पो माइनिंग, सेसा गोवा, वीएम सालगांवकर एंड ब्रदर्स आदि ने भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों को चंदा दिया है। पार्टियों को मिले चंदे पर नजर डालें ता कुछ पार्टी ता करोड़ों रुपये लेकर काम करती नजर आती हैं लेकिन कुछ दल ऐसे हैं जिनको मिले चंदे की ओर नजर डालें और फिर उनके खर्चों पर तो लगता है कि मामला आमदनी अठन्नी, खर्चा रूपइया जैसा है।
मसलन, सपा को 2007-08 के दौरान केवल 11 लाख रुपये मिले, इन्हें चंदा देने वाल केवल तीन लोग हैं जिनमें से दो संस्थाएं हैं। एआईएडीएमके को इस वित्तीय वर्ष में केवल 1.08 लाख चंदा मिला है। जनता दल (यू) भी सिर्फ एक ही व्यक्ति की कृपा पर चल रहा है। इस वित्तीय वर्ष में पार्टी को सिर्फ 21 लाख मिले हैं और यह दान वसंतकुंज, नई दिल्ली के रवेन्द्रण एम. नायर ने दिया है। शरद पवार की एनसीपी भी तीन लोगों के रहमा-करम पर चल रही है। वीडियोकॉन ने पार्टी को एक करोड़ दिया है, तो गिरीष गांधी ने दो लाख तथा शार्पमाइंड मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड ने 25 हजार। कांग्रेस, सीपीएम, भाजपा, सपा जैसे बड़े-बड़े दलों को उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों से नाममात्र चंदा मिला है जबकि कांग्रेस और भाजपा को गोवा जैसे छोटे से राज्य से पर्याप्त पैसा मिला है। और तो और, गोवा के अधिकतर दानदाता ऐसे हैं जो दोनों ही दलों को मोटा चंदा देते रहे हैं। ये दानदाता बिल्डिंग, कंस्ट्रक्शन और खनन से जुड़ी हुई संस्थाएं हैं। शिवसेना को भी चंदा देने वाले अधिकतर लाेग बिल्डर या बड़े व्यावसायिक उपक्रम चलाने वाले लोग हैं। भारतीय जनता पार्टी ‘पार्टी विथ द डिफरंस’ का नारा देती रही है। लकिन जब ‘सूचना के अधिकार अधिनियम के माध्यम से पार्टियों के दानदाताओं की सूची से राज खुला तो ‘पार्टी विथ द डिफरंस’ की भी पोल खुल कर रह गई। विचारधारा और नीतियों की पार्टी अर्थात भारतीय जनता पार्टी कभी भोपाल गैस कांड की दोषी कम्पनी की घोर विरोधी थी, पर लगता है अब विरोध खत्म हो चुका है। इसलिए उसने यूनियन कार्बाइड के नए मालिक ‘डाआ केमिकल्स’ से भी वर्ष 2006-07 में एक लाख रुपया चंदा लेने में कोई परहेज नहीं किया। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस दूध की धुली है। सच्चाई तो यह है कि ‘हमाम’ में सभी नंगे हैं, क्या कांग्रेस और क्या भाजपा? बात अगर कांग्रेस की करें तो पार्टी से जुड़े लोग दिल खोल कर चंदा देते हैं और खूब देते हैं। खुद सोनिया गांधी ने दो वर्षों में 67467 रुपये और डॉ. मनमोहन सिंह ने 50 हजार रुपये चंदा दिए हैं। इसके अलावा पिछले वर्ष इनके दानदाताओं में पब्लिक स्कूलों की भी अच्छी खासी तादाद है।
वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज लिमिटेड द्वारा वर्ष 2007-08 में 2 करोड़ और पिछले वर्ष एक ही दिन 50-50 लाख के छह अलग-अलग चेक देना, आदित्य बिड़ला समूह का वर्ष 2007-08 में 25 लाख एवं पिछले वर्ष 10 करोड़ तथा वीडियोकॉन द्वारा वर्ष 2007-08 में भारतीय जनता पार्टी को 2 करोड़ 50 लाख का चंदा दिया जाना कुछ सवाल तो खड़े करता ही है। उद्योगपति, व्यवसायी व बिल्डर माफिया तो इन राजनैतिक पार्टियां को परंपरा के मुताबिक हमेशा से चंदा देते आए हैं, पर अब अकीक एजुकेशन सेन्टर का सच हमारे सामने है, जहां न कोई शिक्षा है और न ही शिक्षा देने वाला काेई शिक्षक और न ही उसकी हालत चंदा देने लायक है। ये तो एक साधारण सा घर है। पर इसने भाजपा को एक ही बार में नौ चेकों की मदद से 75 लाख रुपये दे डाले। इसके पिछले वर्ष भी यह 66 लाख रुपये चंदा भाजपा को दे चुकी है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा के नियमित दानदाता बहुत कम हैं। अर्थात जो एक बार दे दिया दोबारा देना मुनासिब नहीं समझता। यदि कभी सच सामने आ सके तो यह जानना दिलचस्प हाेगा कि जिस-जिस साल में जाे बड़ा व्यापारी चंदा देता है, वह उस साल क्या फायदा हासिल करता है?
क्या है कानून: जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में 2003 में किए गए संशोधन के बाद धारा 29 (सी) की उपधारा (1) के तहत सभी दलों के लिए हर वित्तीय वर्ष में फॉर्म 24 (ए) भरना अनिवार्य है। इसमें राजनीतिक दलों को यह बताना होता है कि उन्होंने पूर साल के दौरान कहां-कहां से और कितना चंदा हासिल किया है। हालांकि इस नियम के तहत 20 हजार से ज्यादा चंदा राशि का ही ब्योरा देना होता है।
किसने दिखाया खाता: भाजपा, कांग्रेस, भाकपा, माकपा, एनसीपी, एडीएमके, सपा, जद (यू), टीडीपी, एमडीएमके, शिवसेना, असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट, मातृभक्त पार्टी, राष्ट्रीय विकास पार्टी, भारतीय विकास पार्टी, मानव जागृति मंच, भारतीय महाशक्ति मोर्चा, समाजवादी युवा दल, सत्य विजय पार्टी, जनमंगल पक्ष, लोकसत्ता पार्टी, थर्ड व्यू पार्टी ने बताया कितना मिला चंदा।
किसने दिखाया अंगूठा: राजद, बसपा, बीजद, शिरोमणि अकाली दल, पीएमके, झामुमो, डीएमके, लोजपा, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लाक, जनता दल (एस) राष्ट्रीय लोकदल, आरएसपी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, नेशनल कांफ्रेंस, केरल कांग्रेस, ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल, मुसलमीन, तृणमूल कांग्रेस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, मिजो नेशनल फ्रंट, नगालैंड पीपुल्स फ्रंट, आरपीआई जैसे दलों ने चुनाव आयोग को नहीं भेजा फॉर्म 24 (ए)।