बुधवार, 31 मार्च 2010

Custodial deaths: Maharashtra tops, Gujarat sees rapid growth after 2002

By Mumtaz Alam Falahi, TwoCircles.net,

New Delhi: Maharashtra tops all states in India in the cases of police custody deaths while Uttar Pradesh is at No. 2 followed by Gujarat – the BJP-ruled state has witnessed rapid growth custodial deaths since 2002, the year of Godhra train burning and pogrom. Since October 1993, the National Human Rights Commission has registered 2318 cases of police custody deaths from across the country. Almost all the cases were registered at complaints of higher district police or civil authority.

Of 2318 cases of custodial deaths in the last 16 years Maharashtra has 316 cases. Others among the top five are Uttar Pradesh (255), Gujarat (190), Bihar (184) and West Bengal (164).



As for Muslims as victims in these cases, Maharashtra has 27 cases, UP 27 Gujarat 29 Bihar 14 and West Bengal 36.

NHRC provided this information to RTI activist Afroz Alam Sahil when he asked in a petition about the custodial deaths since October 1993.

It is interesting to note that of 190 cases of custodial deaths reported from Gujarat in the last 16 years (October 1993-October 2009), 163 cases were registered from 2002 onward. Also, of 29 cases involving Muslims as victims, 19 are from 2002 onward. See the table.

State

Custodial
deaths

Cases of
Muslims as victims

Andhra Pradesh

160

5

Arunachal Pradesh

6

0

Assam

158

35

Bihar

184

14

Goa

8

1

Gujarat

190

29

Haryana

60

2

Himachal Pradesh

9

0

J&K

12

4

Karnataka

99

11

Kerala

62

7

Madhya Pradesh

102

4

Maharashtra

316

27

Manipur

9

0

Meghalaya

23

1

Mizoram

1

0

Nagaland

7

0

Orissa

40

0

Punjab

114

1

Rajasthan

73

4

Tamil Nadu

134

5

Tripura

12

0

Uttar Pradesh

255

27

West Bengal

164

36

Andaman & Nic

1

0

Chandigarh

4

0

Dadar & N H

1

0

Delhi

73

11

Lakshadeep

1

0

Poducherry

5

0

Chhattisgarh

35

1

Jharkhand

35

6

Uttarakhand

16

2

In fake police encounter cases in the last 16 years, Uttar Pradesh is on top 716 fake encounter cases registered at National Human Rights Commission. No other state in the country has entered three-digit figure. While at No. 2 in fake encounter cases, Bihar with 184 custodial deaths is at No. 4.

The 51-page document detailing fake encounter cases registered at NHRC between October 1993 and October 2009 was also accessed by RTI activist Afroz who recently hit headlines after he secured post-mortem report of Batla House encounter victims.

See the table of fake encounters.

State

Fake
encounters

Cases of
Muslims as victims

Andhra Pradesh

73

2

Assam

11

0

Bihar

79

4

Gujarat

20

12

Haryana

18

3

J&K

18

9

Karnataka

10

3

Madhya Pradesh

36

5

Maharashtra

61

16

Manipur

18

3

Orissa

3

0

Punjab

31

0

Rajasthan

11

1

Tamil Nadu

24

0

Tripura

4

0

Uttar Pradesh

716

131

West Bengal

8

0

Andaman & Nic

1

0

Delhi

22

8

Chhattisgarh

6

1

Jharkhand

21

5

Uttarakhand

29

9

मंगलवार, 30 मार्च 2010

विज्ञापन बाबा की जय...


हाल में विकास की जो तस्वीर मीडिया ने बिहार व देश की जनता के सामने पेश की है, वो बिल्कुल सच नहीं है। दरअसल, नीतीश सरकार ने बिहार के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों की आर्थिक नस दबा रखी है। इसके लिए सरकारी विज्ञापनों को जरिया बनाया है। क्योंकि राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह बताते हैं कि वर्तमान राज्य सरकार का काम पर कम और विज्ञापन पर ज़्यादा ध्यान रहा है। बिहार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा वर्ष 2005-10 के दौरान 28 फरवरी 2010 तक यानी नीतिश के कार्यकाल के चार सालों में लगभग 38 हज़ार अलग-अलग कार्यों के विज्ञापन जारी किए गए और इस कार्य के लिए विभाग ने 64.48 करोड़ रुपये खर्च कर दिए, जबकि लालू-राबड़ी सरकार अपने कार्यकाल के 6 सालों में सिर्फ 23.90 करोड़ ही खर्च किए थे।

सूचना के अधिकार के ज़रिए सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग से मिले जानकारी बताती है कि वर्ष 2009-10 में 28 फरवरी 2010 तक 19,66,11,694 रूपये का विज्ञापन इस विभाग के द्वारा जारी किए गए हैं, जिसमें 18,28,22,183 रूपये प्रिन्ट मीडिया पर और 1,37,89,511 रूपये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर खर्च हुआ है।

जानकारी यह भी बताती है कि नीतिश सरकार के चार वर्ष पूरे होने पर एक ही दिन 1,15,44,045 रूपये का विज्ञापन 24 समाचार पत्रों को जारी किया गया है, जिसकी सूची आप नीचे देख सकते हैं।

1. हिन्दुस्तान (पटना+भागलपुर+मुजफ्फरपुर+दिल्ली)— (9 पृष्ठों का विज्ञापन)— 37,09,162 रूपये

2. दैनिक जागरण (पटना+भागलपुर+मुजफ्फरपुर+दिल्ली)— (9 पृष्ठों का विज्ञापन)— 27,89,835 रूपये

3. आज, पटना— (5 पृष्ठों का विज्ञापन)— 3,66,546 रूपये

4. प्रभात खबर, पटना— (9 पृष्ठों का विज्ञापन)— 3,89,622 रूपये

5. राष्ट्रीय सहारा, पटना— (5 पृष्ठों का विज्ञापन)— 1,52,132 रूपये

6. टाईम्स ऑफ इंडिया, पटना— (5 पृष्ठों का विज्ञापन)— 1,80,850 रूपये

7. हिन्दुस्तान टाईम्स, दिल्ली— (3 पृष्ठों का विज्ञापन)— 15,80,640 रूपये

8. इंडियन एक्सप्रेस, दिल्ली— (3 पृष्ठों का विज्ञापन)— 1,15,784 रूपये

9. दैनिक भास्कर, भोपाल— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 1,30,486 रूपये

10. सन्मार्ग, कोलकाता— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 63,916 रूपये

11. इकोनॉनिक्स टाईम्स, कोलकाता— (पांच पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,17,845 रूपये

12. पंजाब केसरी, दिल्ली— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 1,91,543 रूपये

13. बिजनेस स्टेण्डर्ड, दिल्ली— (दो पृष्ठों का विज्ञापन)— 50,643 रूपये

14. बिजनेस स्टेण्डर्ड, मुंबई— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 25,321 रूपये

15. प्रातः कमल, मुज़फ्फरपुर— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 38,595 रूपये

16. कौमी तंज़ीम, पटना— (सात पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,70,162 रूपये

17. फारूकी तंज़ीम, पटना— (सात पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,70,162 रूपये

18. पिन्दार, पटना— (सात पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,51,580 रूपये

19. संगम, पटना— (सात पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,70,162 रूपये

20. इन्कलाब-ए-जदीद, पटना— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 38,595 रूपये

21. प्यारी उर्दू, पटना— (दो पृष्ठों का विज्ञापन)— 71,880 रूपये

22. राजस्थान पत्रिका, जयपुर— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 1,86,642 रूपये

23. अमर उजाला— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 88,829 रूपये

24. रोजनामा राष्ट्रीय सहारा, उर्दू, पटना— (छह पृष्ठों का विज्ञापन)— 93,117 रूपये

तो ज़ाहिर है कि नीतिश के कार्यकाल में सबसे ज़्यादा फायदा यहां के मीडिया उधोग को हुई है। इसलिए वो विकास के पीछे के सच को जनता के सामने लाना मुनासिब नहीं समझते। इन्हें इस बात का डर है कि अगर इन सच्चाईयों पर से पर्दा उठा दिया तो सरकारी विज्ञापनों से हाथ धोना पड़ सकता है। (क्योंकि राज्य विज्ञापन नीति ( स्टेट एडवर्टिजमेंट पॉलिसी)- 2008 के तहत अगर किसी मीडिया संस्थान का काम राज्य हित में नहीं हैं तो उसे दिये जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं। उसे स्वीकृत सूची से किसी भी वक़्त बाहर किया जा सकता है।)