सोमवार, 29 मार्च 2010

क्लीन चिट वाली मुठभेड़ भी फ़र्ज़ी

अब्दुल वाहिद आज़ाद

बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए, दिल्ली से

<span title=बटला हाउस में मुठभेड़ के बाद कादृश्य (फ़ाइल फ़ोटो)" height="262" width="466">

सितंबर 2008 में बटला हाउस में हुई एक पुलिस मुठभेड़ में दो संदिग्ध चरमपंथी मारे गए थे.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों के अनुसार भारत में आए दिन होने वाला हर दूसरा पुलिस एनकाउंटरफ़र्ज़ी होता है. साथ ही बहुचर्चित बटला हाउस पुलिस मुठभेड़ भी फ़र्ज़ी थी.

19 सितंबर 2008 को दक्षिणी दिल्ली स्थित बटला हाउस में हुई एक पुलिस मुठभेड़ में दो संदिग्ध चरमपंथी सहितपुलिस इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा भी मारे गए थे.

मुठभेड़ के बाद ही स्थानीय लोगों और मानवाधिकार संगठनों ने इसे फ़र्ज़ी बताया था और पुलिस के दावों परसवाल उठाते रहे हैं और उनकी मांग है कि इस मुठभेड़ की न्यायिक जांच कराई जाए.

घटना के कुछ महीने बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने एनएचआरसी को इस मामले की जांच का आदेश दिया था, जिसकेबाद पिछले साल एनएचआरसी ने इस मामले में दिल्ली पुलिस को क्लीन चिट दे दी. इसके बाद दिल्ली हाई कोर्टऔर फिर सुप्रीम कोर्ट ने इस एनकाउंटर की न्यायिक जांच की मांग को ख़ारिज कर दिया था.

दिलचस्प बात यह है कि जहां एनएचआरसी इस मुठभेड़ के मामले में दिल्ली पुलिस को क्लिन चिट दे चुकी है वहींअपनी फ़र्ज़ी मुठभेड़ की सूची में बटला हाउस पुलिस मुठभेड़ का नाम दर्ज कर रखा है. ऐसे में बटला हाउस मुठभेड़पर सवाल उठना लाज़मी है.

न्यायिक जांच हो

एक बार एनएचआरसी दिल्ली पुलिस को क्लिन चिट देती और फिर उसे फ़र्ज़ी बताती है. इससे लगताहै कि एनएचआरसी की राय साफ़ नहीं है. इतने संवेदनशील मामले पर आयोग का ग़ैर ज़िम्मेदारारवैया भी साफ़ झलकता है. इसलिए हम चाहते हैं कि इसकी न्यायिक जांच कराई जाए.

मनीषा सेठी

इस मसले पर जामिया टीचर सॉलिडैरिटि ग्रुप की अध्यक्ष मनीषा सेठी कहती हैं, "एक बार एनएचआरसी दिल्लीपुलिस को क्लीन चिट देती और फिर उसे फ़र्ज़ी बताती है. इससे लगता है कि एनएचआरसी की राय साफ़ नहीं है. इतने संवेदनशील मामले पर आयोग का ग़ैर ज़िम्मेदारा रवैया भी साफ़ झलकता है. इसलिए हम चाहते हैं किइसकी न्यायिक जांच कराई जाए."

मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नौलखा का कहना है कि ये बात देखने वाली है कि एनएचआरसी किसी मुठभेड़ कोअगर फ़र्ज़ी नहीं मानता है तो उसका आधार क्या है.

उनका कहना है,"जब तक प्रत्येक एनकाउंटर की एफ़आईआर दर्ज नहीं होती और उसकी स्वतंत्र जांच नहीं कीजाती उस समय तक किसी मुठभेड़ का सही नहीं ठहराया जा सकता है."

इस मुद्दे पर हमने एनएचआरसी का पक्ष भी जानने का प्रयास किया लेकिन संपर्क नहीं हो सका.

सूचना के अधिकार क़ानून से जुड़े कार्यकर्ता अफ़रोज़ आलम साहिल को जो जानकारी एनएचआरसी ने दी है, उसके अनुसार अक्तूबर 1993 से अबतक देश भर में 2560 पुलिस मुठभेड़ की शिकायतें आयोग को मिली जिनमेंपुलिस एनकाउंटर फ़र्ज़ी साबित हुए. 1224

रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए अफ़रोज़ आलम साहिल कहते हैं कि इसका मतलब यह हुआ कि जिस पुलिस मुठभेड़की शिकायतें एनएचआरसी को की गई उनमें हर दूसरा एनकाउंटर पुलिस के ज़रिए की गई हत्या थी.

उत्तर प्रदेश अव्वल

एनएचआरसी के पिछले 16 साल के रिकॉर्ड के अनुसार उत्तर प्रदेश फ़र्ज़ी एनकाउंटर के मामले में देश में अव्वल हैऔर वहां इस अवधि में 716 फ़र्ज़ी पुलिस मुठभेड़ हुए.

दूसरे नंबर पर बिहार का स्थान आता है जहां इस दौरान 79 फ़र्ज़ी मुठभेड़ हुए, तीसरा स्थान आंध्र प्रदेश का है जहांहुई फ़र्ज़ी मुठभेड़ों की संख्या 73 है.

जहां तक पुलिस मुठभेड़ में मुसलमानों को निशाना बनाने का सवाल है उसमें संख्या के आधार उत्तर प्रदेश सबसेआगे है जबकि अनुपात के अनुसार गुजरात अव्वल है.

उत्तर प्रदेश के 716 फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में सौ से अधिक मामलों में मुसलमानों को निशाना बनाया गया. लेकिन गुजरातके आंकड़े चौंकाने वाले हैं जहां इस दौरान केवल 20 फ़र्ज़ी पुलिस एनकाउंटर हुए हैं जिनमें मारे जाने वाले आधे सेअधिक मुसलमान थे.

इसके अतिरिक्त जो जानकारी एनएचआरसी ने दी है उसके अनुसार पिछले 16 साल में सांप्रदायिक हिंसा याजातीय हिंसा की 432 शिकायतें आयोग में दर्ज हुईं.

पुलिस हिरासत में मारे जाने के 2320 मामले दर्ज हुए. जबकि महिलाओं के साथ अत्याचार के 4502 मामले दर्जहुए. उसी तरह आयोग के यहां दलित अत्याचार के 17 हज़ार 998 मामले दर्ज हुए.

एनएचआरसी ने उपर्युक्त सभी मामलों में केवल 224 में मानवाधिकार का उल्लंघन पाया जबकि 16 हज़ार 784 मामलों में उसने मानवाधिकार का उल्लघंन नहीं पाया.

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