बुधवार, 17 मार्च 2010

बीहड़ में सिनेमा...


बीहड़ कभी भी अपनी जगह नहीं बदलते पर बदल गए हैं बीहड़ों के रास्ते और उनकी उम्मीदें! उम्मीदों पर ग्रहण है तो आशाओ पर पानी की गहरी धार, जिसमेंसे बिना सहारे के निकलना बीहड़ों के खातिर चुनौती भी है और जरुरी भी। कभी बीहड़ो की ओर रुख किया तो उपेक्षा ही नज़र आई। डकैतों के खात्मे के बाद विकास के नाम पर अरबों रुपयें मिले पर विकास आज भी उनसे कोसों दूर है। लोगों का रहन-सहन आदिम युग का है। अपराधी यहीं पनपते हैं और भौगोलिक परिस्तीथिया उनका साथ देती है।
बीहड़ में दस्यु समस्या अभी भी मुह फैलाये खड़ी है। कभी पुलिस का आरोप तोकभी डकैतों की कारगुजारियो का दंश। शायद यही बीहड़ का दुर्भाग्य बनगया है। विकास की बातों पर गौर करें तो विकास में बीहड़ उपेक्षीत है।क्योंकि विकास का पैकज बुंदेलखंड के हिस्से में जाता है और विकास केदावे बीहंचल करके ही किया जाता रहा है। यहाँ के स्थानीय नेता भीबीहड़ो का रुख नहीं करना चाहते, लिहाजा उनको बीहड़ो का दर्द नहीं समझआता। बीहड़ के गावों के विकास की खातिर "खेत का पानी खेत में और गाँवका पानी तालाब में" साथ ही अनेक भूमि सुधार योजनाओ का लाभ महज उन्हीजगहों पर हुआ है जहाँ आला अधिकारियो का दौरा कराया जाना है, बाकि केकिसानो के हाथ खाली ही रहे हैं। बीहड़वासियों के बूढी आँखों मेंविकास के सपने तो पलते है पर हकीकत का रूप लेने से पहले ही कईयों आँखेंबंद हो चुकी हैं। उम्मीदों पर ग्रहण है तो भविष्य गर्त में नज़र आता है।विकास के ठेकेदार रसूख वाले बन बेठे हैं। जिनको विकास के नाम पर हर पांचसाल बाद वोट लेना है। उन्हें इस बात से कुछ लेना देना नहीं है कि विकास की जमीनी हकीकत क्या है ? कभी कोई बीहड़ो का रुख करता भी हैं तो बंजरोमें कटीली झाड़ियो के बीच फिर से खुद को न उलझने का जज्बा लेकर जाता है।कभी मौत का मंजर आये दिन अखबारों-खबरिया चैंनलो के लिए " चंबल घाटी औरखून " जैसे सीर्षको से पटी रहती थी। वस्तुतः वीहड़अंचल की भौगोलिकपरिस्तिथिया दस्यु समस्याओ के लिए ज्यादा जिम्मेदार रही हैं। डकैतों कीभूमि तो पहले भी चम्बल रहा है। बात करीब 1920 के आसपास की हैं जबब्रहमचारी डकैत ने डकैती छोडकर आज़ादी के समर में कूदा था, पर आज़ादी केइतिहास के समरगाथा से ब्रहमचारी डकैत गायब हैं। बीहड़ न सिर्फ विकास मेंबल्कि इतिहास में भी उपेक्षा झेलता आया है। आज बीहड़ की पहचान उसकी बदनामी से ही होती है। निर्भेय गुर्जर, फक्कड़, कुशमा, रज्जन, जगजीवन आदि ऐसे नाम रहे हैं जिन्होंने अपने दस्यु जीवन में बीहड़ों को अपने खौफ से उबरनेदिया वहीँ दस्यु सुन्दरी सीमा परिहार के भाग्य का निर्णय मुम्बईया फ़िल्मी बाजार तय नहीं कर सका। सवाल यह उठता है की जब विनाश मीडिया की ख़बरों में नजर आता है तो विकास क्यों उपेक्षित है. आज बीहड़ों का कसूर क्या है? क्या यूं ही इस पर बदनुमा दाग बरकरार रहेगा? या फिर सहयोग की खातिर हाँथ बढाने में कोई झिझक है। हमारा मानना है कि बीहड़ों का शानदार इतिहास दुनिया के सामने आये, न कि इसका बदनुमा अतीत। बीहड़ो में कुछ दर्द है कुछ शिकायत हैं कुछ अपनापन है तो कुछ पाने की हसरत भी इन बीहड़ो में छिपी है।

बीहड़ो की रवानी को दुनिया के सामने लाने कि हसरत ही फिल्म उत्सव (17 मार्च से 19 मार्च,2010) आयोजन का मकसद बनी। उम्मीदों से परे यह फिल्म उत्सव उन बीहड़ गावो में आयोजित हो रहा है जो दस्युओ से प्रभावित रहे हैं. इसके साथ ही मार्च में औरैया, इटावा, मालवा, अम्बेडकर नगर, मऊ में फिल्म उत्सव का आयोजन किया जा रहा है. जिसमे खासतौर से जन सरोकारों पर केन्द्रित युवा फिल्मकारों कि फिल्मो का प्रदर्शन , जारी एवं मंच प्रदान कर प्रोत्साहन देना है. "अवाम का सिनेमा " के माध्यम से आम जन संवाद कर मन की जिज्ञासा शांत कर सके। इसी क्रम में पुरे देश में फिल्म के बहाने युवा प्रतिरोध को स्वर दे सकेंगे, ऐसी उम्मीद दिखती है।

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