गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

पार्टियां क्या छिपाना चाहती हैं

सुधांशु रंजन

सूचना के अधिकार को असरदार तरीके से लागू करने में केंद्रीय सूचना आयोग के रवैये की आलोचना होती रही है, लेकिन हाल में उसने एक ऐसा फैसला दिया है, जो उसकी साख बहाल कर सकता है। आयोग ने आदेश दिया है कि सियासी पार्टियों को अपनी आमदनी के स्त्रोत जाहिर करने होंगे। एक संस्था ने यह जानकारी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से मांगी थी कि क्या पार्टियों ने सन 2002 से रिटर्न फाइल किए हैं, अगर हां, तो उनकी कॉपी मुहैया कराई जाए। इस पर सिर्फ जम्मू-कश्मीर और असम के आयकर आयुक्तों ने पीडीपी और एजीपी के रिटर्न मुहैया कराए।

बाकी का कहना था कि सूचना का अधिकार इस मामले पर लागू नहीं होता, क्योंकि यह पार्टियों की व्यावसायिक गतिविधि है और इसका जनहित से भी कोई ताल्लुक नहीं। दूसरा तर्क यह था कि आयकर कानून के तहत गोपनीय जानकारी जाहिर करने की कोई मजबूरी नहीं है। गौरतलब है कि सीपीआई और सीपीएम को छोड़कर बाकी पार्टियां भी इन्हीं विचारों के जरिए अपना हिसाब छिपाना चाहती हैं।

बहरहाल सूचना आयोग ने इन विचारों को खारिज कर दिया। यह सही है कि आज कोई भी कानून नहीं कहता कि पार्टियों को अपनी कमाई का जरिया बताना ही होगा। जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत उन्हें बीस हजार रुपये से ज्यादा के अंशदानों का ब्यौरा इलेक्शन कमिशन को देना होता है, लेकिन यह वैकल्पिक है, यानी नहीं मानने पर कोई सजा नहीं मिलती। फिलहाल देश में 55 मान्यता प्राप्त और 900 गैर मान्यता प्राप्त, लेकिन रजिस्टर्ड पार्टियां हैं। सन 2006-07 में इनमें से सिर्फ 14 ने इलेक्शन कमिशन को अपनी रिपोर्ट सौंपी।

तत्कालीन चीफ कमिश्नर टी। एस. कृष्णमूर्ति ने प्राइम मिनिस्टर को लिखा था कि पार्टियों के खातों को सार्वजनिक करने का इंतजाम होना चाहिए। बाद में कमिशन ने ऑडिट की भी मांग की थी। सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता के लिए जरूरी है कि पारदर्शिता हो। इसका कोई विकल्प नहीं। लॉ कमिशन ने अपनी 170 वीं रिपोर्ट में कहा था कि पार्टियों के कामकाज में अंदरूनी लोकतंत्र, वित्तीय पारदर्शिता और जवाबदेही लाई जानी चाहिए। जो पार्टी अपने अंदरूनी कामकाज में लोकतांत्रिक मर्यादाओं की इज्जत नहीं करती, उसे देश का शासन चलाने के नाम पर छूट नहीं दी जा सकती।

इसी तरह संविधान समीक्षा आयोग ने भी पार्टियों के खातों की ऑडिटिंग की सिफारिश की थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में पार्टियों के कामकाज को पारदर्शी बनाने की बात कही है। 1996 में कॉमन कॉज बनाम केंद्र सरकार मामले में उसने कहा था कि सत्ता पाने के लिए पार्टियां लोकसभा चुनाव में एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर देती हैं, लेकिन न तो कोई इसका हिसाब मांगता है और न ही कोई पैसे के स्त्रोत का खुलासा करता है। किसी को पता नहीं होता कि पैसा कहां से आता है। इसी सिलसिले में आगे बढ़ते हुए 2003 में पीयूसीएल केस में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि सभी उम्मीदवार अपनी देनदारियों, प्रॉपर्टी और क्रिमिनल केसों का लेखाजोखा नामांकन पत्र भरते समय दें।

राजनीतिक दलों के हिसाब-किताब और आमदनी के जरियों का खुलासा होने पर लोग जान पाएंगे कि उन्हें पैसा कहां से मिल रहा है और कैसे खर्च हो रहा है। उसके बाद जो दल इलेक्शन कमिशन को अपने खर्च का ब्यौरा नहीं दे रहे हैं, वे भी ऐसा करने को मजबूर हो जाएंगे। पब्लिक को यह पता लग सकेगा कि किसी पार्टी को किस कंपनी से चंदा मिला है और कहीं वह उसके हित में काम तो नहीं कर रही? हालांकि तब नुकसान यह होगा कि चेक की बजाय नकदी में चंदा दिया जाने लगेगा। आमतौर पर कंपनियां सभी पार्टियों को खुश रखने की कोशिश करती हैं। अब वे अपनी पहचान छिपाने की पूरी कोशिश करेंगी। लेकिन वैसे भी पार्टियों के खजाने में काले धन की भरमार रहती है।

असल चुनौती काले धन की समस्या से निपटने की है। अकेले सूचना के अधिकार से यह काम नहीं हो सकता। काले धन पर कंट्रोल के लिए कड़े कानूनों और निगरानी की जरूरत है। जहां तक पारदर्शिता का सवाल है, दूसरे देशों से हम कुछ सीख सकते हैं। मसलन जर्मनी के बेसिक लॉ की धारा 21 के तहत पार्टियों को अपनी आमदनी और खर्च का हिसाब सार्वजनिक करना ही होता है। अमेरिका में फेडरल इलेक्शन कमिशन चुनाव के दौरान होने वाले खर्च का रेकॉर्ड रखता है। फंडिंग की लिमिट और स्त्रोत पर उसकी कड़ी नजर रहती है।

भारत में इलेक्शन कमिशन काफी ताकतवर है, लेकिन पार्टियों के पैसे पर शिकंजा कसने में उसके हाथ बंधे हुए हैं। उसे पर्याप्त कानूनों का सहारा हासिल नहीं है, और जो कानून हैं, उनमें भी खामियां हैं। मसलन, जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 में कहा गया है कि शुभचिंतकों की तरफ से किसी उम्मीदवार पर खर्च की जाने वाली रकम उसके चुनाव खर्च में शामिल नहीं की जाएगी। इससे लिमिट से ज्यादा खर्च करने का रास्ता खुल जाता है। पार्टियों को कसने के लिए पर्याप्त कानूनों के न होने के पीछे एक वजह यह भी है कि हमारे संविधान में कहीं भी राजनीतिक दल का जिक्र नहीं है, जबकि पूरा सिस्टम दलगत राजनीति पर टिका है। पहली बार बावनवें संविधान संशोधन (दलबदल निरोधक कानून) के जरिए राजनीतिक दलों को मान्यता मिली।

सूचना आयोग का फैसला स्वागत योग्य है और यह इस कानून के बढ़ते दायरे का ही सबूत है। सूचना का अधिकार एक क्रांतिकारी कानून था, लेकिन इसका कई कोनों से विरोध हुआ। देखा जाए, तो यह स्वाभाविक ही था। खुलापन सभी को डराता है। अब भी कई संस्थाएं और विभाग इसके दायरे से बचने की कोशिश में हैं। शुक्र है कि ये कोशिशें एक-एक करके नाकाम होती जा रही हैं और पारदर्शिता के पक्ष में दबाव बढ़ता जा रहा है। सियासी पार्टियों ने इस कानून को तो पास किया, लेकिन इसका असर उन्हें भी तकलीफ दे रहा है। लेकिन इस गढ़ को तोड़ना बेहद जरूरी है, क्योंकि जब सियासत के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं रहेगा, तो वह दूसरे क्षेत्रों में खुलेपन के लिए जोर देगी। अलबत्ता पब्लिक को भी समझना होगा कि सिर्फ कानून के जरिए सियासत की गंदगी साफ नहीं की जा सकती। इसके लिए हमें जाति, धर्म और स्वार्थ से ऊपर उठकर सही उम्मीदवार की पहचान करनी होगी।

( लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं)

0 टिप्पणियाँ: