'सूचना का अधिकार' कानून को देश में लागू हुए तीन साल पूरे होने को है, पर आज भी ये कुछ राज्यों की जनता के लिए सिर्फ एक सपना बना हुआ है। सूचना निर्गत करने की कागजी कारवाई के बहाने ही लोगों को इतना टहलाया जाता है कि वह स्वंय एक हास्यास्पद सूचना बन कर रह जाता है। अंततः थक हारकर भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी से लड़ने वाले इस मारक अस्त्र से भी निराश हो जाता है और यह समझ लेता है कि सरकारी विभागों में पारदर्शिता लाने की बात तो दूर इसके बारे में सोचना भी एक बहुत बड़ा अपराध है।
ऐसे में इस कानून का क्या फायदा? जब लोगों को 'सूचना' पाने का 'अधिकार' नहीं, बल्कि सिर्फ 'अधिकार' की 'सूचना' हो।(बल्कि सच्चाई तो यह है की इस अधिकार की सूचना भी आधी अधूरी ही है )
बात अगर मध्य प्रदेश की जाए (जहाँ १९९६ में ही राइट टू इन्फोर्मेशन बिल तैयार कर लिया गया था ) तो आलम यह है कि मुख्य सूचना आयुक्त के दफ्तर में न ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध हैं, और न ही ज़रूरत के अनुसार आयुक्त बनाए गए हैं। नौ की जगह सिर्फ तीन आयुक्त से ही काम चलाया जा रहा है। शिकायतों का अम्बार है ,पर अब तक एक भी सरकारी अफसर दण्डित नही हुआ है।
कुछ राज्यों में मनमर्जी आवेदन फीस वसूलने कि बात भी नई नहीं है।धारा-४ के तहत ख़ुद ही देने वाली सूचना भी कुछ राज्यों के कुछ ही विभागों में उपलब्ध है। दिलचस्प बात तो यह है कि जिस राजस्थान के लोगों ने इस अधिकार के लिए न जाने कितनी रातें सड़कों पर गुजारी , न जाने कितनी बार जेल गए, वहाँ भी स्थिति बेहतर नहीं है। यह बात हाल में हुए एक सर्वे से स्पष्ट हो जाती है।
भारत में सूचना के अधिकार के लिए मॉडल स्टेट माने जाने वाला बिहार की हालत तो और भी भयावह है। सूचना मांगने पर आवेदकों को धारा-107 के तहत फंसा दिया जाता है। मुख्यमंत्री के जनता दरबार में यदि कोई पीड़ित शिकायत करता है, तो उसके खिलाफ कारवाई भी की जाती है। जबकि राज्य में सूचना उपलब्ध करवाने हेतु "जानकारी" नामक एक कॉल सेंटर की स्थापना भी 29 जनवरी, 2007 को की गई थी, पर सच्चाई यह है की यह कॉल सेंटर कुछ दिनों में काम करना बंद कर दिया। ( खबर है की इसे दुबारा शुरू कर दिया गया है), कई जिलों से आप नम्बर लगाते लगाते थक जायेंगे पर यह कमबख्त नम्बर तो लगेगा ही नहीं। आपको बार-बार "यह नम्बर उपलब्ध नहीं है,कृपया डायरेक्टरी की जांच कर लें." सुनने को मिले तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं है,क्यूंकि यह बिहार है, यहाँ सब ऐसे ही चलता है।
उत्तर प्रदेश तो इससे भी दो कदम आगे है। हाल में ही राज्य के आजमगढ़ जिले के दो ग्रामीणों को सूचना मांगने के जुर्म में जेल भेज दिया गया और फिर दिल्ली में संतोष पर हुए जानलेवा हमले को कैसे भुलाया जा सकता है। कितनी अजीब बात है, इस कानून के आने से देश की जनता में यह उम्मीद जगी थी की शायद अब भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जाएगा, भ्रष्टाचार बेलगाम बढ़ता ही जा रहा है। हालत तो यह है की निगरानी तंत्र पर भी निगरानी की ज़रूरत है। ऐसे में मीडिया ही कुछ कर सकती है पर अफ़सोस मीडिया तो लोगो को ग्लैमर और धर्म का पाठ पढ़ाने लगी है। उसके लिए इस सूचना के अधिकार का कोई महत्त्व नहीं।
बुधवार, 4 जून 2008
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1 टिप्पणियाँ:
यह जानकर दुखद आभास हुआ की देश में सूचना के अधिकार कानून का इस तरह से मजाक हो रहा है. बहरहाल लेखेक ने बडी मशकत के बाद ही यह जानकारी ईकट्ठा की होगी इसके लिए वह साधुवाद के हकदार है.
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