बुधवार, 17 दिसंबर 2008

अफरोज आलम'साहिल'

19 सितम्बर की सुबह.......... एक सामान्य दिन....... काम करने वाले अपने-अपने दफ्तरों की तरफ़ कूच कर चुके थे........ छात्र-छात्राएं रोज़ की तरह अपने-अपने स्कूल व कॉलेज जा चुके थे....... और जो लोग घरों में थे वो जुमे के नमाज़ में शामिल होने की तय्यारी कर रहे थे....... पर अचानक गोलियों की तडतडाहट के साथ ही हमारे फ़ोन की घंटियाँ घनघनाने लगती हैं....... "अरे...! बटला हाउस में गोली चल रही है क्या....?" "यह मैं क्या सुन रहा हूँ....?" "अरे.....! तुम्हारे इलाके में तो आतंकवादी रहते हैं......" और फिर टीवी चैनलों पर भी चीख पुकार मच जाती है। इस चीख पुकार में जिसको जो दिल चाहा ,दिल खोल कर बोला। किसने क्या कहा....? इसे दुबारा आपके समक्ष रखने की कोई ज़रूरत मैं महसूस नही करता। ये चीख पुकार अगले दो-तीन दिनों तक कायम रही। इसके बाद कुछ नरमी ज़रूर बरती गई। लेकिन दो-तीन दिनों के इस चीख पुकार ने अवाम को हर तरह से जागरूक किया। बल्कि इसने एक तबके को इतना जागरूक कर दिया कि लोगों का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर से यकीन ही ख़त्म हो गया। इस प्रकार इस घटना के बाद जहाँ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साख पर बट्टा लगा,वहीँ प्रिंट मीडिया अपनी साख बचाने में कामयाब रही।


लेकिन यहाँ भी मीडिया दो खेमो में बटी नज़र आई । एक खेमा इस इनकाउन्टर को दिल्ली पुलिस कि सबसे बड़ी सफलता मान रही थी, तो दूसरा खेमा इस सफलता को 'फर्जी'। मेरी नज़र में यकीनन दिल्ली पुलिस कि ये सबसे बड़ी कामयाबी थी। क्यूंकि देश का हर नागरिक आतंकवाद व बम धमाकों की घटनाओं से परेशान हो चुका था। और सबसे बड़ी बात यह थी कि मीडिया के जो लोग इस कामयाबी को फर्जी मान रहे थे, उनके पास भी कोई ठोस तर्क या दलील नही थे। सिर्फ़ लोगों के बयानों के आधार पर खबरें लिखी जा रही थी। खैर अपनी जगह ये भी दुरुस्त थे। क्यूंकि एक बहुत बड़ा वर्ग दिल्ली पुलिस के इस कामयाबी पर उनकी पीठ थपथपाने को कतई तैयार नही था. ज़ाहिर सी बात है कि मीडिया को भी सरकार के इस वोट बैंक को अपना पाठक या खरीदार जो बनाना था.


बातें बहुत सारी हैं। मैं भी लोगों कि बातें और मीडिया कि रिपोर्टिंग पढ़ व देख कर पक चुका था. लेकिन मास कम्युनिकेशन का छात्र होने के नाते मेरी भी कुछ ज़िम्मेदारी बनती है. मेरे लिए सबसे बड़ी बात यह है कि देश में मौजूद हर कानून पर मेरा बहुत यकीन है. फिर मैंने भी सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल किया. मैंने चार विभागों, जिसमे सुप्रीम कोर्ट, नेशनल ह्यूमन राईट कमीशन ,एम्स और दिल्ली पुलिस शामिल है.


मेरे इस काम को हिंदुस्तान टाईम्स ने सराहा। बाकी के एक-दो और अखबारों में मेरे इस काम की ख़बर आई. बाद में भी कुछ पत्रकार मित्र इस सम्बन्ध में आने वाले जवाब के बारे में मुझसे पूछते रहे. एम्स और एन.एच.आर.सी. के इलावा बाकी के दोनों विभागों ने कोई जवाब देना मुनासिब नहीं समझा और एम्स ने भी आर.टी.आई. के ग़लत तर्कों के द्वारा सूचना देने से इनकार कर दिया. सूचना देने से इनकार करना और फिर दिल्ल्ली पुलिस और सुप्रीम कोर्ट जैसे संस्थान का कोई जवाब न देना,अपने आप में एक बड़ी ख़बर थी. क्यूंकि जहाँ एक तरफ़ आर.टी.आई. कानून का उलंघन किया जा रहा था. वही इस बात का भी ठोस प्रमाण मिल रहा था कि दाल में ज़रूर कुछ काला है. बी.बी.सी. ने इस ख़बर के महत्व को समझा और इस विषय पर अपने रेडियो व वेबसाइट पर प्रमुखता से जगह दी. इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान, और नई दुनिया आदि ने अपने अखबार के अंदर थोडी सी जगह दे कर अपनी ज़िम्मेदारी निभा दी. इसी का असर रहा कि अगले ही दिनों बाकी के दोनों विभागों से भी जवाब मिल गए. एम्स कि तरह एक बार फ़िर दिल्ली पुलिस ने आर.टी.आई. का मखौल बनाया, और सूचना देने से मना कर दिया. क्यूंकि दिल्ली पुलिस अपने को आर.टी.आई. से परे मानती है. दिल्ली पुलिस ने एक बार यह साबित कर दिया कि पुलिसिया विभाग में किसी कि नहीं चलती, चाहे हम जो कर ले. सुप्रीम कोर्ट जैसे संस्थान ने भी अपने को सर्वोपरी माना. उन्होंने यह साबित करने कि कोशिश की कि उनकी नज़र में आर.टी.आई. कि कोई औकात नहीं है. इस तरह उन्होंने अधूरी सूचना दे कर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की. वहीँ एन.एच.आर.सी. ने बताया कि अब तक उनके समक्ष २५६० इनकाउन्टर के मामले आए हैं, जिन में से १६ को वह फर्जी मानती है. लेकिन इन्होने भी इन १६ फर्जी इनकाउन्टर कि डिटेल्स देनी मुनासिब नहीं समझा.


इस प्रकार एक बार फ़िर मीडिया के लिए एक अच्छी व बड़ी ख़बर थी, चाहे वो बटला हाउस इनकाउन्टर के हवाले से हो, या फिर आर.टी.आई. के हवाले से. लेकिन पुनः इंडियन एक्सप्रेस को छोड़ कर किसी ने भी इस ख़बर को अपने पाठक को परोसनी मुनासिब नहीं समझी. हालांकि कुछ पत्रकारों ने इस ख़बर पर मेहनत करके अपनी स्टोरी फाइल भी की, लेकिन डेस्क से इसे हटा लिया गया. क्यूंकि ये ख़बर मीडिया द्वारा स्थापित फोर सी थेओरी (क्रिकेट,क्राईम,सिनेमा और सलेबरिटी) को फौलो नहीं कर रहा था. या फ़िर ऊपर से कोई प्रेशर काम कर रहा था या फ़िर यह कह लीजिए कि इस ख़बर का सामाजिक सरोकार था, तो ऐसे में यह ख़बर कैसे छपे. इस वजह से यह ख़बर हटानी पड़ गई. और वैसे भी मीडिया सरोकार फरोकार को नही. मानती, यह सब फालतू के चोंचले हैं.

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