शनिवार, 2 मई 2009

बिहारः चुनाव प्रचार और सच

पाणिनी आनंद
चुनाव प्रचार के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ख़ुद को राज्य का विकास का पहरुआ बताया है और साथ ही केंद्र को कटघरे में खड़ा किया है, यह कहते हुए कि विकास के लिए बिहार जैसे ग़रीब राज्य को केंद्र पैसा ही नहीं दे रहा.
लेकिन राज्य सरकार के ही काग़ज़ चुनावी मौसम की इस राजनीतिक भाषा की कुछ और चुगली करते नज़र आते हैं.
बिहार सरकार से सूचना का अधिकार क़ानून के तहत मिली जानकारी से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि वर्तमान राज्य सरकार को पिछली राज्य सरकार की तुलना में लगभग दोगुना पैसा केंद्र सरकार से मिला है.
इतना ही नहीं, जानकारी यह भी दिखाती है कि पहली बार अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से राज्य को बड़ी मदद मिलनी शुरू हुई है लेकिन विकास के लिए लिया जा रहा पैसा इस्तेमाल ही नहीं हो रहा है.
सूचना का अधिकार क़ानून के तहत युवा कार्यकर्ता अफ़रोज़ आलम साहिल ने राज्य सरकार से जानकारी मांगी कि पिछले आठ वर्षों में केंद्र सरकार से राज्य सरकार को कितना कितना पैसा मिला है. यह भी पूछा गया कि अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से कितना अनुदान राज्य सरकार को प्राप्त हुआ है.
राज्य सरकार से लंबे इंतज़ार के बाद जो जानकारी मिली, वो राज्य सरकार के नेताओं की चुनावी प्रचार की भाषा को ग़लत साबित करती नज़र आती है.
केंद्र से मिली राशि
आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के कार्यकाल के दौरान वर्ष 2003-04 में राज्य सरकार को केंद्र से 1617.62 करोड़ रूपए मिले थे. पर केंद्र में सरकार बदलने के बाद यूपीए ने राज्य सरकार को लगभग दोगुना पैसा देना शुरू किया.
पहले ही वित्तीय वर्ष यानी वर्ष 2004-05 में केंद्र ने राज्य सरकार को 2831.82 करोड़ रूपए की राशि उपलब्ध कराई.
इसके बाद राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) समर्थन से बनी इस राज्य सरकार को वर्ष 2005-06 में 3332.72 करोड़ रूपए केंद्र सरकार से मिले.
इसके अगले वित्तीय वर्ष में यानी वर्ष 2006-07 में यह राशि बढ़ाकर 5247.10 करोड़ कर दी गई. इसके बाद के आंकड़े राज्य सरकार उपलब्ध नहीं करा पाई है पर अधिकारी मानते हैं कि केंद्र से मदद बढ़ी ही है.
राज्य सरकार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने बीबीसी को इस बारे में बताया कि केंद्र का रवैया सौतेला ही रहा है. पिछली सरकार से वर्तमान सरकार की तुलना के आधार पर राज्य के लिए ज़रूरी राशि की बात नहीं करनी चाहिए.
पर चुनाव के दौरान लोगों से यह कहना कि केंद्र ने राज्य सरकार को पैसा नहीं दिया, कहाँ तक सही है.
इसपर सुशील मोदी कहते हैं, "पिछली सरकार विकास के नाम पर कुछ नहीं करती थी. जो पैसा नाममात्र के लिए आता था, उसे भी राज्य सरकार ख़र्च नहीं कर पाती थी. अब विकास का काम शुरू हुआ है तो उसके लिए पैसा चाहिए पर जितना चाहिए, उतना केंद्र से नहीं मिल रहा है."
विश्व बैंक की मदद
लेकिन एक तथ्य और है जो राज्य सरकार के विकास कार्यों पर होने वाले ख़र्च पर सवाल उठा देता है. राज्य सरकार से मिले दस्तावेज़ों में यह जानकारी भी मिली है कि विश्व बैंक से कितना पैसा राज्य सरकार को मिल रहा है और उसमें से कितना ख़र्च हो रहा है.
सुशील मोदी गर्व के साथ बताते हैं कि उनके कार्यकाल के दौरान ही विश्वस्तरीय एजेंसियों में राज्य सरकार के प्रति विश्वास पैदा हुआ है और सहायता मिलनी शुरू हुई है. पर आंकड़े कहते हैं कि पैसा लेने में चुस्त सरकार, उसे ख़र्च करने में सुस्त है.
राज्य सरकार को वर्ष 2006-07 में विश्व बैंक से ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम के लिए 92.92 लाख रूपए मिले पर ख़र्च हुए कुल 60 लाख रूपए. अगले वित्तीय वर्ष यानी 2007-08 में ग़रीबी उन्मूलन, लोक व्यय एवं वित्तीय प्रबंधन और बिहार विकास ऋण के लिए राज्य सरकार को 464 करोड़ रूपए मिले पर दस्तावेज़ बताते हैं कि राज्य सरकार ने इसमें से कुछ 6.13 करोड़ रूपए ही ख़र्च किए हैं.
इस बारे में उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी अपने ही विभाग से मिली जानकारी को ग़लत बताते हैं और कहते हैं कि जितना पैसा मिल रहा है, उसका पूरा इस्तेमाल हो रहा है और ऐसा किसी साज़िश के तहत राज्य सरकार को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है.
हक़ीक़त की चुगली
सुशील मोदी कहते हैं, "आपके पास जो भी आंकड़ा है वो ग़लत आँकड़ा है, पहली बात तो विश्व बैंक जो पैसा देता हैं, उनकी अपनी शर्तें हैं, पहले ये संस्थाएँ पैसा नहीं देती थी लेकिन मौजूदा सरकार की कोशश के बाद ऐसा हो सका. इसके लिए इस सरकार ने उन संस्थाओं के सामने अपनी साख बनाई उसके बाद ही ऐसा हो सका है."
मोदी इस मुद्दे पर केंद्र की ओर एक और हमला करते नज़र आते हैं. वो सवाल उठाते हैं बिहार सरकार के बाढ़ राहत के लिए पैदा हुए आर्थिक संकट का.
मोदी कहते हैं, "राज्य सरकार को केंद्र से केवल एक हज़ार करोड़ की मदद मिली थी. वो तत्काल ख़र्च हो गई. उसके बाद कोसी तटबंध और बाढ़ प्रभावित ज़िलों के लिए हमने केंद्र से 14 हज़ार करोड़ की मदद मांगी पर केंद्र राष्ट्रीय आपदा घोषित करने के बाद भी कोई मदद दे नहीं रही है. यह सौतेला व्यवहार नहीं है तो क्या है."
बाढ़ के मुद्दे पर केंद्र को घेर रही राज्य सरकार काग़ज़ों में सामने आते सच पर साफ़ कुछ नहीं बता पाती. जो बताती है, उसमें और कागज़ों में दर्ज सच में फ़र्क साफ़ है. पर राजनीति में लोगों के सामने सच कितना और किस रूप में आता है, इस बार का चुनाव प्रचार इसका एक सटीक उदाहरण तो है ही.
खेतों को कटवाकर ताने गए वातानुकूलित तंबुओं में ठहरकर गांव की हालत देखते और न्याय यात्रा और विकास यात्रा के रथों पर सवार राज्य के मुख्यमंत्री से शायद लोग भाषा में ईमानदारी की भी उम्मीद करते हैं. ईमानदारी, जिस शब्द से राज्य में सत्ता बदली है. जिस नारे पर वर्तमान सरकार सत्ता में आई है।

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