सोमवार, 27 जुलाई 2009

हे इन्द्र देव पानी बिन पड़ल बा अकाल...

अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’
“घनर, घनर, घनर, घनर के घिर आए बदरा... घन गनघोर कार छाए बदरा... चमक-चमक देखो बिजलियां चमके... मन धड़काए बदरवां... मन धड़काए बदरवां... काले मेघा-काले मेघा पानी तो बरसाओ, बिजली की बौछार नहीं, बूंदो के बाण चलाओ...”

लगान फिल्म का यह गीत किसे याद नहीं होगा। खैर ये दृश्य अंग्रेज़ों के वक़्त के चम्पानेर के उपर दर्शाए गए थे, लेकिन बिहार के चम्पारण का दृश्य तो कुछ और ही है। यहां के बादल तो आवारा हो गए हैं। आते हैं और शक्ल दिखाकर चले जाते हैं। आधा सावन बीत चला है, पर लोग पानी के एक-एक कतरा को तरस रहे हैं। पशु-पक्षियों में भी पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है, और पानी की तलाश में भटक-भटक कर दम तोड़ रहे हैं।

आकाश में बादल मंडराते ही बच्चे खेल छोड़कर कह उठते हैं- ‘एक मुट्ठी सरसो, पीट-पीट बरसो’ पर इन मासूमों की आरज़ू-मिन्नत भी काम नहीं आ रही है। थरुहट इलाक़े में भगवान शंकर को ग्रामीणों ने हज़ारों बाल्टी पानी से नहलाया। (यहां ऐसी मान्यता है कि यदि शिवलिंग को घंटों पानी से नहलाया जाता रहा तो बारिश होने की संभावना बढ़ जाती है।) यही नहीं, यहां महिलाएं रात्रि में पुरुष का वेश धारण कर एक दूसरे पर कीचड़ और पानी फेंक रही हैं। (बारिश के लिए यहां यह टोटका सर्वाधिक प्रचलित है।) लेकिन रुठी बरखा रानी मानने को कतई तैयार नहीं है।

यहां के किसानों की आंखें आकाश को निहारते-निहारते पथरा चुकी हैं। ऐसे में अब पाताल पर निगाहें हैं। शायद वहीं से बदहाल खेतों की प्यास बुझे। पर, क्या करें…? बरखा रानी के साथ-साथ धरती मैया भी नाराज़ हैं। समतल खेतों की कौन कहे, सालों भर पानी से लबालब रहने वाले पश्चिम चम्पारण के योगापट्टी की प्रसिद्ध लखनी चंवर की तल में भी फटी दरारें नज़र आ रही हैं। शायद ऐसा पहली बार हुआ है।

कभी गंडक की कहर से हज़ारो-हज़ार हेक्टेयर में लगी फसलें बर्बाद होती रही हैं। वहीं इस वर्ष पटवन के अभाव में फिर से किसानों पर प्रकृति कहर बरपा रही है। लगभग एक माह से वर्षा नहीं होने के कारण धान के बिचड़े पीले पड़ कर सुखने लगे हैं। मकई, अरहर व सब्जियों का भी यही हाल है। संपन्न किसान 100 रुपये प्रति घंटा पंप सेट का भाड़ा देकर खेती करने का प्रयास कर रहे हैं, (क्योंकि नहरों से सिंचाई के स्त्रोत समाप्त हो चुके हैं, और वैसे भी 1986 की प्रलयंकारी बाढ़ में ध्वस्त तिरहुत दोन व त्रिवेणी नहर अभी भी अपनी मरम्मती की राह देख रहे हैं।) परंतु प्रचंड धूप इनकी इन कोशिशों पर पानी फेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। क्या करें अब तो रुठे इन्द्र देवता को मनाने के लिए तरह-तरह के टोटके, हवन, भजन-कीर्तन, पूजा-पाठ और दुआ व नमाज़ का ही सहारा है। और फिर उस दिन का इंतज़ार जब सब झूम-झूम कर गाएंगे-
“हरियाला सावन ढोल बजाता आया, धिन-तक-तक मन का मोर नचाता आया। मिट्टी में जान जगाता आया, धरती पहनेगी हरी चुनरिया बन के दुल्हनिया... हरियाला सावन ढोल बजाता आया...”



1 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

अभी तो शायद शुरूआत जब रक्षक ही भक्षक बन जाएँ तो?अभी हाल में सुना या पढ़ा है कि जिनकी जिम्मेदारी बनती है कि वे जंगलों को कटने से बचाएँ वे(रेंजर और दरोगा)कमर पर पर हाथ रखकर पेड़ कटवाते पकड़ाए गए.

जय हिंद!
सारे जहाँ से अच्छा,हिंदुस्तान हमारा.....!!!!!!?????