सोमवार, 5 दिसंबर 2011

हक़ व बातिल की जंग

अफ़रोज़ आलम साहिल

यौम-ए-आशूरायानी आज से चौदह सौ साल पहले करबला की खूनी दास्तान का वो मंज़र जिसमें हज़रत मुहम्मद के प्यारे नवासे हज़रत इमाम हुसैन ने बातिल के खिलाफ जंग लड़ कर अपने कुन्बा व सहाबियों के साथ जामे-शहादत नोश फरमा कर ज़ुल्म के खिलाफ एक ऐसी मिसाल पेश की कि इतना लंबा अरसा गुज़र जाने के बाद भी आज पूरी दुनिया में इसकी गूंज है।

हिजरी 61 के मोहर्रम की दसवीं तारीख की वह खूनी सुबह, जब मैदान-ए-करबलाके क़रीब दरिया-ए-फरातखुदा की मखलूक (सृष्टि) को सैराब करता हुआ अपनी शोख मौजों के साथ तेज़ी से बह रहा है। रसूल का नवासा पानी के एक कतरा को तरस रहा है, उसके अज़ीज़ साथी पानी के चंद कतरों के लिए एड़िया रगड़ रहे हैं। इधर यजीद की सशस्त्र फौजें हमला बोलने के फिराक में हैं। इनकी मांग है कि यजीद के आज्ञा का पालन कर लो, तो तुम्हें पानी तो क्या इज़्ज़त व प्रतिष्ठा और माल व दौलत से नवाज़ देंगे। लेकिन रसूले मकबूल की गोद में पले-बढ़े नवासे ने बातिल के सामने सर न झुकाकर उनकी पेशकश को ठुकरा दिया और हक के खातिर अपनी जान का नज़राना पेश करना मुनासिब समझा।

हज़रत इमाम हुसैन ने अपने 72 अज़ीज़ साथियों के साथ खाक व खून में तड़प कर और खुद को कुर्बान करके यह साबित कर दिया कि हक व सदाकत के बगैर सब कुछ बेकार है, चाहे वह माल व दौलत हो, या फिर चाहे आराम व सुख समृद्धि, हमें अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरना चाहिए।

हक़ व बातिल की जंग में इमाम हुसैन शहीद हो गए, लेकिन सच पूछे तो जंग में शिकस्त खाकर भी हक़ व बातिल की जंग में हक़ के लिए लड़ते हुए अपनी फतह का परचम लहरा दिया, जिसकी याद आज भी पूरी दुनिया के मुसलमान चाहे वो शिया हो या सुन्नी, बड़ी अक़ीदत के साथ यौम-ए-आशूराके रूप में मनाती है। और इमाम हुसैन के शहादत के ताल्लुक से मशहूर सिख शायर कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी सहरने क्या खुब कहा है-

हक़ व बातिल दिखा दिया तुने
ज़िन्दा इस्लाम को कर दिया तुने
जी कर मरना तो सबको आता है
मर कर जीना सिखा दिया तुने।



1 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

हक़ व बातिल दिखा दिया तुने
ज़िन्दा इस्लाम को कर दिया तुने
जी कर मरना तो सबको आता है
मर कर जीना सिखा दिया तुने।
Subhaan allaah