सोमवार, 5 दिसंबर 2011

ज़रा सोचिए...

अफ़रोज़ आलम साहिल
एक बार फिर
सच्चाई सामने है
और पहले भी थी
पर लग गए 17 वर्ष
और बेचारा आयोग
मुद्दों का कब्रिस्तान...
पर ज़रा सोचिए!
क्या ये लोग
जो धर्म के नाम पर
मिटा रहे हैं इंसानियत
लोगों के दिलों से
भाईचारे की जगह
एक-दूसरे के प्रति
नफरत भर रहे हैं दिलों में
लोग जो रौंद रहे हैं इंसान को
पैरों तले कुचल रहे हैं
सदा से
चाहते हैं कर देना समाप्त
इंसानियत को
कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर
तो कभी नफरत से
क्या ये लोग
क़ाबिल हैं कहलाने को इंसान
नहीं, कभी नहीं!
ये हैवान हैं
हैवान ही कहे जाएंगे सदा
अब देखना है
क्या करती है हमारीसरकार
जिन्होंने इन हैवानों के लिए
अथाह धन बहाए
खैर छोड़िए! इन बातों को
ये सब फालतू के चोंचले हैं
चुप रहने में ही हमारी
और हमारी सरकारकी भलाई है।


(यह कविता लेखक ने उस समय लिखा था, जब लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट देश के सामने पेश किया था...)

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