शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

हमें कोई आज़ादी नहीं चाहिए, बस हमें चैन जीने दो


    
यूं तो प्रत्येक वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित 10 दिसम्बर को मानव अधिकार दिवस सारी दुनिया में पूरे जोशो-ख़रोश के साथ मनाया जाता है। दरअसल, यह एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के तत्वाधान में एक औपचारिकता होती है, जो विश्व की सरकारें निभाने को मजबूर होती हैं। गौरतलब है कि मानव अधिकार दिवस  सहित साल के 365 दिन दुनिया भर में मानव अधिकारों का हनन होता रहता है। 
   जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक मानव आज़ाद पैदा होता है। इसकी इच्छा होती है कि वह आज़ादी के साथ अपना जीवन व्यतीत करे। वह उस माहौल में जीए, जहां किसी भी प्रकार के डर व भय का स्थान न रहे। किसी के साथ बदसलूकी न हो। कोई भी ज़ुल्मों-सितम का शिकार न बने। किसी के अधिकारों का हनन न हो। किसी का शोषण न हो। सदियों पुरानी ये मानवीय इच्छाएं, आज तक इच्छा ही बनी हुई है। 

दरअसल, मानव अधिकार जन्म सिद्ध अधिकार है। यह वह अधिकार है जो इंसान को किसी देश का नागरिक होने के लिए नहीं, बल्कि एक इंसान होने के नाते मिलते हैं। इसीलिए मानवाधिकार को यूरोप में प्राकृतिक अधिकार का नाम दिया गया था। 
वैसे तो कहा जाता है कि मानवधिकार की जांग तो उतनी पुरानी है, जितना इंसानी इतिहास। दरअसल धर्म, जाति, रंग, नस्ल इत्यादि के बुनियाद पर लोगों के साथ भेदभाव, अत्याचार इत्यादि इस धरती पर हमेशा से ही होते आया है। फिर भी अगर इतिहासकारों की मानें, तो मानवाधिकार की लड़ाई यूरोप में लगभग 350 वर्ष पहले शुरू हुई, जब यूनान में गुलामों की ज़िन्दगी पशु से बेहतर न थी। उनकी दशा बहुत ही दयनीय थी। उनकी इस दुर्दशा पर सर्वप्रथम स्टोइक्स ने आवाज़ उठाई। ज़ीनो ने मानव समता की राह हमवार करने के खातिर प्राकृतिक कानून का कन्सेप्ट पेश किया। विशेषज्ञ यह भी बताते हैं कि मानव अधिकार के जंग की शुरूआत 11 वीं सदी में सन् 1037 में सम्राट कोनार्ड (सेकेंड) के एक चार्टर निर्गत करके संसद के अख्तियारात चिन्हित करने से हुआ। सन् 1215 में मैग्ना कार्टा निर्गत हुआ, जिसे वाल्टेयर ने चार्टर ऑफ फ्रीडम कहा। 

बहरहाल, इतिहास की बातों को फिलहाल छोड़ ही दें तो बेहतर होगा। वैसे 10 दिसम्बर 1948 को संयक्त राष्ट्र महासभा ने 30 धाराओं वाली एक अंतर्राष्ट्रीय मानवधिकार घोषणा पत्र जारी किया। इसी के साथ विश्व की सरकारों ने अपने-अपने ढंग से लोगों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने हेतु संवैधानिक क़ानून भी बनाए। इन तमाम कारगुज़ारियों के बाद लोगों को लगा कि अब मंज़िल मिल गई। अब किसी के साथ अत्याचार नहीं होगा। कोई किसी के जन्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा और लोग चैन की बंसी बजाएंगे। लेकिन अफ़सोस! ऐसा हो न सका। दुनिया की बात तो छोड़ दीजिए, स्वयं भारत मे ही दलितों व अल्पसंख्यकों के प्रति अत्याचार तमाम अंतर्राष्टीय व राष्ट्रीय कानूनों के रहते बदस्तूर जारी है। 
  
भारत में भी कश्मीर (जिसे भारत अपना अभिन्न अंग मानता है) की हालत तो और भी दयनीय है। हालांकि एक खबर के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में पिछले दो दशकों में 48 अफ़सरों समेत 100 से ज़्यादा फौजियों को मानवधिकार उल्लंघन के मामले में दंडित किया गया है। (यह अलग बात है कि वो दंडित के बाद ज़्यादा चैन व सुकून से अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहे होंगे) जबकि सैन्यकर्मियों के खिलाफ पिछले 20 सालों में मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर 1514 एफआईआर दर्ज किए गए हैं। लेकिन भारत में एफआईआर कितने मेहनत व मुशक्कत के बाद दर्ज होता है, वो किसी से छुपा नहीं है।
कहने को तो इस देश में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग है। लेकिन उसकी भी हालत सारे मानवाधिकार कार्यकर्ता को बखुबी पता है। वहां भी लोगों को इंसाफ के लिए 10 सालों तक इंतज़ार करना पड़ता है। इसकी औक़ात यह है कि किसी राज्य का गवर्नर जिस एनकाउंटर की जांच चाहे रूकवा सकता है। यहां के अधिकारियों की हालत यह है कि घटना स्थल पर बगैर गए, बगैर किसी से बात किए पुलिस के हित में रिपोर्ट बना देते हैं।

लोगों का भरोसा इस मानव अधिकार आयोग से उठ चुका है। इससे दिलचस्प बात क्या हो सकता कि जिस जम्मू-कश्मीर में एक रिपोर्ट के मुताबिक 8000 से ज़्यादा लोग गायब हैं, वहीं एन.एच.आर.सी में सिर्फ सिर्फ 34 मामले ही दर्ज हुए हैं। उसी तरह फर्ज़ी एनकाउंटर के 18, पुलिस कस्टडी में मौत के 12, जुडिशियल कस्टडी में मौत के 9, साम्प्रदायिक दंगों के 24 और महिला उत्पीड़न के 104 मामले ही 1993 से लेकर अब तक दर्ज हुए हैं। और इन दर्ज मामलों में सिर्फ 20 मामले में ही राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने मानव अधिकार का हनन माना है एवं इन 20 परिवारों को मुवाअज़ा पर सिर्फ 48.6 लाख रूपये ही आयोग के खर्च हुए हैं। (उपरोक्त समस्त आंकड़े लेखक ने स्वयं सूचना के अधिकार के ज़रिए हासिल किए हैं।) हालांकि यहां के लोगों का साफ तौर पर कहना है कि हमें पैसा नहीं, बल्कि हमारे बच्चे वापस चाहिए। आज भी यहां के  मां को अपने बच्चों का इंतज़ार है। यहां के लोग साफ तौर पर कहते हैं कि हमें कोई आज़ादी नहीं चाहिए, बस हमें चैन से तो जीने दो। 
    
   सच्चाई तो यह है कि यहां लोगों की आबादी से ज़्यादा पुलिस की आबादी है, जो हर वक़्त लोगों पर ज़्यादती करते रहते हैं। अगर लोगों की मानी जाए तो एक सेब के खातिर पुलिस बच्चों को मार देती है। यहां का बच्चा-बच्चा अपने कंफ्लिक्ट चाईल्ड मानता है। इन्होंने बचपन देखा ही नहीं है। आलम तो यह है कि केवल एक सैनिक की हत्या की प्रतिशोध में, अर्द्धसैनिक बलों ने पूरे सोपोर बाज़ार को रौंद डाला और आसपास खड़े दरशकों को गोली मार दी। इस घटना का ज़िक्र भले ही भारतीय मीडिया ने नहीं किया हो, लेकिन इसकी रिपोर्ट टाइम पत्रिका ने ज़रूर किया था।
   
आखिर मानव अधिकार की दुहाई देने वालों की नज़र इस पर क्यों नहीं पड़ती? आखिर ऐसा कब तक चलता रहेगा? आप अगर इसे अपना अभिन्न अंग मानते हैं तो फिर यह अत्याचार क्यों? बल्कि आपको तो उनके साथ मुहब्बत से पेश आना चाहिए, यकीन जानिए कि वो आज़ादी का ख्याल अपने दिल व दमाग से निकाल देंगे। और अगर नहीं मुहब्बत से पेश आ सकते हैं तो कम से कम उन्हें चैन से तो जीने दीजिए।  बात सिर्फ कश्मीर की नहीं, दिल्ली में भी  राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का जो रोल बटला हाउस एनकाउंटर में रहा वो किसी से छिपा नहीं है।

                                                                                            अफ़रोज़ आलम साहिल

0 टिप्पणियाँ: