सोमवार, 5 दिसंबर 2011

हक़ व बातिल की जंग

अफ़रोज़ आलम साहिल

यौम-ए-आशूरायानी आज से चौदह सौ साल पहले करबला की खूनी दास्तान का वो मंज़र जिसमें हज़रत मुहम्मद के प्यारे नवासे हज़रत इमाम हुसैन ने बातिल के खिलाफ जंग लड़ कर अपने कुन्बा व सहाबियों के साथ जामे-शहादत नोश फरमा कर ज़ुल्म के खिलाफ एक ऐसी मिसाल पेश की कि इतना लंबा अरसा गुज़र जाने के बाद भी आज पूरी दुनिया में इसकी गूंज है।

हिजरी 61 के मोहर्रम की दसवीं तारीख की वह खूनी सुबह, जब मैदान-ए-करबलाके क़रीब दरिया-ए-फरातखुदा की मखलूक (सृष्टि) को सैराब करता हुआ अपनी शोख मौजों के साथ तेज़ी से बह रहा है। रसूल का नवासा पानी के एक कतरा को तरस रहा है, उसके अज़ीज़ साथी पानी के चंद कतरों के लिए एड़िया रगड़ रहे हैं। इधर यजीद की सशस्त्र फौजें हमला बोलने के फिराक में हैं। इनकी मांग है कि यजीद के आज्ञा का पालन कर लो, तो तुम्हें पानी तो क्या इज़्ज़त व प्रतिष्ठा और माल व दौलत से नवाज़ देंगे। लेकिन रसूले मकबूल की गोद में पले-बढ़े नवासे ने बातिल के सामने सर न झुकाकर उनकी पेशकश को ठुकरा दिया और हक के खातिर अपनी जान का नज़राना पेश करना मुनासिब समझा।

हज़रत इमाम हुसैन ने अपने 72 अज़ीज़ साथियों के साथ खाक व खून में तड़प कर और खुद को कुर्बान करके यह साबित कर दिया कि हक व सदाकत के बगैर सब कुछ बेकार है, चाहे वह माल व दौलत हो, या फिर चाहे आराम व सुख समृद्धि, हमें अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरना चाहिए।

हक़ व बातिल की जंग में इमाम हुसैन शहीद हो गए, लेकिन सच पूछे तो जंग में शिकस्त खाकर भी हक़ व बातिल की जंग में हक़ के लिए लड़ते हुए अपनी फतह का परचम लहरा दिया, जिसकी याद आज भी पूरी दुनिया के मुसलमान चाहे वो शिया हो या सुन्नी, बड़ी अक़ीदत के साथ यौम-ए-आशूराके रूप में मनाती है। और इमाम हुसैन के शहादत के ताल्लुक से मशहूर सिख शायर कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी सहरने क्या खुब कहा है-

हक़ व बातिल दिखा दिया तुने
ज़िन्दा इस्लाम को कर दिया तुने
जी कर मरना तो सबको आता है
मर कर जीना सिखा दिया तुने।



ज़रा सोचिए...

अफ़रोज़ आलम साहिल
एक बार फिर
सच्चाई सामने है
और पहले भी थी
पर लग गए 17 वर्ष
और बेचारा आयोग
मुद्दों का कब्रिस्तान...
पर ज़रा सोचिए!
क्या ये लोग
जो धर्म के नाम पर
मिटा रहे हैं इंसानियत
लोगों के दिलों से
भाईचारे की जगह
एक-दूसरे के प्रति
नफरत भर रहे हैं दिलों में
लोग जो रौंद रहे हैं इंसान को
पैरों तले कुचल रहे हैं
सदा से
चाहते हैं कर देना समाप्त
इंसानियत को
कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर
तो कभी नफरत से
क्या ये लोग
क़ाबिल हैं कहलाने को इंसान
नहीं, कभी नहीं!
ये हैवान हैं
हैवान ही कहे जाएंगे सदा
अब देखना है
क्या करती है हमारीसरकार
जिन्होंने इन हैवानों के लिए
अथाह धन बहाए
खैर छोड़िए! इन बातों को
ये सब फालतू के चोंचले हैं
चुप रहने में ही हमारी
और हमारी सरकारकी भलाई है।


(यह कविता लेखक ने उस समय लिखा था, जब लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट देश के सामने पेश किया था...)

हम एक हैं

गौतम राय

फिर आज का सुबह, एक पैगाम लाया है।
न उजाड़ो इस घर को और, इसे बलिदानों ने बसाया है।।
क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सबका ईमान सिर्फ हिन्दुस्तान।
इस देश ने ही हर शख्स का, इन्सान का गर्व दिलाया है।।
जहां की माटी से प्रेम की, दुनिया में सोंधी खुश्बू फैली।
है देश यही जिसने जग को, अहिंसा का पथ दिखलाया है।।
आज ये नफरतों का दौर, ये खून खराबा ये गोलियां।
क्या इसी दिन के लिए, शहीदों ने प्राण गंवाया है।।
इन्सानियत के फूल से, जिस देश की संस्कृति सजी।
किसने दामन पर आज, ये आतंक का दाग लगाया है।।
न तोड़ सका है कोई हमें, न टूटे थे, टूटेंगे।
इतिहास गवाह सौ ज़ुल्मों ने, हमको एक बनाया है।।

(
लेखक गौतम राय की यह कविता अयोध्या की आवाज़द्वारा 6 दिसम्बर 2005 को प्रकाशित सदभाव-स्मारिका में भी प्रकाशित हुई है।)

दूसरा बनवास

कैफ़ी आज़मी
राम बनवास से लौटकर जब घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये
पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे...

मत छेड़िये...

अदम गोड़वी




हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये

अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को मत छेड़िये

हम में कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है

दफन है जो बात बात, अब उस बात को मत छेड़िये

गर गलतियां बाबर की थी, जुम्मन का घर फिर क्यों जले

ऐसे नाजुक वक़्त में हालात को मत छेड़िये

है कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ खां

मिट गए सब क़ौम की औकात को मत छेड़िये

छेड़िए एक जंग मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ

दोस्त मेरे, मज़हबी नग्मात को मत छेड़िये



मस्जिद भी रहे, मंदिर भी बने

डॉ. रण्जीत


मस्जिद भी रहे, मंदिर भी बने

क्या यह बिल्कुल नामुमकिन है?

हिलमिल कर सब साथ रहें

क्या यह बिल्कुल नामुमकिन है?

इक मंदिर बने अयोध्या में

इसमें तो किसी को उज्र नहीं

पर वह मस्जिद की जगह बने

यह अंधी जिद है, धर्म नहीं।

क्या राम जन्म नहीं ले सकते

मस्जिद से थोड़ा हट करके?

किसकी कट जाएगी नाक अगर

मंदिर मस्जिद हों सट करके?

इंसान के दिल से बढ़कर भी

क्या कोई मंदिर हो सकता?

जो लाख दिलों को तोड़ बने

क्या वह पूजा घर हो सकता?

मंदिर तो एक बहाना है

मक़सद नफरत फैलाना है

यह देश भले टूटे या रहे

उनको सत्ता हथियाना है।

इस लम्बे-चौड़े भारत में

मुश्किल है बहुमत पायेंगे

यह सोच के ओछे मन वाले

अब हिन्दू राष्ट्र बनायेंगे।

इतिहास का बदला लेने को

जो आज तुम्हें उकसाता है

वह वर्तमान के मरघट में

भूतों के भूत जगाता है।

इतिहास-दृष्टि नहीं मिली जिसे

इतिहास से सीख न पाता है

बेचारा बेबस होकर फिर

इतिहास मरा दुहराता है।

जो राम के नाम पे भड़काए

समझो वह राम का दुश्मन है।

जो खून-खराबा करवाए

समझो वह देश का दुश्मन है।

वह दुश्मन शान्ति व्यवस्था का

वह अमन का असली दुश्मन है।

दुश्मन है भाई चारे का

इस चमन का असली दुश्मन है।

मंदिर भी बने, मस्जिद भी रहे

ज़रा सोचो क्या कठिनाई है?

जन्मभूमि है पूरा देश यह

इसे मत तोड़ो राम दुहाई है।

सोमवार, 28 नवंबर 2011

प्रेस क्लबों में कोई नैतिकता है?

अफ़रोज़ आलम साहिल

2-जी घोटाले की एफआईआर में देश के कई दिग्गज पत्रकारों का नाम दलाल के रूप में आया तो मीडिया जगत में हंगामा हो गया। कहा जाने लगा कि मेकअप में चमकने वाले इन चेहरों का असली रंग अब देश की जनता देखेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, इन चेहरों पर अभी भी मेकअप पुता है, हां इनकी दलाली की कहानी जरूर पुरानी हो गई है।

जस्टिस काटजू ने प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनते ही मीडिया को आईना दिखा दिया। कई सालों बाद अपना चेहरा देखकर मीडिया भी घबरा गई। कुछ के जहन तो कुछ के अहंकार पर चोट हो गई। जस्टिस काटजू द्वारा उठाए गए गंभीर सवालों की आलोचना तो कई ने की लेकिन जवाब (सही या गलत) कोई नहीं दे सका।

मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार जे डे की हत्या में एक महिला पत्रकार का नाम आया तो फिर से पत्रकारिता जगत ने हो हल्ला शुरु किया जो अभी तक जारी है। मीडिया का सांप्रदायिक होना भी किसी से छुपा नहीं है। मालेगांव धमाकों के आरोपियों की रिहा होने की खबर का कवरेज इस बात का गवाह है। अगर मीडिया सांप्रदायिक नहीं है तो क्यूं बटला हाउस ‘एनकाउन्टर’ में मारे गए लड़कों की सारी डिटेल पुलिस की कहानी के अनुसार बता रहा था और बता रहा था कि वहां ‘जेहादी’ साहित्य मिला। क्या इस मीडिया ने ये खबर दी कि उस मकान में ‘पंचतंत्र की कहानियां’ भी मिलीं? क्या पंचतंत्र की कहानियां भी जेहादी साहित्य है? क्या किसी मीडिया के अक़लमंद धुरंधर ने इस बात पर रौशनी डालने का कोशिश किया कि ‘जेहादी साहित्य’ क्या होता है? फिर किस आधार पर मीडिया की खूबसूरत बालाएं चिल्ला-चिल्लाकर कहती हैं कि जेहादी साहित्य मिला? मीडिया के पूर्वाग्रही और सांप्रदायिक होने के एक नहीं एक लाख उदाहरण हैं।

मीडिया के चरित्र पर सवाल यहीं खत्म नहीं होते...एक गंभीर सवाल जो बार-बार उठता रहा है और हाल ही में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में हए घटनाक्रम ने जिसे फिर ताजा कर दिया है वो मी़डिया के जातिवादी चरित्र पर है।

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के सदस्यों की नई लिस्ट जारी हुई है..जिसके नामों में मिश्रा, तिवारी, शुक्ला, उपाध्याय जैसे सरनेम प्रमुखता से हैं। एक बार फिर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की मेंबरशिप बांटने में पारदर्शिता और योग्यता पर ब्राह्मणवाद हावी हो गया।

प्रेस क्लब में इस ब्राह्मणवाद का कारण कई योग्य पत्रकारों को मेंबरशिप नहीं मिला पाई। इस समय संदीप दीक्षित जी प्रेस क्लब के महासचिव हैं। उनके इशारे पर ही प्रेस क्लब के मेंबरशिप में ब्राह्मणवाद को बढ़ावा दिया गया ताकि अगली बार भी ब्राह्मण कार्ड खेलकर संदीप जी आसानी से प्रेस क्लब का चुनाव जीत सकें।

ये ब्राह्मणवाद का ही नतीजा है कि प्रेस क्लब में शामिल होने के तमाम क्रायटेरिया ताक पर रख दिए गए। राष्ट्रीय चैनलों और अखबारों के पत्रकार बेचारे ताकते रह गए जबकि दमदम टाइम्स जैसे अखबारों के पत्रकारों ने प्रेस क्लब में शान से प्रवेश किया।

लेकिन अब पारदर्शिता को ताक पर रखना उतना भी आसान नहीं है जितना की प्रेस क्लब के सदस्य सोच रहे हैं। अपने खिलाफ माहौल बनता देख संदीप जी ने कुछ पत्रकारों को फोन पर धमकियां भी दी हैं, जिन्हें रिकॉर्ड कर लिया गया है। जरूरत पड़ने पर कॉल रिकार्डिंग को भी पेश किया जाएगा।

खैर दिल्ली में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया है तो ब्राह्मणवाद भी है लेकिन मुंबई के प्रेस क्लब के बारे में सुनकर तो आप चौंक ही जाएंगे। मुंबई के एक बुजुर्ग पत्रकार द्वारा आरटीआई के जरिए हासिल किए गए दस्तावेजों के मुताबिक मुंबई प्रेस क्लब ही अधिकारिक नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि जब यह प्रेस क्लब ही अधिकारिक नहीं है तो वो फिर वो चुनाव कैसे कराता है?

बुजुर्ग पत्रकार अली मुहम्मद मुंडिया द्वारा हासिल की गई जानकारी प्रेस क्लब पर कई और गंभीर सवाल खड़े करती है, जैसे, जो पत्रकार और फोटोग्रॉफर सरकार से मान्यता ही नहीं रखते उन्हें चुनाव में वोट देने की अनुमति कैसे दी गई? अली का आरोप यह भी है कि इन गैर मान्यता प्राप्त पत्रकारों से क्लब लाखों रुपए भी लेता है।

अली साहब के सवाल यहीं खत्म नहीं होते। उन्होंने मुंबई प्रेस क्लब को सरकार से मिलने वाले करोड़ों रुपए के फंड और क्लब के अंदर शराब की बिक्री पर भी सवाल खड़े किए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट आदेश है कि स्कूल कॉलेजों, हॉस्पिटल और कोर्ट के नजदीक बार नहीं चल सकते। लेकिन इस आदेश का उल्लंघन कर मुंबई प्रेस क्लब में शराब प्रस्तुत की जाती है।

दिल्ली में संदीप दीक्षीत पत्रकारों को धमकियां दे रहे हैं तो मुंबई में प्रेस क्लब अली मुहम्मद को धमकियां दे रहा हैं। अब बड़ा सवाल यह उठता है कि जब पत्रकार खुद ही जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, खुद पर सवाल उठने पर धमकियां दे रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन कर रहे हैं तो फिर वो अपनी रिपोर्टों में किस नैतिकता से दूसरों पर सवाल खड़े कर सकते हैं। इससे भी बड़ा सवाल यहां यह खड़ा होता है कि क्या ऐसे पत्रकारों और प्रेस क्लबों में कोई नैतिकता है?


मंगलवार, 22 नवंबर 2011

Letter to Vice Chancellor, Jamia Millia Islamia

To,                                                                                                                          Date:- 22.11.2011

Vice Chancellor

Jamia Millia Islamia

New Delhi-110025.



Sir,

The Batla House ‘Encounter’ of 19 September 2008 angered, shocked and terrorized the Jamia community. Police continued to pick up young people from the community and labeled them as terrorists. In this backdrop Jamia Millia Islamia intervened to restore community’s fast losing faith in the judicial system. Jamia Teachers Solidarity Association (JTSA) has played a pioneering role in this struggle for justice. Most important Jamia initiative was the declaration of legal aid to the affected families. Prof. Mushirul Hasan the then Vice-Chancellor had promised to provide legal aid and teachers also announced to donate a month’s salary for the cause. The Jamia community collected Rs. 1 lakh for the same purpose. In addition, Mr. Amar Singh, the then Samajwadi Party leader had also donated Rs. 10/- lakhs to the legal aid fund.

The Jamia Legal Aid Fund not only helped raise important funding to fight legal battle, it also helped the local community to feel united and work in solidarity for justice. By rising to protect the dignity of its own community Jamia Millia Islamia set an ideal example of the role of a university in a modern secular democracy. We are happy that you as the Vice-Chancellor have also reiterated the same support for the victims and their families.

I as part of this glorious institution have been inspired by Jamia’s history of fighting for the victims. I have filed around 50 RTIs on Batla House ‘Encounter.’ Delhi Police has claimed to have killed two important members of the Indian Mujahideen. What I have found from the RTIs is that the authority’s unwillingness to allow an independent judicial probe has dented the Delhi Police’s claim of biggest achievement in counter-terrorism.

JMI’s announcement to provide legal aid had created hope in the community. Unfortunately in last three years there has been no concrete steps, neither there has been any FIR lodged against the Delhi Police. I am writing to you to request that we need to stand up to the moral duty and lodge an FIR against Delhi Police so that the legal process can start. Three years have passed at least 19 young men have been in jail without any charge-sheet. I earnestly request to your office to provide legal aid to the families of Atif and Sajid and other 19 who have been in jail for last three years.

Moreover, the last incident of inviting Lt. Governor Tejender Khanna for convocation was like adding salt to the wound of the victims and the larger community. Mr. Khanna is the same person who rejected the call for an independent inquiry into the Batla House ‘Encounter.’ In doing so he violated the NHRC 2003 directive that each police encounter must be independently probed. I have earlier lodged strong protest against Jamia’s decision to invite Mr. Khanna and have decided to discontinue my studies (as an M.Phil student).

I would like to draw your attention that I suspect that I have been put under surveillance by Delhi Police Special Cell. Inspector Ramesh Chandra Lamba called me on 17 Nov 2011 and asked me to come to the Lodhi Road office of the Special Cell on 18 Nov 2011. I wanted my fellow friends to be aware of this call from the special cell and received enormous support from students, friends, activists and lawyers throughout the country. On Friday 18 Nov 2011, Inspector Lamba called to inform that there was no need to visit the police office. Upon my inquiry of the reason behind the police call, he wanted me to know why I opposed the Lt. Governor’s presence to Jamia. I explained everything in detail including my background.

I am aware that this kind of harassment of our students is commonplace in Delhi and on behalf of Forum for Student Democracy (FSD) I appeal to you to restore students’ faith in the university, in the political system and in the secular democracy of India. Jamia has a glorious history of standing with the victims and spearheading the struggle against injustice.

I once again earnestly request you to release the legal aid funds for the victims of police atrocities and initiate the process of filing an FIR quickly. Jamia had lost a young man during the Batla House ‘Encounter’ 2008. Government and NHRC responses to my RTIs reveal that the encounter was rather a shoot out, to which some call a cold blooded murder. I am in the possession of these RTI information which raise uncomfortable questions on the authenticity of the police version of the encounter. An FIR lodged by Jamia will save at least the life of 19 men jailed without charges in several jails in Rajasthan and Gujarat. Release of Muslims on bail arrested in connection with Malegaon blast is a glaring reminder that many people have been in jail without any evidence against them. Jamia’s credibility as a leading institution of higher learning can be useful if you take proactive steps to lodge an FIR in to the cases of Delhi Serial Blasts 2008 and the Batla House ‘Encounter.’

In the meantime, I along with other members of FSD would like meet you. We would like to have an appointment with you at the earliest so that you are aware of our major concerns and grievances. As I have decided to discontinue my studies at Jamia, I would like to submit my ID card to you and will continue my struggle for democracy and justice.

I am sure you will stand with us in this battle for justice.



Sincerely Yours

(Afroz Alam Sahil)

Convenor, Forum for Student Democracy.

E-mail: forumforstudentdemocracy@gmail.com 

Facebook Page: http://www.facebook.com/#!/pages/Forum-for-Student-Democracy/111995942241472

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रविवार, 30 अक्टूबर 2011

क्या हमें खामोश होकर बैठ जाना चाहिए...?

अफ़रोज़ आलम साहिल

जामिया मिल्लिया इस्लामिया अपना 91 वां “यौमे तासीस” मना रहा है। इस अवसर पर उर्दू के कई अखबारों में जामिया के इतिहास को लेकर काफी बातें प्रकाशित की गई। लेकिन इसमें कहीं भी जामिया के मौजूदा हालात पर कोई चर्चा हमें देखने को नहीं मिला। जिस जामिया में “यौमे तासीस” के मौक़े पर हर साल तालीमी मेला का आयोजन किया जाता रहा है। उस जामिया में नजीब जंग के आने के बाद इस तालीमी मेला को बंद कर दिया गया है। इसकी भी चर्चा हमें कहीं देखने को नहीं मिली। यह दोनों बातें हमें काफी कुछ सोचने को मजबूर करती हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि नजीब जंग मीडिया में छात्र संघ की मांग की खबरों को देख कर तिलमिला गए हैं, और मीडिया मैनेज करने का काम उन्होंने शुरू कर दिया है।

यह बात पूरा देश जानता है कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया सिर्फ एक शैक्षिक संस्थान ही नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक भी है। यह उन सरफिरों का दयार है जिनकी मेहनत ने अविभाजित भारत को गरमाहट और उर्जा प्रदान की और अपने खून से सींच कर जामिया की पथरीली ज़मीन को हमवार किया। जामिया के दरो-दीवार आज भी उनकी यादों को संजोए हुए हैं और उज्जवल भविष्य के लिए खेमाज़न होने वाले उन दीवानों को जिन्होंने अपने मुक़द्दर को जामिया के लिए समर्पित कर दिया, ढूंढ रहे हैं। भाई चारा, मुहब्बत, इंसानियत दोस्ती के उन मतवालों के सामने देश की एकता एवं विकास सर्वोपरि था, ताकि सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक के साथ-साथ राजनीतिक स्तर पर समाज को जागरूक किया जा सके।

यह बात पूरी दुनिया जानती है कि जामिया का आरंभिक दौर संघर्षों से भरा पड़ा है। यहां तक कि जामिया को बंद करने की तैयारियां भी की जाने लगी थीं। अंततः ज़ाकिर साहब ने यूरोप से पत्र लिखा और कहा –“मैं और मेरे चंद साथी जामिया की ख़िदमत के लिए अपनी ज़िन्दगी वक़्फ करने को तैयार हैं। हमारे आने तक जामिया को बंद न किया जाए।” जामिया के आरंभिक संघर्षों की तस्वीर हमें ज़ाकिर साहब के इन शब्दों में साफ़ नज़र आती हैं –“उस दौर में सामान नहीं था। अरमान थे। दौलत नहीं थी, हिम्मत थी। सामने एक आदर्श था, एक लगन थी। जो बच्चा इस बेसरो-सामान बस्ती में आ जाता था, उसकी आंखों में हमें आज़ादी की चमक दिखाई देती थी। हमसे गुलामी ने जो कुछ छीन लिया था, वह सब हमें इन बच्चों में मिल जाता था। हर बच्चे में एक गांधी, अजमल खां, एक मुहम्मद अली, एक नेहरू, एक बिनोवा छुपा लगता था। फिर आज़ादी आई... बादल छंटे... सूरज निकला... फिर छंटते-छंटते वह बादल खून बरसा गए... देश बंटा... इसके गली-कूचों में खून बहा... घर-घर आंसू बहे... भाई भाई का दुश्मन हो गया... आज़ादी की खुशी दाग़-दाग़ हो गई... नया भारत बनाने के अरमान जो वर्षों से दिलों को गरमा रहे थे, कुछ ठण्डे से पड़ गए। इस हंगामे में जामिया पर भी मुश्किलें आईं, पर वह भी गुज़र गईं।”

वह वक़्त बड़ा सख्त था। अंधेरा घना था। नफरत की हवाएं तेज़ थीं, लेकिन जामिया और जामिया वालों ने मुहब्बत और खिदमत के चिराग़ को रौशन रखा। हुमायूं के मकबरे का कैम्प हो या पुरानी दिल्ली की जलती और सुलगती बस्तियां, सरहद पार से आने वाले शरणार्थी कैम्प हों या मुसाफिरों से लदी हुई मौत की गाड़ियां, जामिया के मर्द, औरत और बच्चे हर जगह पहुचें, घायलों की मरहम पट्टी की। बीमारों की तीमारदारी का बोझ उठाया, ज़ख्मी दिलों को तसल्ली दी, बेघर और बेसहारा लोगों को सहारा दिया, खुद भूखे रह कर भूखों को खिलाया। यतीम बच्चों को सीने से लगाया। जामिया के सीने में आज भी यह जज़्बा दफन है। नजीब जंग लाख कोशिशों के बाद भी इस जज़्बे को दबा नहीं सकते। खैर, बेचारे नजीब जंग को यह बात कहां समझ में आने वाली है। ज़िन्दगी भर सरकार और कारपोरेट की गुलामी जो की है।

नजीब जंग साहब को यह बात भी शायद मालूम न हों कि “तालीमी मेला” जामिया की एक प्राचीन परम्परा रही है। जिसे हर वर्ष “यौमे तासीस” पर आयोजित किया जाता रहा है। इस अवसर पर 10-15 दिन पूर्व ही जामिया का माहौल पूरी तरह से बदल जाता है। इस संबंध में मुजीब साहब ने एक जगह लिखा है –“इन तारीखों में और इससे 10-15 दिन पूर्व पूरे जामिया में सरगर्मी, तैयारी और मंसूबा बंदी का माहौल रहा। मेले से पूर्व हर विभाग अपने अपने कामों को मंज़र-ए-आम पर लाने के लिए बेताब थे। तरह-तरह के विज्ञापन बन रहे थे, कमरों में नुमाइश के लिए सामान सजाया जा रहा था, अर्थात जामिया बिरादरी का हर व्यक्ति किसी न किसी काम को अपने ज़िम्मे लेकर दिन रात दिन रात इसी फिक्र में डूबा रहता। ड्रामों का अभ्यास, संगीत के सुर और खेलकुद के आईटमों के अभ्यास में तेज़ी आ गई थी। ऐसा प्रतीत होता था कि क़ुदरत ने मदद की गरज़ से नींद का क़ानून रात के लिए वापस ले लिया हो। रात गुज़री, सुबह हुई और मेले का बाज़ार गरम हुआ।”

जामिया में यह माहौल नजीब जंग के आने के पहले तक हमें देखने को मिला है। लेकिन जब से नजीब जंग ने इस जामिया में क़दम रखा है, जामिया के तमाम रवायतें बीते दिनों की बात हो गई हैं। वो खुद को अकबर और सचिन क्यों समझने लगे हैं। अब सवाल उठता है कि जिन लोगों ने जामिया की रिवायत और जामिया को बचाने और उसको चलाने के लिए रात दिन अपना खून पसीना एक कर दिया था, क्या सिर्फ इसलिए कि उनकी आने वाली पीढ़ी (आप और हम) नजीब जंग के ज़ुल्मों के तले दब कर रह जाएं?

जिस जामिया के इतिहास ही आंदोलन का रहा है। जिस जामिया में आज़ादी की लड़ाई में अपना ज़बरदस्त किरदार अदा किया हो। जिस जामिया ने इस देश को ज़ाकिर हुसैन जैसा न जाने कितने लीडर दिए हों, आज वहीं के छात्रों को राजनीति से दूर किया जा रहा है। आज अगर इन्हें राजनीति के ए. बी. सी. डी. से परिचित नहीं कराया जाएगा तो कल इस देश का राजनीतिज्ञ कौन होगा? हमारा देश कहां जाएगा। नजीब जंग के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जिस कैम्पस में डेमोक्रेसी नाम की कोई चीज़ नहीं है, वो उसी कैम्पस में छात्र को चिड़ाने और मीडिया में अपनी वाह वाही लूटने के लिए डेमोक्रेसी पर सीताराम यचूरी साहब का लेक्चर करवा रहे हैं, और जब कोई छात्र सीताराम यचूरी साहब से कैम्पस डेमोक्रेसी पर सवाल करता है तो नजीब जंग के गुंडों के ज़रिए उसे डराया धमकाया जाता है। शायद नजीब जंग साहब यह बात भूल रहे हैं कि सीताराम यचूरी साहब भी छात्र संघ की ही पैदावार हैं।

आज जब हम सबको यह जामिया विरासत में मिली है तो हम सब अपने फर्ज़ से पीछे क्यों हट रहे हैं... क्या आपका और हमारा यह फर्ज़ नहीं है कि जब आज हमारी जामिया और हमारे भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, तो हम भी कुछ बोलें। क्या ऐसे समय में हमें खामोश होकर बैठ जाना चाहिए...?

नहीं! कभी नहीं! ऐसे समय में हम सबको साथ चलना चाहिए, और एक आवाज़ में बोलना चाहिए, और इस आवाज़ की गूंज जामिया के सड़कों से लेकर पूरे भारत में सूनी जाए, ताकि सरकार और कारपोरेटे के गुलाम नजीब जंग छात्रों की आवाज़ को दबाना बंद करे और सरकार को भी इस बात का अहसास हो कि आने दौर कई राज्यों में चुनावों का है, कहीं ऐसा न हो कि उसे मुस्लिम वोटों से हाथ धोना पड़ जाए।

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

Letter to Vice Chancellor, Jamia Millia Islamia

To,
Vice Chancellor

Jamia Millia Islamia

New Delhi-25.



Sub: Allowing Students Union in Jamia Millia Islamia.

Sir,

There are serious debates about Islam’s compatibility with democracy and Muslim countries’ bad record on democracy has given the West an excuse to create an anti-Islamic propaganda which has also resulted in Islamophobia. Also in our country, Muslim youth and students are being targeted for their alleged extremist activities which have been found baseless.

If we undergo self-interrogation processes, it will also come as a fact that Muslim youth are far behind from their non-Muslim friends towards playing an active role in Indian society. Muslim students are not exposed to the social, economic, cultural and political challenges to the country and hence are not encouraged to respond them in their capacity. Is it not unfortunate that political leadership of Muslim community does not come from political processes and social engagement; rather it comes from religious establishments which remain largely isolated but respected mainly in their religious capacity? The result is that Muslim community is suffering from bold, mature and innovative political leadership and the community is forced to stay in the age of clan-tribal politics.

Sir, as a student of this glorious institution, I am forced to ask you who is responsible for this long term backwardness and political disability? Why our leadership is not allowing their youth and students to be part of an active social engagement? Why are they not allowing our youth to participate in each and every social and cultural debates of the country? Why Muslim youth are forced to stay isolated from national political and social agenda? Why they are deprived to have their strong opinion on every issue of national and international importance? Why reasoned deliberation and critical engagement is not being allowed within institutions which have historically evolved out of political processes during our freedom struggle? Why democratic institutions for student community in Muslim administered colleges and universities and particularly in Jamia Millia Islamia are not allowed to develop? Universities and colleges are the first space of training for democratic, intellectual and ideological exercises and unfortunately the very principle of democracy and space for intellectual and ideological discussion has been throttled in our university.

Sir, This violation of our basic right to form students union in our colleges and universities, does not only isolate Muslim community in India’s vibrant democratic space but also restrict their opportunities to prove their ability and skills to contribute to the nation building process. Apart from that, student community is treated like beggars and dependent workers for their small needs and regular complains by university administration and authorities. Be it the issue of hostel accommodation, fellowship, mess issues, hygiene, and disbursal of student funds, and government schemes for students. This must not be acceptable for our wise leadership of the university. Despite the fact that Jamia has been collecting Student Union’s fund from students, but union election are not allowed.

I agree that some earlier experiments in forming student association have not yielded very positive result. But you will agree too that ‘Democrisation’ is a continuous and evolving process. If there were any fault, that needs to be corrected, but not by dismantling ‘Students Union’ altogether.

It is my humble suggestion to the university administration that as a minority institution, our students must not be deprived of democratic space and exercise. They must not be rendered politically backward. Recent revolutions in the Arab World and anti-corruption uprising in India have proved that the youth have a constructive role to play in the society, best contribution for their country and it is just a matter of allowing them space and facilitate their political participation.

I would here also like to make it clear that I have no such political ambition and that as an M.Phil student I am anyway not eligible to contest.

I shall be grateful to hear your views and anticipate your positive response.



Thanks and Regard

Sincerely Yours



(Afroz Alam Sahil)

Convenor, Forum for Student Democracy.

E-mail: forumforstudentdemocracy@gmail.com

Facebook Page: http://www.facebook.com/#!/pages/Forum-for-Student-Democracy/111995942241472 

Date:- 10.10.2011



शनिवार, 18 जून 2011

मीडिया के सुशासन पर सवारी गांठते नीतीश कुमार

नीतीश सरकार ने बिहार के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों की आर्थिक नब्ज दबा रखी है। राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह बताते हैं कि सरकार काम पर कम, विज्ञापन पर ज्यादा ध्यान देती है...

LINK: http://www.janjwar.com/2011/06/blog-post_18.html 

अफरोज आलम 'साहिल'


अख़बारों को देख यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि बिहार खूब तरक़्क़ी कर रहा है। हर दिन विकास की नयी-नयी योजनाओं की घोषणाएं हो रही हैं। विकास कार्यों के विज्ञापन अखबारों में खूब छप रहे हैं। हर दिन किसी न किसी काम का शिलान्यास हो रहा है। इसके लिए बधाई के पात्र हैं हमारे ‘सुशासन बाबू’ यानी नीतीश कुमार जी। लेकिन विकास की जो तस्वीर मीडिया ने बिहार और देश की जनता के सामने पेश की है, वो ‘सच’ नहीं है। बल्कि नीतीश कुमार का सच तो कुछ और है,जिसे पूरे देश की जनता ने 3 जून को बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज गोलीकांड में देख लिया है।

फारबिसगंज पुलिस गोलीकांड की घटना को दो सप्ताह से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन दोषियों पर कोई करवाई नहीं हुई है। प्रदर्शनकारियों का कसूर इतना भर था कि ये भजनपुर गांव के पास स्टार्च और ग्लूकोज फैक्ट्री स्थापित करने के लिए प्राईवेट कंपनी मैसर्स औरो सुन्दरम इंटरनेशनल के लिए सरकार द्वारा 36.६५ एकड़ आवंटित जमीन के रास्ते से होकर आने-जाने का अधिकार मांग रहे थे। जमीन आवंटित किये जाने के पहले लोग यहीं से होकर जाते थे, जो उन्हें ईदगाह, करबला और बाज़ार तक पहुंचाता था। लेकिन अब इस रास्ते को रोक दिया गया है. सरकार रोक इसलिए लगा रही है क्योंकि यह कंपनी भाजपा एम.एल.सी.अशोक अग्रवाल के बेटे सौरभ अग्रवाल की है और सौरभ की शादी प्रदेश के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की बेटी से होने वाली है.

उस दिन 3 जून को हुए पुलिसिया जुल्म की दास्तान यह रही कि फारबिसगंज में जमीन पर बेसुध पड़े एक प्रदर्शनकारी युवक को एक पुलिसवाला जूतों से कुचलता रहा और मौके पर मौजूद एसपी गरिमा मलिक तमाशाबीन बनी रहीं । बाद में उस युवक की मौत हो गयी। सिर्फ यह युवक ही नहीं,बल्कि मृतकों में एक गर्भवती महिला और छह महीने की एक बच्ची भी शामिल है। पुलिस ने न केवल प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई,बल्कि उनका उनके घरों तक पीछा करके उन्हें पॉइंट ब्लैंक रेंज में गोली मारी। इस घटना में नौ लोग घायल भी हुए हैं। गौरतलब है की सभी मृतक मुस्लिम समुदाय से हैं।

फारबिसगंज की घटना नीतीश के लिए बहुत बड़ा सवाल है,जिसका जवाब उनको देना ही पड़ेगा। और उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार गुजरात की तर्ज पर बिहार का विकास चाहते हैं? अगर हां! तो नीतीश कुमार कान खोलकर सुन लें बिहार की जनता इसे कतई बर्दाश्त नहीं करेगी। बिहार की जनता को ऐसा विकास कतई नहीं चाहिए जो मानवअधिकारों के उल्लंघन पर आधारित हो।

ऐसा नहीं है कि फारबिसगंज की घटना बिहार के लिए नई है। पिछले एक साल में ही राज्य में किसान कई बार पुलिस का शिकार बने हैं। पटना जिले के बिहटा,औरंगाबाद के नबीनगर और मुजफ्फरपुर के मड़वन इलाके में फोर-लेन सड़क, थर्मल पावर प्लांट और एस्बेस्टस फैक्ट्री का विरोध करने पर किसानों पर पुलिस का कहर बरपना इसके कुछ उदाहरण भर हैं। औरंगाबाद में तो किसान मारे भी गये थे।

इसके अलावा पिछले छह सालों के दौरान अन्य कई मौकों पर भी पुलिस बर्बर कारवाइयों को अंजाम दे चुकी है। कहलगांव में वर्ष 2008 के जनवरी महीने में नियमित बिजली की मांग कर रहे लोगों में से तीन शहरी पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे। वर्ष 2007में भागलपुर में चोरी के आरोपी औरंगजेब का 'स्पीडी ट्रायल' करते हुए एक पुलिस अधिकारी ने उसे अपने मोटरसाइकिल के पीछे बांधकर घसीटा था। कोसी इलाके में उचित मुआवजा और पुनर्वास की मांग करने वाले बाढ़-प्रभावित भी पुलिस की गोली का निशाना बने।

यह सब कुछ हुआ है नीतीश के 'सुशासन' में बिहार के विकास के नाम पर। जब बात सुशासन और विकास की चल रही है,तो क्यों न उनके विकास की कुछ सच्चाइयों के आंकड़ों को भी प्रस्तुत कर दिया जाए। जिस विकास की गंगा से राज्य को सींचने का दावा नीतीश कुमार कर रहे हैं,उसमें केन्द्र का पानी कितना है और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का कितना? यह जानना दिलचस्प होगा।


यह सरकारी सच है कि नीतीश कुमार को राज्य में विकास और योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए केन्द्र से पिछली सरकारों से ज़्यादा पैसा मिला है। सरकारी कागज़ों में दर्ज आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शासनकाल में वर्ष 2003-04 में राज्य सरकार को 1617.62 करोड़ रुपये मिले थे। इसके बाद सरकार बदली और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए-1 और यूपीए-2 सत्ता में आई। यूपीए सरकार ने वर्ष 2005-06 में बिहार को 3332.72 करोड़ रूपये दिए। यह राशि एनडीए के समय के अनुदान से दोगुनी थी। वित्तीय वर्ष 2006-07 में 5247.10 करोड़, वर्ष 2007-08 में 5831.66 करोड़ और फिर वित्तीय वर्ष 2008-09 के लिए केन्द्र सरकार ने राज्य सरकार को 7962 करोड़ रुपये का अनुदान दिया। यहां स्पष्ट कर दें कि यह सहायता राशि है,इसमें राज्य सरकार को केन्द्र से मिलने वाला कर्ज या अग्रिम अनुदान शामिल नहीं है।


इतना ही नहीं, बिहार सरकार को विश्वबैंक से मिल रहे अनुदान में भी कई गुना की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2006-07 में विश्वबैंक से उसे 92 लाख मिले। इसमें से 60 लाख लाख खर्च भी हुए। वर्ष 2007-08 में यह राशि बढ़कर 464 करोड़ हो गई। जिसमे से खर्च सिर्फ छह करोड़ हो पाए। वर्ष 2008-09 में 18 करोड़, वर्ष 2009-10 में 552 करोड़ रुपये और पिछले वित्तीय वर्ष में 15 अगस्त, 2010 तक नीतीश सरकार को विश्वबैंक 74 करोड़ रुपये दे चुका है।

नीतीश सरकार ने बिहार के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों की आर्थिक नब्ज दबा रखी है। इसके लिए जरिया बनाया गया है सरकारी विज्ञापनों को। क्योंकि राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह बताते हैं कि वर्तमान राज्य सरकार का काम पर कम और विज्ञापन पर ज़्यादा ध्यान रहा है। बिहार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा वर्ष 2005-10 के दौरान 28 फरवरी 2010 तक यानी नीतीश के कार्यकाल के चार सालों में लगभग 38 हज़ार अलग-अलग कार्यों के विज्ञापन जारी किए गए और इस कार्य के लिए विभाग ने 64.48 करोड़ रुपये खर्च किये। जबकि लालू-राबड़ी सरकार ने अपने कार्यकाल के 6 सालों में सिर्फ 23.90 करोड़ ही खर्च किए थे। सिर्फ वर्ष 2009-10 में नीतीश सरकार ने योजना मद में विज्ञापनों पर 1.69करोड़ रूपये खर्च किए, वहीं गैर-योजना मद में यह राशि 32.90 करोड़ है। पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2010-11 के शुरुआती तीन महीनों में ही यानी चुनाव से ठीक पहले राज्य सरकार समेकित रूप से 7.19 करोड़ विज्ञापनों पर खर्च कर चुकी थी।


ज़ाहिर है कि नीतीश के कार्यकाल में सबसे ज़्यादा फायदा यहां के मीडिया उद्योग को हुआ है, इसलिए वो ‘विकास’ के पीछे के सच को जनता के सामने लाना मुनासिब नहीं समझते। मीडिया को इस बात का डर है कि अगर इन सच्चाइयों पर से पर्दा उठा दिया तो सरकारी विज्ञापनों से हाथ धोना पड़ सकता है (क्योंकि राज्य विज्ञापन नीति, स्टेट एडवर्टिजमेंट पॉलिसी- 2008 के तहत अगर किसी मीडिया संस्थान का काम राज्य हित में नहीं है तो उसे दिये जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं। उसे स्वीकृत सूची से किसी भी वक़्त बाहर किया जा सकता है।)। ऐसे में न्यूज़ की बात तो छोड़ ही दें,अगर किसी ने एक लेख भी बिहार सरकार के खिलाफ लिखा तो अगले ही दिन उस लेखक को मुख्यमंत्री कार्यालय बुला लिया जाता है।

नीतीश कुमार के झांसे में अल्पसंख्यक भी आये। जिन पैसों को अल्पसंख्यक छात्रों के बीच स्कॉलरशिप के रूप में बांटकर उन्होंने अपनी पीठ थपथपाई,दरअसल वह पैसा केन्द्र की यूपीए सरकार ने अपनी स्कीम के तहत उपलब्ध कराया था। बिहार सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण विभाग द्वारा सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के मुताबिक बिहार में वर्ष 2007-08के दौरान कुल 3,72,81,738/- रुपये मेधा-सह-आय आधारित योजना के अन्तर्गत अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं के बीच केन्द्र सरकार ने बांटे, न कि बिहार सरकार ने। 15 अगस्त 2008 को नीतीश कुमार ने मुस्लिम गरीब बच्चों के लिए ‘तालीमी मरकज़’ खोलने का ऐलान किया, लेकिन जब बिहार सरकार से सूचना अधिकार कानून के तहत यह पूछा गया कि अब तक कितने ‘तालीमी मरकज़’पूरे बिहार में खोले गए हैं, तो उसने इस संबंध में कोई जानकारी देना मुनासिब नहीं समझा।


जो नीतीश कुमार मुसलमानों के दम पर दुबारा बहुमत के साथ सत्ता में आए, वही भागलपुर दंगे की जांच को लेकर टालमटोलपूर्ण रवैया अपना रहे हैं। सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के मुताबिक नीतीश सरकार ने जस्टिस एनएन सिंह की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन किया, जिसे छह माह के भीतर अपनी रिपोर्ट देनी थी, लेकिन यह आयोग छह माह तो क्या, सरकार के पूरे कार्यकाल में भी वह काम नहीं कर सका,जिसके लिए ढोल पीटकर इसका गठन जनवरी 2006 में हुआ था। जबकि इस जांच आयोग के सदस्यों की सैलरी पर ही अक्तूबर 2009 तक 1,44,83,000 रूपये खर्च किए जा चुके हैं।


सूचना के अधिकार से मिले आंकड़े बताते हैं कि नीतीश सरकार को अल्पसंख्यक मद में खूब पैसे मिले,लेकिन अपने को अल्पसंख्यकों का मसीहा कहने वाली इस सरकार ने यह पैसा अल्पसंख्यकों पर खर्च करना मुनासिब नहीं समझा।


सूचना अधिकार कार्यकर्त्ता से पत्रकारिता तक की यात्रा तक पहुँचने वाले अफरोज अंग्रेजी वेबसाइट www.beyondheadlines.in संपादक हैं. ;

शुक्रवार, 17 जून 2011

फारबिसगंज घटना की सीबीआई जांच की मांग

अफ़रोज़ आलम साहिल

बिहार में नीतीश कुमार की दलाल मीडिया ने फारबिसगंज गोली कांड को कोई खास महत्व नहीं दिया। जिसके कारण बिहार के लोग ही इस विभत्स घटना से अनभिज्ञ हैं। लोगों के बीच इस घटना को लेकर बिहार के पूर्वांचल इलाक़े में जागरूकता के लिए Committee for Justice to Victims of Forbesganj Firing (CJVFF) ने एक जागरूकता अभियान चलाने का फैसला लिया है।

इसी जागरूकता अभियान के तहत आज पश्चिम चम्पारण के बेतिया शहर में एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें लोगों को फारबिसगंज गोली कांड से रूबरू कराया गया। लोगों को इस घटना की जानकारी से काफी हैरानी हुई, साथ ही मीडिया के खिलाफ उन्होंने काफी ज़हर भी उगला। बैठक में शामिल लोगों ने कहा कि नीतीश कुमार की रखैल मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी भूल चुकी है। यह बिहार के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय है।

इधर बिहार में सीपीएम ने भी सभी दलों से फारबिसगंज गोली कांड का मुखर विरोध करने की अपील की है। एक प्रेस वार्ता में राज्य सचिव विजयकांत ठाकुर ने आरोप लगाया कि पूर्णिया में केसरी हत्याकांड की तरह सुशील कुमार मोदी इस घटना के भी गवाह बनते जा रहे हैं। जिस ज़मीन को लेकर फारबिसगंज में गोली चली, उसे कोई भी सरकार एक्वायर नहीं कर सकती। वह आम रास्ता है। सरकार ने तीन बार उसकी मरम्मत कराई है।

उन्होंने आगे यह ऐलान किया कि अब 23 जून को सभी ज़िला मुख्यालयों में प्रतिरोध सभाएं होंगी। जिसमें लीज रद्द करने के साथ ही मृतकों व घायलों के परिजनों को मुआवज़ा देने की मांग की जाएगी।

इसके अलावा प्रदेश कांग्रेस के वरीय नेताओं ने इस मामले को लेकर गूरूवार को पटना के कारगिल चौक पर धरना दिया। प्रदेश प्रभारी गुलचैन सिंह चारक ने इस मौके पर कहा कि फारबिसगंज गोलीकांड जैसी घटना मैंने कहीं नहीं देखी। मर चुके व्यक्ति को जिस तरह बेरहमी से लतियाया गया, वह शर्मनाक दृश्य था।

कांग्रेस ने इस अवसर पर मांग किया कि इस घटना की सीबीआई जांच हो। डीएम, एसपी, एसडीओ व थाना प्रभारी पर हत्या का मुकदमा दर्ज हो। भजनपूर से तत्काल पुलिस पोस्ट हटे। पीड़ित परिवार को दस-दस लाख का मुआवज़ा और एक व्यक्ति को नौकरी, और घायल को पांच लाख मुआवज़ा मिले। गांव की इस पुरानी सड़क को कब्ज़े से मुक्त कराया जाए। यदि पार्टी की मांगे नहीं मानी गई तो कांग्रेस राज्यभर में आंदोलन करेगी।

प्रदेश अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कैसर ने कहा कि सिंगूर और नंदीग्राम की तरह भजनपूर की यह घटना मौजूदा सरकार की चूल हिला देगी।

उधर दिल्ली में बिहार की पूर्व सांसद व पीसीसी की महासचिव रंजीता रंजन ने भी इस मामले को लेकर प्रधानमंत्री से मुलाकात की। इस अवसर पर एक ज्ञापन भी प्रधानमंत्री को सौंपा। ज्ञापन में उन्होंने फारबिसगंज घटना की सीबीआई जांच की मांग की क्योंकि उन्हें राज्य सरकार की जांच एजेंसी पर कोई भरोसा नहीं है।

बुधवार, 8 जून 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ़ झंडाबरदारों के नाम खुला पत्र

FOR ENGLISH:


 

महोदय,

आज देश में भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ़ मुहिम ज़ोरों पर है। इस कैंसर से लड़ना वक़्त की ज़रूरत भी है। हाल में सामने आए भ्रष्टाचार के मामले इस बात की गवाही देते हैं कि देश में इसकी जड़ें कितनी गहरी हैं। बानगी के तौर पर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला और आदर्श घोटाले का ज़िक्र किया जा सकता है।

यही वजह थी कि जब अन्ना हज़ारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आमरण अनशन का एलान किया तो लोगों का आक्रोश साफ दिखा। आम लोगों के साथ-साथ सिविल सोसाइटी के सदस्य भी इस आंदोलन से जुड़ते चले गए।

इस मुहिम में ये बात भी देखने को मिली कि किस तरह दो धूरी के लोग मंच साझा करते नज़र आए, हालांकि देश इससे पहले भी इस तरह के नज़ारों का साक्षी रहा है। 1977 के आंदोलन में वामपंथ और दक्षिणपंथ सारथी बने थे, लेकिन इसकी कीमत भी देश को चुकानी पड़ी थी।

ऐसी स्थिति में ये सवाल उठना लाज़मी है कि क्या इतिहास खुद को दोहरा रहा है। ये सवाल इसलिए भी अहम हो जाता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मौजूदा मुहिम के झंडाबरदारों में कईयों के अतीत संदिग्ध हैं। अन्ना हज़ारे हों या बाबा रामदेव अपने-अपने कार्यक्षेत्र के दिग्गज हैं, लेकिन समाजिक समरसता के ताने-बाने को बुनन में इनकी भूमिका नगण्य हैं।



चंद ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब इन झंडाबरदारों से लाज़मी है।

आखिर भ्रष्टाचार की परिभाषा क्या है और क्या अन्ना हज़ारे के सामने केवल वित्तीय अनियमितताएं ही भ्रष्टाचार के दायरे में आती हैं। अन्ना 1975 से ही विभिन्न आंदोलन के अगुवा रहे हैं। लेकिन इस तथाकथित गांधीवादी ने कभी भी किसी सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठाई। इनके गृह राज्य महाराष्ट्र में ही सैकड़ों ऐसे मामले देखने को मिलते हैं जब हिंदुत्ववादी शक्तियों ने मुसलमानों को निशाना बनाया। इसमें प्रशासन ने भी मुसलमानों के साथ पक्षपात किया, लेकिन इन अत्याचारों के खिलाफ़ अन्ना की आत्मा नहीं जागी।

गुजरात दंगा, मेरठ दंगा, अलीगढ़ दंगा, भागलपुर दंगा, सोहराबुद्दीन फर्ज़ी एनकाउंटर और बटला हाउस फर्जी एनकाउंटर, आदि-अनादि। ये सिर्फ बानगी भर हैं। सच तो ये है कि आजाद भारत ऐसे लाखों मामलों का साक्षी रहा है।

राज ठाकरे को फांसी की मांग क्यों नहीं करते अन्ना.... किसानों के लिए अनशन क्यों नहीं। गांधी आश्रमों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर क्यों नहीं बोलते। नीबू पानी की जगह जिस “निम्बूज़” से उन्होंने अपने साथियों का अनशन खुलवाया वो किस ग्रामोद्योग में बनता है। राम माधव ने विचारधारा की तलवार से क्या इस देश की संस्कृति को भ्रष्ट नहीं किया है।

पैसे से जुड़ा भ्रष्टाचार ही अगर मुद्दा है तो अन्ना की ईमानदारी मैं भी मानता हूं पर ईमानदार आदमी अगर बेइमानों के हाथ इस्तेमाल हो जाए तो इससे खतरनाक क्या होगा और अन्ना इतने नासमझ नहीं कि इन बातों को न जान सकें।

बाबा रामदेव का अतीत तो जगजाहिर है। पारदर्शिता की बात करने वाले इस बाबा के को दामन और भी दाग़ार हैं। कभी हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा को चंदा देते हैं तो कभी साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ गलबहियां करते नज़र आते हैं।

बाबा के अतीत को लेकर सवालों की एक लंबी फेहरिस्त है। पतंजलि योग संस्थान की आय के स्रोतों पर सवाल है। उनके विरोधी उन पर अध्यात्मिक गुरु शंकर देव के कत्ल का इल्जाम भी लगाते हैं। बताया जाता है कि गुरु शंकर देव और बाबा रामदेव एक साथ रहते थे। एक दिन गुरु शंकर देव अचानक गायब हो गए। जिनका पता आजतक किसी को भी नहीं चला। आस्था चैनल को जबरिया हथियाने का आरोप है। उसके हेड सी. मेहता को अगवा करने और जान से मारने की धमकी देने का इल्जाम है। संत समाज के नाम पर राजनीति करने की इच्छा का आरोप है। बाबा के विरोधी उन पर धर्म के नाम पर धंधा करने का भी आरोप लगाते हैं। हाल फिलहाल स्वाभिमान ट्रस्ट के सचिव रहे राजीव दीक्षित की रहस्यमय मौत के सिलसिले में भी बाबा सवालों के घेरे में हैं। राजीव दीक्षित कभी बाबा के स्वदेशी आंदोलन के सबसे बड़े अगुवाकार हुआ करते थे। मगर बाद में स्थितियां बदलती गईं। दोनो के बीच के अंतर विरोध खुले विरोध की कगार पर पहुंच गए।

चार जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में उनके आंदोलन में साध्वी ऋतंभरा का आना बहुत कुछ जाहिर कर देता है।

इस मुहिम के एक और झंडाबरदार अरविंद केजरीवाल जो खुद को पारदर्शिता के चैम्पियन के तौर पर पेश करते हैं, उनके के साथ मेरा तजुर्बा भी कम दिलचस्प नहीं है। यह वही अरविन्द केजरीवाल हैं, जो सुन्दर नगरी की देन की वजह से मैग्सेसे अवार्डी है। अरविन्द तो कहां से कहां पहुंच गए लेकिन ये सुन्दरनगरी वहीं की वहीं है। सुन्दर नगरी खासतौर से मुसलमानों का इलाक़ा है और ये अरविन्द को जानते तक नहीं। (अगर अब मीडिया की वजह से जान गए हों तो अलग बात है।) बिहार में जानकारी कॉल सेन्टर खुलवाने में अरविन्द का बहुत रोल रहा था। इससे सुशासन बाबू नीतिश की छवि काफी बेहतर बनी थी, पर आज कॉल सेन्टर, बस भूल ही जाईए। ऐसा नहीं है कि अरविन्द इस कॉल सेन्टर की सच्चाई से वाकिफ नहीं हैं। आज अरविन्द को आर.टी.आई. के छोटे सेमिनारों में जाना अच्छा नहीं लगता। उनके पास तो लोगों को आर.टी.आई. अवार्ड से फुर्सत नहीं है, और फुर्सत हो भी क्यों, आखिर इस आर.टी.आई. अवार्ड के बहाने इंफोसिस और टाटा फाउंडेशन से चंदा जो लेना है।

ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि न केवल भ्रष्टाचार की परिभाषा को व्यापक किया जाए बल्कि इनके पुरोधाओं के अतीत को भी जाना जाए।



अफ़रोज़ आलम साहिल