सोमवार, 3 जनवरी 2011

सूचना आयुक्त ही दबा रहे हैं जानकारी

सचिन जैन और रोली शिवहरे भोपाल से



हमने तंत्र और उसे चलाए रखने वाले लोगों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये सूचना के अधिकार कानून की पैरवी की थी, परन्तु जब सरकार इसे लागू करने के लिये जिम्मेदार आयोगों में नौकरशाहों को नियुक्त करने लगती है तब हमें चौकन्ना हो जाना चाहिये.


RTI


अपने सेवाकाल के करीब तीस सालों या 12775 दिनों में तंत्र के हिस्से के रूप में काम करते हुये जिन लोगों ने उसे गैर जवाबदेह बनाया, अधिकारों के उल्लंघन किये, निजी और राजनैतिक हितों के लिये बार-बार नियम कानूनों का समायोजन करते हुये राज्य के हर काम को न्यायोचित साबित करने के लिए दिन-रात एक किया हो, उन्हें उसी तंत्र पर निगरानी के लिए का जिम्मेदार कैसे बनाया जा सकता है? जो व्यक्ति पारदर्शिता के सिद्धान्त पर सामान्यत; अविश्वास करता हो उसे सूचना आयोग में आयुक्त बनाकर तंत्र में पारदर्शिता लाने की संवैधानिक जिम्मेदारी सौंपना राज्य का षडयंत्रकारी कदम माना जाना चाहिये. 


सूचना आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति और उस पर नौकरशाहों को बिठाने को लेकर कानून बनने के समय से ही बहस चल रही है. सामाजिक कार्यकर्ता श्री अन्ना हजारे का कहना है कि ‘‘ऐसे सरकारी नौकरों को सूचना आयुक्त बना दिया गया है जो जिंदगी भर सर-सर बोलते रहे हैं. आखिर ऐसे अधिकारी अपने वरिष्ठों और साथियों के विरूद्ध कैसे फैसले दे सकते हैं.” 

सूचना के अधिकार कानून लागू होने के पांच सालों बाद अगर इसका मूल्यांकन किया जाये तो इसमें सबसे बड़ी बाधा नौकरशाही ने ही खड़ी की है. सोचने और गौर करने वाली बात यह है कि हमारे जैसे लोग सूचना आयोग में कब और क्यों जाते हैं या वहां जाने की जरूरत कब पड़ती है. विकासखंड, जिला या राज्य स्तर पर लोक सूचना अधिकारी प्रशासनिक अधिकारी हैं, शिक्षा अधिकारी हैं, इंजीनियर हैं, पुलिस अधिकारी हैं, सचिव या संचालक हैं. इनके पास जानकारी और उसे छिपाने के साधन भी, लेकिन जब भी वे हमें सूचना पाने से वंचित करते हैं तब एक संवैधानिक अधिकार होने के नाते हम सूचना आयोग के पास जाते हैं. 

हमें उम्मीद रहती है कि सूचना आयोग सूचना छिपाने वाले अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करेगा और जवाबदेही तय करेगा, लेकिन हम पाते हैं कि न्याय की लड़ाई में सूचना के हक की बात करने वाले 2-1 से पीछे हैं. 

इस कानून के क्रियान्वयन के तीन केन्द्र है- पहला सूचना मांगने वाला, दूसरा सूचना देने के लिए जवाबदेह अधिकारी, जो सरकार का नुमाइंदा है और तीसरा 12775 दिनों तक सरकार का हिस्सा रहा नौकरशाह जो, सेवानिवृत्ति के बाद सूचना आयुक्त बना दिया गया है. 

जब सूचना के हक की लड़ाई आयोग में चलती है तब स्वाभाविक रूप से आयुक्त की सहानुभूति सरकार के लोक सूचना अधिकारी के प्रति होती है. ऐसे में हमारे जैसा सूचना मांगने वाला अल्पमत में आ जाता है. 

सूचना के अधिकार कानून के बाहर निकलकर देखा जाये तो हमारे देश में कई ऐसे कानून बने हैं जिनका ठीक से अमल हो तो बहुत से लोगों का जीना सुविधाजनक हो जायेगा. मानवाधिकार आयोग/महिला आयोग आदि तमाम अहम् संस्थाएं हैं जो कहने को स्वायत्त हैं परन्तु इनका रिमोट कंट्रोल सरकार के पास ही रहता है. कोई भी संस्थान कितना भी अच्छा क्यों न हो, सरकार उसमें एक अयोग्य व्यक्ति को बिठाकर उसका भट्ठा बिठा देती है. 

हमने देखा है कि केन्द्र और राज्यों में सरकारों ने बहुत से आयोगों को इसी तरह लगभग सफेद हाथी बना दिया है. सेवानिवृत्त नौकरशाहों की नियुक्तियां इसलिए इन पदों पर की जाती हैं ताकि मानवअधिकारों को सीमित किया जा सके. एक गैर सरकारी संगठन के विश्लेषण के मुताबिक देश के 28 राज्यों में कुल 103 आयुक्त नियुक्त हैं, उनमें से 65 पर सरकारी अफसर राज कर रहे हैं. साफ है कि सरकारी अफसरों को नियुक्त इसलिये किया जा रहा है जिससे कि सूचना के अधिकार को सीमित किया जा सके और पारदर्शिता, जवाबदेही को तंत्र में प्रवेश होने से रोका जा सके. 

वर्ष 2010 के बडे घोटालों- 2जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ, आदर्श हाउसिंग के उजागर होने के पीछे सूचनाएं ही थीं. नीरा राडिया ने केवल सरकार से सूचना निकलकर कारपोरेट घरानों तक पहुंचाई और उन्हीं सूचनाओं के बल पर कुछ खास औद्योगिक घरानों, ने सार्वजनिक सम्पत्ति के अरबों रूपये अपने निजी खातों में स्थानांतरित कर लिये. 

आदर्श हाउसिंग घोटाले में राजनेता, नौकरशाह और यहां तक कि सेना के वरिष्ठतम अधिकारी भी हितग्राही बन गए क्योंकि उनकी पहुंच सूचनाओं तक थी. उसी घालमेल में महाराष्ट के सूचना आयुक्त और मानवाधिकार आयोग के सदस्य भी शामिल हो गये. उन्हें भी गलत लाभ पहुंचाया गया क्योंकि सरकार और आयोगों के शक्ति सम्पन्न अधिकारी (आयुक्त या सदस्य) एक दूसरे को अपने-अपने हितों को साधने में मदद करते हैं. 


यह तय है कि गृह निर्माण मंडल या सहकारिता विभाग के लोग सूचना आयुक्त को मकान के आवंटन में प्राथमिकता देंगे क्योंकि वे भी उसी तंत्र के हिस्से हैं. 

आदर्श सोसाइटी घोटले को केवल वित्तीय या आर्थिक घोटले के सन्दर्भ में ही नहीं देखा जाना चाहिए, यह व्यवस्थागत भ्रष्टाचार की एक और परत को उधेड़ने वाला संदर्भ है. अब तक राजनेता मंत्री, मुख्यमंत्री और अफसर ही भ्रष्टाचारों की कालिख में लिपटे नज़र आते थे, लेकिन महाराष्ट्र में अब सूचना आयुक्त रामानंद तिवारी और मानव अधिकार आयोग के सदस्य सुभाष लाला की संदिग्ध भूमिका उभरकर सामने आ गई है. 


जब मुख्यमंत्री ने उनसे अपने पद छोड़ने को कहा तो तकनीकी आधार पर उन्होंने इस्तीफ़ा देने से इनकार कर दिया. तकनीकी आधार यह है कि सूचना आयुक्त, राज्यपाल और मानव अधिकार आयोग के सदस्य से पद छोड़ने के लिये राष्ट्रपति ही कह सकते हैं. रामानंद तिवारी ओर सुभाष लाला जो भाषा बोल रहे हैं, वह उनकी चारित्रिक भाशा है, सरकार की अफसरशाही तकनीकी आधारों को ही मूल में रखकर ना केवल भ्रष्टाचार करती है, बल्कि आम लोगों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित भी करती है. वह कभी भी मानवीय नहीं होती है. वह हमेशा नियमों को सामने रखकर आगे बढ़ती है और उनका उपयोग केवल सत्ता संपन्न और ताकतवर के हितों की रक्षा के लिए करती है. 

मध्यप्रदेश में एक किसान को उसके खेत के नक्शे की नकल और खसरे की नकल के लिए 2000 रूपये और 1 साल खर्च करना पड़ता है तब उसे 5000 रूपये की आय होती है. पर भू माफिया को किसी भी जमीन पर, जो उसकी ना भी हो तब भी, सारी अनुमतियाँ और दस्तावेज पाने में 30 दिन लगते हैं और वह करोड़ों रूपये कमा जाते हैं. दस्तावेजों की हेरा-फेरी में पूरा तंत्र पूरे मनोभाव से जुट जाता है. 

तीन साल पहले भुखमरी के खिलाफ संघर्ष कर रहे संगठनों ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को यह बताया कि मध्यप्रदेश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबों को सड़ा हुआ राशन बांटा जा रहा है, तब आयोग ने कहा था कि यह मामला तकनीकी रूप से उनके दायरे में ही नहीं आता है. अब कोई बताये कि इस मामले को लेकर हम कहां जाएँ? 

नौकरशाहों का अपना एक नजरिया भी होता है, जिसमें हक की बात करने वाला अपराधी और राजद्रोही माना जाता है. पुलिस आरोपी को अपराधी मानकर जांच शुरू करती है. यही सूचना के अधिकार के बारे में भी होता है जब सूचना मांगने वाला कठघरे में खड़ा किया जाता है. 

मध्यप्रदेश सूचना आयोग के आयुक्त बार-बार कहते हैं कि सूचना के अधिकार के कानून से ब्लेक मेलिंग का धंधा चल रहा है. पर आज तक वे एक भी प्रकरण बता नहीं पाए कि कौन यह कर रहा है? वह केवल नौकरशाही और गैर जवाबदेह तंत्र का संरक्षण करना चाहते हैं.


लोकतंत्र के नाम पर हम कभी न खत्म होने वाली जांच-कार्यवाही की प्रक्रियाएं चलाने के आदी हो चुके हैं.


जब हम सरकार की नौकरशाही या पुलिस के तंत्र से जुड़े रहे व्यक्ति को सूचना के अधिकार के संरक्षण की जिम्मेदारी देते हैं तब यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह हकदार से महानुभूति रखकर अपनी भूमिका निभाएगा और जब जवाबदेही की बात आयेगी तो वह नहीं कहेगा कि तकनीकी आधारों पर हर वास्तविक अपराधी दोषमुक्त है.

झारखंड में तो ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जब अपील करने वालों को ही सूचना आयुक्तों ने धमकाना शुरु किया. उनके अधिनस्थ कर्मचारियों द्वारा रिश्वतखोरी के मामले भी उजागर हुये हैं. 

ऐसी परिस्थिति में क्या सूचना का अधिकार तंत्र को जवाबदेह बना पायेगा? जो इस हक का उपयोग करना चाहते हैं क्या वे सूचना आयोग पर विश्वास कर पायेंगे? क्या एक समय ऐसा नहीं आ रहा है जब हमारा विश्वास कानून के राज और उसकी प्रभावशीलता पर से उठ जायेगा? 

इन सभी सवालों को आदर्श घोटाले ने फिर जिंदा कर दिया है. संकट यह है कि हमारे पास तंत्र में ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं है जिसमें आदर्श घोटाले एवं अन्य घोटालों में फंसे दोषियों पर तत्काल कार्यवाही की जा सके. लोकतंत्र के नाम पर हम कभी न खत्म होने वाली जांच-कार्यवाही की प्रक्रियाएं चलाने के आदी हो चुके हैं. हमारे राष्ट्रपति और राज्यपाल शक्ति संपन्न हैं परन्तु बीते सालों में उनके काम करने के तौर-तरीकों ने उन्हें भी गैर जवाबदेह तंत्र का हिस्सा बना दिया है और मौन उनकी कार्यशैली का अहम् चरित्र बन गया है. इसे बदलना होगा.

जवाबदेही केवल एक कानून का नाम नहीं, बल्कि पारदर्शिता के साथ एक मूल्य और चरित्र है जिसे हमें कई स्तरों पर खोजना होगा. बेहतर होगा कि हम इसकी शुरूआत सूचना आयोगों में आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया और पात्रता पर सवालों से करें. हमें नागरिक की हैसियत से अपने आप से भी यह सवाल करना चाहिए कि क्या नौकरशाह हम जैसे आम लोगों को सूचना का हक हासिल करने देंगे? 

5 टिप्पणियाँ:

Sanjay Patil ने कहा…

Main bhi ramanand tiwari aur subhash lala jaise brasht afsaronke baaremain kuch batana chahta hoon. Poolicene Dec. 2006 main policene mere bhaiko bina vajah arrest kiya tha. Usane vajah puchaneke baad use bola gaya tha ki tera bhai RTI main information mangata hain aur tera baap paisa nahi deta esiliye tuze arrest kiya hain. 4 din ke baad use 25,000/- ke jamanatpe chod diya tha.
Usake baad polic aur tehsildar se RTI main information mangane ke baad policene baar baar phone karke information nahi chahiye yesa letter bhejo ya fax bhejo kaha. lekin maine information mangana nahi choda. Usake pehlehi policene hampe zooti complaints karke hame tang kiya tha. Ye sab RTI informationmain on paper samazmain aaya.
Plice ki aur gundonki taklifse mere pitaji bahot pareshan the, usimain sagarko jis tarahse policene maara tha aur tang kiya tha o dekhkar o bahot pareshan the, ek ex servicemanko es desh ka kaanoon kis tarah pereshan karta hain aur retirementke baad jineke liye nahi maraneke liye kaise majboor karta hain ye dekhkar o hatash hoke 2007 main gujar gaye.
policieki maarse puri tarah sagarko khokala bana diya tha... o chal phir nahi pa raha tha.... o bhi 2009 main gujar gaya.
Sagarke case main policwalon jis tarah use arrest kiya tha o galat tha, Tehsildarke samane use khada kiye binahi tehsildarne use mere samane khada kiya hain easa likha hain lekin uska koi jawab record nahi kiya gaya hain.... aur medical certificate denekeliye doctor aur police taiar nahi hain.
Ye case maine Human Right Commission office Mumbai main submit karne ke baad Mr. Subhash Lalane ye case kharij ki.
RTI Commissioner Mr. Ramanand Tiwarine to Policene information nahi di hain, galat information di hain, paper dispose kiye binahi SP ke permissionse paper dispose kiye hain with proof bataneke baad bhi unko RTI Act 20 ke nusar karvai karneke bajay, information let dee hain esiliye jo bhi informationke liye kharcha liya hain o vapis karneke liye order ki hain.
To pehle din main subhahse RTI Commissioner office main baitha tha mera 6th No than. Lekin pure 15 no honeke baad muze boolaya gaya aur subhah tum aaye nahi esiliye Medical superetendent ko janeke liye kaha. Aur muzse puri jankar le li, Information kis liye chahiye, to main kaha court main janeke liye chahiye. Unko information deneka order karta hoon ease kaha lekin order kuch aurhi nikala........
Aur doosare din policeke baaremain jo order nikala o to maine upar likhahi hain.
Esiliye main ye kehta hoon ki RTI Commissioner Tiwari aur Human Right Commissioner ke Lala ki es baaremain bhi inquiary honi chahiye. Kya apane padonka estemaal apane niji phayadonke liye kiya hai ?
TV9 ke ek main Congresske leader Mr. Bhai Jagtapjine ye sab sunaneke baad un sabpar 302 ke tehat karvai ki mang vidhansabhamain karoonga eise bola tha.... lekin unke Lakshvedhipe Vidhansabhamain charchahi nahi hooe.
Mr. Sunil Konduskar, Sakal, Mr. Kanukale- Tarun Bharat, Mr. Narayan Gadkari _ Pudhari, Mr. Anil Dhuptale_ Ranzunjar, Mr.Vilas Bade- Lokprabha, Mr. Prasad Raokar-Loksatta, Aur TV9 ke (Mr. Tulsidas Bhoite, Mr. Jaiswal, Afroz Alam Sahil) teamne bahot sahayata ki.

Aaj bhi hum nyay mang rahe hain electronic media hamari case logonko esliye nahi dikha sakti ki unki kuch limitations hain.
Aur Kolhapurke Reporter Mr. Rajendra Joshi jinko ye saari case malum honeke baadbhi ye news chapke na aaye eski o puri koshish karte rahain. Lekin phir bhi ye news chapke aayee. To kolhapurke kuch electronic mediake patrakaronne hume tin baar bulake vapis bheja hain... to kuch patrakarone aaj kal ke sapane dikhaye hain... Esiliye yease patrakar, Police, Tehsildar, RTI Commissioner, Human Rights Commissionke member etc. agar yesi cases dabate rahenge to hume nyay kab milega.........
kabhi news na honepar ye buzi hooi chingariko phirse aag banakar apane haat shek legi......... shayad yahi aajki patrakarita hain...... ghar ka ek ek chirag buzaneke baad......... bhopal gas, Ruchika, Jesica, etc. cases jaise ye kya hume jinda jalayegi.........

Priyanka ने कहा…

This article is copied from raviwar.com . Here is a link to the original article http://raviwar.com/news/445_right-to-information-officer-bhopal-sachin-rolly.shtml

Ramchandra Gupta ने कहा…

rajasthan ke mukhya suchna ayukt shri niwasan jo ki chief secratry rajsthan ke pad se retire huey the ko chief minister and leader of opposion ne pehle to suchna ayukt bnaya fhir mukhya suchuna ayukt ke retirement ke bad mukhya suchna ayukt bana dia. Rajassthan me abhi tak nokershahon ko hi is pad par lagaya gaya hai. ye log PIO's ki poori madad karte hain or inke upar panelty nahin lagate hain.Rajsthan suchana aayog dawara first appeal and second appeal ke bina complaint nahin lee jati.second appeal ke nirnaya kee palana nahin karane par complaint lee jati hai. yah pata nahin kaunsa kanoon hai.

Ramchandra Gupta ने कहा…

rajasthan ke mukhya suchna ayukt shri niwasan jo ki chief secratry rajsthan ke pad se retire huey the ko chief minister and leader of opposion ne pehle to suchna ayukt bnaya fhir mukhya suchuna ayukt ke retirement ke bad mukhya suchna ayukt bana dia. Rajassthan me abhi tak nokershahon ko hi is pad par lagaya gaya hai. ye log PIO's ki poori madad karte hain or inke upar panelty nahin lagate hain.Rajsthan suchana aayog dawara first appeal and second appeal ke bina complaint nahin lee jati.second appeal ke nirnaya kee palana nahin karane par complaint lee jati hai. yah pata nahin kaunsa kanoon hai.

Ramchandra Gupta ने कहा…

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