बुधवार, 13 अगस्त 2008

क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हुए हैं?

सैकड़ों साल तक गुलाम बने रहने के बाद 15 अगस्त 1947 को हमें आज़ादी नसीब हुई। आज़ादी मिलते ही राष्ट्र की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से हम भारतीयों के कंधों पर आ गई। आज़ादी की लड़ाई केवल चुने हुए नेताओं ने ही नहीं लड़ी थी, बल्कि देश का हर नागरिक इसमें सम्मिलित हुआ था। अतः यह स्वाभाविक था कि स्वतंत्र भारत के शासन में देश के हर नागरिक का भी हाथ हो। इस दृष्टि से तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग तथा स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग ले चुके महापुरूषों ने देश की शासन व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालित करने के लिए नई नीतियां बनायीं और संविधान का निर्माण किया। इन सारे कार्यों के दौरान उन्होंने देश की संस्कृति, परम्परा और सामाजिक स्थिति का ध्यान रखा। अब हमारा देश आज़ादी के 62वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। यानी हमें आज़ाद हुए 61 वर्ष पूरे हो गए। इन 61 वर्षों में देश में हर साल ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाया जाता रहा है और प्रधानमंत्री ऐतिहासिक लाल किले से तिरंगा फहरा कर देशवासियों को संबोधित करते रहे हैं। अक्सर इस संबोधन में देश की समस्याओं की चर्चा होती है और कभी कुछ राहत घोषनाएं भी की जाती है और सरकार अपने द्वारा किए गए कामों को ऐसे गिनाती है, जैसे जनता पर बहुत बड़ा एहसान कर दिया हो। हम चाहें विकास का सफर जितना भी तय कर चुके हों ,लेकिन आज़ादी के मायने बिल्कुल बदल चुके हैं। आज़ादी की व्याख्या बदल चुकी है। समाज में रहने वाले लोग आज़ादी के प्रति अपनी भावना को व्यक्त करने से कतराने लगे हैं। साथ ही आज़ादी मिलने के उपलक्ष्य में मनाए जाने वाले समारोह का स्वरूप भी बदल चुका है। अतः यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि पिछले कई वर्षों से स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम या समारोह महज़ एक रस्म अदायगी बनकर रह गया है।
उल्लेखनीय रहे कि जब हमारा यह देश अंगे्रज़ो की गुलामी से मुक्त हुआ, उस मौके पर आज़ादी के दीवानों ने यह संकल्प लिया था कि अब हम अपने सपनों को साकार करेंगे, जिसमें देश के सभी नागरिकों को अपनी उन्नति व तरक्की करने का समान अवसर प्राप्त हो। नागरिकों को अपने धर्म, अपनी भाषा व संस्कृति के प्रचार व प्रसार की पूरी छूट होगी, बल्कि सरकार भी उनके धर्म, भाषा व संस्कृति की रक्षा करेगी। देश के तमाम नागरिक क़ानून के सामने बराबर होंगे, उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं बरता जाएगा। देश का हर नागरिक आज़ादी की खुली हवा में सांस ले सकै, इन उद्देश्यों को पुरा करने के लिए भारतीय संविधान में इन चीज़ों को शामिल किया गया और यह विश्वास दिलाया गया कि आज़ाद भारत में नागरिकों की उन्नति में बाधक बने तत्वों व कारकों को हटा दिया जाएगा।
अब प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हो गए हैं? क्या हमारे उन्नति के बाधक सभी तत्वों व कारकों को हटा दिया गया है? क्या संविधान निर्माताओं की मेहनत सफल हो पायी है? क्या उनके सपने पूरे हो गए?
शायद नहीं! हमारा समाज जितना विभाजित आज है, उतना पहले कभी नहीं रहा। नक्शे पर खींची रेखाओं से कहीं अधिक भयावह होती हैं मन और भावनाओं में पड़ी दरारें। मुसलमान आज बदहाल हैं और अपने देश में ही ज़लील हो रहे हैं। इससे भी भद्दा और गंदा मज़ाक और क्या हो सकता है कि हमारा ही देश हम से राष्ट्रभक्ति का प्रमाण-पत्र मांगता है। कह रहे हैं ‘वन्दे मातरम्’ गाओ, नहीं तो गद्दार करार दिए जाओगे....... ग़द्दार...... जो अशफाक़ुल्लाह खां देश प्रेम में फांसी के फंदे से झूल गया, जो अब्दुल हमीद पाकिस्तानी तोप के मु हाने पर खड़ा हो गया..... उस अशफाक़ व हीमद की कौम को कुछ कहो, पर गद्दार तो न कहो।
क्या मुसलमानों ने जमहूरियत के लिए कुछ नहीं किया? हर बार मुसलमान सियासी दलों का मोहरा बनता रहा है। हर दंगे के बाद मुसलमान अपने आपको असुरक्षित महसूस करता रहा है। भिवंडी हो या बड़ौदा.... मेरठ हो या मुरादाबाद, जमशेदपुर हो या भागलपुर...अयोध्या हो या गुजरात.... मुसलमानों का खून हर जगह बहा है, और बह रहा है। आखिर हम कब तक शको-शुहबा के साए में सहमे-सहमे से रहेंगे ? आज हम जुड़ने के बजाय बिखरे पड़े हैं। धर्म, राष्ट्रीयता और एकता की बातें पुरानी पड़ गई हैं और जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय और क्षेत्रीयता के आधार पर नई पहचानें सर्वोपरि हो गई हैं ।
एक समय था जब हम अपनी सारी कमज़ोरियों, कमियों, ग़रीबी और गुलामी के बावजूद एक थे, परन्तु आज कोई यहां कहने का साहस नहीं करता कि जो भी हमें हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई , अगड़ी-पिछड़ी जातियां, उत्तर-दक्षिण, ग्रामीण-शहरी अथवा हिन्दी-अहिन्दी भाषियों में बांटने की कोशिश करता है अर्थात जो भी देश की एकता के विरूद्ध काम करता है, वह हमारे देश भारत का दुश्मन है। आज हमारे देश के नेता ही धार्मिक उन्माद फैलाकर अपना वोट बैंक बनाते हैं। जाति के आधार पर चुनाव लड़ते हैं। चुनाव जीतने के बाद इन्हे संसद और विधान सभाओं में जगह मिलती है, सरकार बनती है और संसदीय लोकतंत्र चलता है। यही कारण है कि लोकतंत्र के अंतर्गत राष्ट्रीय एकता, एक राष्ट्रीय भावना के निर्माण का एक संगठित भारतीय समाज की पहचान बनाने का हमारा उद्देयश् पूरा न हो
प्रश्न यह उठता है कि आखि़र हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारे लिए ऐसी व्यवस्था क्यों चुनी?
मनोवैज्ञानिक बताते है कि दास को अपने स्वामी की हर बात आदर्श लगती है। वह वैसा ही बनना चाहता है। पश्चिम देशों की गुलामी में सदियों तड़पने के बाद यह स्वाभाविक था कि हम अपने मालिकों के देश शासन शैली और संस्थाओं की ओर आकृष्ट होते तथा इन्हे ही सर्वोत्तम और अनुकरणीय मानते। आज़ादी के संघर्ष के दिनों में भी राष्ट्रीय आन्दोलन के नायकों की मांग रही थी कि भारतीयों को भारत में भी वे सभी अधिकार व अवसर मिले जो अंग्रेज़ों को अपने देश में प्राप्त थे और वैसा ही संसदीय व्यवस्था स्थापित हो जैसा ब्रिटेन में था। दरअसल, आज़ादी का अर्थ होना चाहिए भारत के प्रत्येक गांव में पीने योग्य पानी, भूख से मुक्ति और बीमार पड़ने पर चिकित्सा की व्यवस्था किन्तु आज़ादी के 61 वर्ष पूरे होने के बाद भी देश में एक लाख से अधिक गांव ऐसे हैं जहां पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है। आज भी लगभग 30 प्रतिशत भारतीय निर्धनता की रेखा तले जीते हैं। लाखों को दो जून की रोटी भी नहीं मिल पा रही है। करोड़ों लोग रोज़गार की तलाश में भटक रहे हैं। आज भी स्कूल, चिकित्सा, मकान और अन्य बुनियादी सुविधाओं से करोड़ों लोग वंचित हैं।आखि़र यह कैसी विडंबना है। लोकतंत्र का आधार मानव जीवन का मूल्य और व्यक्तियों के बीच समानता को माना जाता है, किन्तु हमारा सामाजिक जीवन और चिंतन आज भी सामंतवादी हैं । आज भी मनुष्य के जीवन की अलग-अलग कीमतें लगती हैं। कहीं एक बच्चे का प्रतिदिन का खर्च 500 रूपये है तो कहीं मात्र 200-300 रूपये में आदिवासी माताएं अपने बच्चे को बेच डालती हैं।
देश में संकट केवल राजनैतिक व्यवस्था का नहीं, बल्कि राष्ट्र चरित्र का भी है। इस व्यवस्था में जो मन सुहाती कहते हैं पुरस्कृत होते हैं और जो सच्ची बात कहने अथवा किन्हीं मूल्यों की रक्षा करने का साहस करते हैं वे तिरस्कृत होते हैं, आज पैसा, कुर्सीं सत्ता, पद और उपाधियों की लड़ाई ही सब कुछ हो गई है। देश के सांसद पैसे पर बिकने लगे हैं। हद तो यह है जनता के लिए प्रश्नों को भी पैसे लेकर पूछते हैं। सबके सब पैसे व शोहरत के लालची हो गए हैं। चाहे इसके लिए देश भाड में जाए। यहां तक कि इन्होने ‘पवित्र’ संसद को भी नहीं बक़्शा! इसकी मर्यादाओं का ख्याल भी न रखा। अरे! नेताओं का बस चले तो देश तक को गिरवी रख दें। यदि ऐसा ही होता रहा और हम इसी संवैधानिक, राजनीतिक व्यवस्था से चिपके रहे तो निश्चित ही हमारे लोकतंत्र का लोप हो जाएगा और भारतीय गणतंत्र नष्ट। इन्हे बचाना है तो व्यवस्था और उसे चलाने वाले दोनो को बदलना होगा। लोक मानस को जगाना होगा। जन-जन को उठाना होगा, और प्रत्येक नागरिकों को स्वंय विपक्ष और लोकपाल बनना होगा। दिलचस्प बात तो सह है कि आज मीडिया की आज़ादी भी खतरे में हैं। मीडिया के लोगों को खुलेआम गिरफ्तार किया जा रहा है। ‘मीडिया’ को क्या करना है और क्या नहीं? इसका स्पष्ट दिशा निर्धारण भी सरकार व दूसरे तत्व तय करने लगे हैं। ऐसे में मीडिया के सामने भी यह चुनौती है क अपनी ‘‘आज़ादी’’ को कैसे बरकरार रखा जाए। बहरहाल, मीडिया को भी अपने कर्तव्यों को याद करना होगा। तब जाकर हम वास्तव में स्वतंत्र हो पाएंगे।

अफरोज़ आलम ‘साहिल’ एच ।77/14, चतुर्थ तल, शहाब मस्जिद रोड,बटला हाउस, ओखला, नई दिल्ली-२५ मोबाईलः 9891322178

0 टिप्पणियाँ: