शनिवार, 30 अगस्त 2008

बाढ़ की त्रासदी. यह कहानी पुरानी है

अब्दुल वाहिद आजाद

सा़वन के महीनें में बहुतों को खुली धूप में आकाश में बदरी के उठने, फूर्ती के साथ छा जाने और फिर छमाछम बूंदे गिरने का नज़ारा बड़ा दिलक्श लगता हो लेकिन देश में एक बड़ी आबादी के लिए यह महीना अभिशाप की तरह है.जब सावन की बौछार बाढ़ का रूप धारण करती है तो विशेष कर उत्तर भारत की बड़ी आबादी को घर उजड़ने से लेकर विस्थापन की एक लम्बी त्रास्दी का सामना करना पड़ता है.इस समय इसी त्रासदी से कोसी नदी के नए और पुराने धाराओं के आस पास बसे लोगो का सामना हो रहा है. बिहार के तीन ज़िले अररिया, सुपौल और सहरसा के 20 लाख से ज़्यादा लोग बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं.कोसी नदी के उग्र होने से गॉव के गॉव बह गऐ हैं. साप और बिच्छू घर बाहर फैले हुए हैं. जीवन सावन की ठिठोली में भी नरक हना हुआ है. सच है कि तातकालिक त्रास्दी का कारण कोसी नदी का धारा परिवर्तन है लेकिन इस तरह की त्रासदी से उत्तर भारत कि बङी आबादी को हर बरस रुबरु होना पड़ता है. पिछले वर्ष भी उन्हे इसी तरह की त्रासदी से जूझना पड़ता था और सेंकड़ो लोगो को जान गवानी पड़ी थी.लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या कारण हैं कि भारत में लोगे को प्रत्यक वर्ष ऐसी जानलेवा बाढ़ से जूझना पङता है. जबकि देश के एक बङे भाग में पानी की कमी के कारण सूखा पङना भी आम बात है.जानकार बताते हैं कि गंदी राजनीति और राष्टीय नीति के अभाव के कारण परियोजनाओं के सवरुप तय करने और उसके क्रियानवयन में दिक्कते आती हैं और इस तरह जनता की परेशानी का निदान नही हो पाता है.धीमी धीमी पुरवैया जब चलती हैं काले काले बादलों से आकाश घिरने लगता है. फिर बूंदे शैने शैने रिमझिम रिमझिम धारासार का रुप ले लेती हैं आप का हमारा दिल अमराइयो के झुरमुठ पर झुले बांधने को कहता है लेकिन उस पार त्रासदी की एक आपार गाथा है. और शायद यही सच्चाई भी है.

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