शुक्रवार, 21 मई 2010

कुछ सवाल ये भी हैं...

कहां गई वो इंसानियत... कहां गई वो मां की ममता... क्या हुआ बाप का सारा लाड व प्यार... बहनें जो कभी सहेलियां बन जाया करती थीं... और वो भाई जो कभी दोस्त तो कभी खुद को गार्जियन बन कर धौंस जताते... और तो और उन पड़ोसियों का क्या हुआ, जो सदा हमदर्द बने हर समारोह में शामिल होते, संग रहने का वादा करते... क्या बचपन में तोड़े खिलौनों की तरह, क्या गुड्डे और गुड़ियों के खेल की तरह बड़े होकर अपनी दोस्ती भी तोड़ दी... क्या कभी उन्हें वो दर्द भरी आखिरी आवाज़ सुनाई नहीं देती, जो उनके अपने रिश्तेदार व नातेदार थे। बात सिर्फ निरूपमा या मीना गोला की नहीं, बल्कि उन तमाम युवा व युवतियों की है, जो खुद उनके अपने उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं। क्यों उन्हें जीने का अधिकार नहीं..? क्या ये अपनी पसन्द की ज़िन्दगी नहीं गुज़ार सकते..?

इस बात से कौन इंकार करता है कि मां-बाप ही सदा अपने बच्चों का भला चाहते हैं। लेकिन ये मां-बाप का कौन सा रूप है, जो हमें इस कलयुग में देखने को मिल रहा है। बहनें क्यों बदल गई..? भाई का प्यार कहां चला गया..? वो रिश्ते व नातेदार... वो पड़ोसियों का संग... क्या हुआ..?

माना कि अपने घर वालों के खिलाफ जा कर कोई फ़ैसला नहीं करनी चाहिए। लेकिन क्या अपने पसन्द का साथी चुनने का अंजाम सिर्फ मौत ही है। खुद हमारे अपने विद्यालय रूपी घर से यह सुनने को मिलता है कि हम उसे प्यार करें, जो हमें चाहता हो। तो फिर क्यों उनकी शिक्षा समय आने पर अचानक बदल जाती है..? हमारे अपने हमसे इस शिक्षा का गुरू-दक्षिणा सिर्फ हमारी मौत से ही लेंगे..? क्या ऐसी घटना सिर्फ हमारे समाचार-पत्रों की सिर्फ एक मामूली सी खबर बनकर रह जाएगी, जो कई बार तो दबा दी जाती हैं।

ज़रा सोचिए! इन मासूमों का कसूर ही क्या था..? अभी तो इन्होंने इस दुनिया को ठीक से देखा भी नहीं था। उनकी लाश तो कहीं दबी मिल गई, लेकिन क्या कभी उनके रूह को इंसाफ मिल पाएगा..?

आज भी हमारे भारतीय समाज में कुछ ऐसे समुदाय हैं, जहां इन बेगुनाह व बेकसूर मासूमों की मौतों का पता तक नहीं चल पाता। सच पूछिए तो हमारे देश में हर दिन सैकड़ों निरूपमा अपने घर वालों की ही शिकार बन रही हैं। निरूपमा तो जर्नलिस्ट थी, लेकिन गांव के उस लड़की के बारे में सोचिए, जिसकी मौत की भनक तक मीडिया को नहीं है। घर वाले अपनी झूठी शान की खातिर इन्हें मारते हैं और मीना गोला की तरह जल्द से जल्द जला डालते हैं।

अफ़सोस की बात तो यह है कि जो घटना हमारे सामने आ भी जा रही हैं। उसका रहस्य साफ नहीं हो पा रहा है। निरूपमाआई.आई.एम.सी. की छात्रा थी। खुद एक जर्नलिस्ट थी। बुराईयों का पर्दाफाश करने की लगातार कोशिश कर रही थीं। लेकिन उसे क्या पता था कि खुद उसके अपने उसके लिए क्या जाल बुन रहे हैं, और वो उन्हीं के हाथों मौत की घाट उतार दी जाएगी।

जहां हमारा देश तमीज़, तहज़ीब, सभ्य और शांति का प्रतीक माना जाता है। जहां हर धर्म के लोग एक साथ रहते हैं। जहां समानता का अधिकार है। वहीं एक तरफ हमारे अपने अपना परम धर्म निभाना भूल गए हैं। खुद की औलाद को मौत के घाट उतार रहे हैं, और बदले में दूसरे मासूम को फंसा देते हैं। ऐसे में ज़रूरत है इस देश में एक ऐसे कानून की, जिससे कि फिर कोई परिजन अपनी औलाद को प्यार करने के जुर्म में दुबारा न मार सके।

यरम नूर सूमी

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