सदियों से हिन्दुस्तान की जनता की किस्मत बही-खातों और फाइलों में कैद रही है। बही-खातों व फाइलों के घपलों का खुलासा अब तक 'आफिसियल सीक्रेट एक्ट-1923' के बहाने रोका जाता रहा है। जनता और शासक के बीच जनता के नाम पर शासन करने वाले लोग अंधेरगर्दी मचाते रहे हैं, पर सूचना क्रांति के इस युग में भारत सरकार ने शायद गलती से ही सही जनता के हाथों में सूचना के अधिकार के रूप में एक ऐसा हथियार मुहैया कराया है जो इन बही-खातों और फाइलों के बीच के
घपलों को जनता के बीच लाकर इन तथाकथित जन-सेवकों की असलियत जनता के सामने रखने लगी है। इसने अब तथाकथित जनसेवकों के चेहरों का नकाब उतारना शुरू कर दिया है।
माया की मोह में किसी व्यक्ति, का रमना और फंसना कोई नई बात नहीं है। लेकिन किसी
विचारधारा की पार्टी का माया के जाल में गोता लगाना हमें विचलित जरूर करता है। भारतीय जनता पार्टी 'पार्टी विथ द डिप्रफेंस' का नारा देती रही है। लेकिन जब 'सूचना के अधिकार अधिनियम-2005' के माध्यम से राजनैतिक पार्टियों के दानदाताओं की सूची से राज खुला तो ' पार्टी
विथ द डिप्रफेंस' की भी पोल खुल कर रह गई। विचारधारा,दृष्टिकोण और नीतियों की पार्टी अर्थात भारतीय जनता पार्टी कभी भोपाल गैस कांड के दोषी कम्पनी की घोर विरोधी थी, पर लगता है अब विरोध खत्म हो चुका है। इसलिए उसने यूनियन कार्बाइड के
नए मालिक 'डाओ केमिकल्स' से भी चंदा लेने में कोई परहेज नहीं किया। इन्हें तो बस पैसा चाहिए। पैसा कहां से आता है, कौन देता है, इससे कोई मतलब नहीं।
भोपाल गैस कांड पीड़ितों के लड़ाई के दो दशक हो चुके हैं। ये पीड़ित अब तक अधिक मुआवजा
देने की मांगों को लेकर कई महीनों से जंतर-मंतर के फुटपाथों पर जिंदगी बसर कर रहे थे । इधर भारतीय जनता पार्टी ने भी इस मुद्दे पर कांग्रेस को बहुत प्रभावी ढंग से घेरा था, बल्कि पिछले प्रांतीय चुनाव में इसने कांग्रेस को 'डाओ केमिकल्स'
का हितैषी भी बता डाला। पर अब भारतीय जनता पार्टी का चुप रहना ही बेहतर होगा। क्योंकि अब यह एक लाख रुपये में बिक चुकी है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस दूध की धुली है। सच्चाई तो यह है कि 'हमाम' में सभी नंगे हैं, क्या कांग्रेस और क्या भाजपा?
राजनैतिक पार्टी के दानदाताओं की सूची न सिर्फ विचलित करने वाली है, बल्कि कई संवेदनशील सवाल भी खड़े करती हैं। इस सूची में देखा गया कि कई औद्योगिक घराने और व्यापारिक प्रतिष्ठान व समूह जैसे आदित्य बिड़ला समूह से संबंधित जनरल इलेक्टोरल ट्रस्ट, गोवा की
डेम्पो इंडस्ट्रीज वीएस डेम्पो, डेम्पो माइनिंग, सेसा गोवा, वीएम सालगांवकर एंड ब्रदर्स आदि ने भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों को चंदा दिया है। सिर्फ ये ही नहीं, बल्कि कई माइनिंग कंपनियां, प्रापर्टी-रियल एस्टेट कंपनियां, ट्रस्ट, रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशंस, निर्यातक व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ शिक्षा के मंदिर कहे जाने वाले प्राइवेट स्कूल व शैक्षणिक संस्थान भी दानदाताओं में शामिल हैं।
उद्योगपति, व्यवसायी व बिल्डर माफिया तो इन राजनैतिक पार्टियों को परंपरा के मुताबिक हमेशा से चंदा देते आए हैं, पर अब अकीक एजुकेशन सेन्टर का सच हमारे सामने है, जहां
न कोई शिक्षा है और न ही शिक्षा देने वाला कोई शिक्षक और न ही उसकी हालत चंदा देने लायक है। ये तो एकसाधारण् सा घर है। पर इसने भाजपा को एक ही बार में नौ चेकों की मदद से 75 लाख रुपये दे डाले। इसके पिछले वर्ष भी यह 66 लाख रुपये चंदा भाजपा को दे चुकी है।
आखिर राजनैतिक पार्टियों को चंदा क्यों दिया जाता है? इसका रहस्य हमसे या आपसे छिपा नहीं है।
परंतु कौन से लोग कितना चंदा देते हैं और कब देते हैं, इसका विवरण अब तक देश की वोट देने वाली
आम जनता की पहुंच से बाहर था लेकिन 'सूचना के अधिकार' के आ जाने के बाद अब यह दिलचस्प व रहस्यमयी विवरण भी आम जनता की पहुंच में है। ये अलग बात है कि कुछ महीनों पूर्व जब सूचना के अधिकार के दायरे में राजनीतिक पार्टियों को भी
लाने की बात की गई तो इन तथाकथित जनसेवकों की टोलियों ने काफी हाय-तौबा मचाई और सीधे तौर पर उन्होंने उस प्रजा को अपनी पार्टी के आय-व्यय का ब्योरा देने से मना कर दिया जिसकी बदौलत ही वे राजा बने बैठे हैं। उन्होंने ऐसा क्यों किया,
ये सच अब हमारे सामने है। पर वो भूल गए कि आम जनता भले ही इनके खर्च के ब्योरे का पता न लगा सके, लेकिन आय की जानकारी का पता (भले ही वह अधूरा ही क्यों न हो) तो निर्वाचन आयोग से लगा ही सकती है, जिसे वह फार्म-24
ए भरकर निर्वाचन आयोग को उपलब्ध कराते हैं।
हमने भी सूचना के अधिकार का प्रयोग करते हुए निर्वाचन आयोग से कांग्रेस, भाजपा और बसपा को मिलने वाले पिछले तीन वर्ष के चंदे का विवरण मांगा तो आयोग ने अपने जवाब में बताया कि बहन मायावती की बसपा ने
आज तक फार्म-24ए भरा ही नहीं है। यही नहीं कांग्रेस व भाजपा ने भी वित्तीय वर्ष 2007-08 में फार्म 24ए भरना मुनासिब नहीं समझा। इस प्रकार मुझे सिर्फ दो वर्षों का विवरण ही हासिल हो सका।
दिलचस्प बात तो यह है कि इस देश में 920
रजिस्टर्ड राजनितिक पार्टियाँ हैं, जिन में से केवल 21 पार्टियाँ ही ऐसी हैं जो अपने चंदे और आमदनी से संबंधित विवरण आयोग को सौंप रहे हैं।
फार्म 24(ए) नही भरने वालों में सिर्फ़ बहन मायावती ही नही बल्कि चाहे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल , रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी , करुणानिधि के नेतृत्ववाली डीएमके , शिबू सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा या अन्य प्रमुख राजनीतिक दल हों, इन दलों ने चुनाव आयोग को अपने दानदाताओं के बारे में दिया जाने वाला ब्यौरा उपलब्ध नहीं कराया है।
बहरहाल, जिन 21 पार्टियों ने फ़ार्म 24(ए) भरा है, उनकी सूची से सरसरी तौर पर इस विवरण से कोई स्पष्ट निष्कर्ष तो नहीं निकाला जा सकता, लेकिन आंकड़ों का विश्लेषण और चेक दिए जाने का समय अगर उद्योगपतियों की स्थिति उस वक्त के घटना के मद्देनजर देखी जाए तो अभी कई और रहस्यों से पर्दा उठ सकता है। लेकिन इतना तो तय है कि राजनीतिक पार्टियां चंदा लेते समय
अपनी विचारधारा, दृष्टिकोण व नीतियों आदि को खास अहमियत नहीं देतीं। उन्हें तो बस दान चाहिए, चाहे वह दानदाता किसी भी विचारधारा का क्यों न हो, और वैसे भी दानदाता की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती, उन्हें तो बस अपने हितों से मतलब होता है। वो तो बस
अपना हित साधना चाहते हैं। इस प्रकार उनके द्वारा दिया गया चंदा एक प्रकार का रिश्वत ही होता है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश को चलाने वाले ये जनसेवक पैसे के चलते उसूलों को ताक पर रखते हुए व्यापारिक समूहों के हितों के गुलाम बना कर रह गएहैं।
दिलचस्प बात यह है कि भाजपा के नियमित दानदाता बहुत कम हैं। अर्थात जो एक बार दे दिया दुबारा देना मुनासिब नहीं समझता। पार्टी के अपने लोग भी चंदा देने में पीछे ही हैं। पार्टी ज्यादातर अपना चंदा देश भर के बिल्डर और उससे जुड़े उद्योगों, व्यापारियों और
एजुकेशन सेन्टर से ही प्राप्त करती है। यदि कभी सच सामने आ सके तो यह जानना दिलचस्प होगा कि जिस-जिस साल में जो बड़ा व्यापारी चंदा देता है, वह उस साल क्या फायदा हासिल करता है? बात अगर कांग्रेस की करें तो पार्टी से जुड़े लोग दिल खोल कर चंदा देते हैं और खूब देते हैं। खुद सोनिया गांधी ने दो वर्षो में 67467 रुपये और डा. मनमोहन सिंह ने 50 हजार रुपये चंदा दिए हैं। इसके अलावा इनके दानदाताओं में पब्लिक स्कूलों की भी अच्छी खासी तादाद है। वीडियोकान कंपनी द्वारा एक ही दिन 50-50 लाख के 6 अलग-अलग चेक देना, आदित्य बिड़ला समूह का 10 करोड़ का चंदा दिया जाना कुछ सवाल तो खड़े करता ही है। ये ऐसे सवाल है। जिनका जवाब शायद अभी न मिले, लेकिन जनता के बीच यह आंकड़े पहुंचा देना ही सूचना के अधिकार की सबसे बड़ी जीत है।
बात यहीं खत्म नहीं होती, क्योंकि इनके अलावा भी अंदरूनी तौर पर न जाने कितने चंदे हासिल किए जाते होंगे, जिसका अंदाजा लगाना हमारे व आपके बस की बात नहीं।
आख़िर क्या है फ़ार्म 24(ए)....?
रिप्रेज़ेंटेशन ऑफ़ पीपुल्स एक्ट (1951) में वर्ष 2003 में एक संशोधन के तहत यह नियम बनाया गया था कि सभी राजनीतिक दलों को धारा 29 (सी) की उपधारा-(1) के तहत फ़ार्म 24(ए) के माध्यम से चुनाव आयोग को यह जानकारी देनी होगी कि उन्हें हर वित्तीय वर्ष के दौरान किन-किन व्यक्तियों और संस्थानों से कुल कितना चंदा मिला.
हालांकि राजनीतिक दलों को इस नियम के तहत 20 हज़ार से ऊपर के चंदों की ही जानकारी देनी होती है.
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें