रविवार, 28 फ़रवरी 2010

India’s Haj goodwill delegations: Some chilling facts

By Mumtaz Alam Falahi, TwoCircles.net,

New Delhi: Even a pious journey of Haj has not been left clean। Corrupt practices, it seems, have permeated the official process for selection of members of government’s Haj goodwill delegation sent every year to Saudi Arabia. There is no criteria, or at least the government does not want to disclose, for selection of members for the delegation, and thus has crept in favoritism. Result: E Ahamed has performed Haj three times between 2000 and 2008 on government expenses. Syed Shahnawaz Hussain two times, and he is not alone.
There are many who have been sent on official Haj more than once। Currently Minister of Raliways for State, E Ahamed who is also president of Indian Union Muslim League is on top with three trips (2000, 2004, 2006 – since 2004 he has been in ruling coalition). Two-time official Hajis include Syed Shahnawaz Hussain (2000, 2003 – his party BJP was in power), Ahmed Sayeed Malihabadi, MP, Rajya Sabha (2001, 2007), Shafiqur Rahman Barq, MP, Lok Sabha (2005, 2007) and Lutfur Rahman Lashkar, IAS, Retd (2000, 2007).

This and other facts are now in public domain, thanks to RTI activist Afroz Alam Sahil. Mass Communication student of Jamia Millia Islamia, Sahil had put three questions before the Ministry of External Affairs: List of members of last 10 delegations, criteria of selection and expenditure.
He has been provided information only about first and last question.
According to the data, the number of members from 2000 to 2008 has remained in 20s or 30s except 2006 when 51 people were sent on official Haj.
Interestingly, politicians and journalists are about one third of every delegation. In 2008, of 34 members of the Haj goodwill delegation, 11 are active or former politicians and one journalist. Similarly, in 2007, of 29 members, 9 are politicians and 4 journalists.
Another group of professionals, considered more sacred than the other two, also gets good space in the delegation. Clerics, Imams, Muftis and Sajjada Nasheens also make official holy trip.
If there were 11 politicians and one journalist in the 2008 delegation there were at least five religious heads including Imam of Parliament Street Masjid, Jaimat Ulema Nagpur president and Sajjadah Nasheen of Dargah Hazrat Saleem Chishti, Fatehpur Sikri.
Also in 2007, of 29 total members, five were clerics and leaders of religious organizations, including then president of Jamiat Ulema-I-Hind and Imam, Makkah Masjid, Hyderabad.
List of Members of the Indian Haj Goodwill delegation
2000—30
2001—17
2002—26
2003—16
2004—17
2005—34
2006—51
2007—29
2008—34
As for average expenditure per member, the data shows every year more than Rs 8 lakh was spent, that is four-five times more than Haj for a normal Haji costs. The expenditure data available (only from 2005-2008) says the government spent Rs eight to nine lakh per member between 2005 and 2007. But the average expenditure jumped to about Rs 13 lakh in 2008. This must have gone up in 2009.
TwoCircles.net will soon publish complete list of members of Haj goodwill delegations from 2000 to 2008.
What would you suggest to improve Hajj journey?

पूरी मानवता के लिए परम-आदर्श....

थोड़ी देर के लिए दुनिया के वर्तमान हालात को भूल कर शारीरिक आंखें बन्द करके कल्पना की आंखें खोल लीजिए और एक हज़ार चार सौ वर्ष पहले पीछे के संसार को देखिए, यह कैसा संसार था...? शायद जिन बातों को आज अंधविश्वास (Superstition) और गप समझा जाता है वे उस समय की “सच्चाईयां” (Unquestionable truths) थीं। जिन कार्यों को आज अशिष्ट और बर्बरतापूर्ण कहा जाता है वे उस समय के रोज़मर्रा के मामूली काम थे। मनुष्य की जानकारी कितनी कम थी, उसके विचार कितने संकीर्ण थे, उस पर भ्रम और असभ्यता कितनी छाई हुई थी, संसार में न तार था, न टेलीफोन था, न रेडियो, न रेल और वायुयान थे, न प्रेस थे, न स्कूल और कॉलेजों की अधिकता थी, उस समय एक विद्वान व्यक्ति की जानकारी भी कुछ पहलुओं से आधुनिक युग के एक साधारण व्यक्ति की अपेक्षा कम थी। और उसमें भी इस अंधकारमय युग में धरती का एक कोना ऐसा था, जहां अंधकार का बोल-बाला और भी अधिक था। जो देश उस समय की सभ्यता की कसौटी के अनुसार सभ्य थे उनके बीच अरब देश सबसे अलग-थलग पड़ा हुआ था। उसके पड़ोस में ईरान, रूस और मिस्र देश में विद्या-कला और सभ्यता और संस्कृति का कुछ प्रकाश पाया जाता था, परन्तु रेत के बड़े-बड़े समुद्रों ने अरब को उनसे अलग कर रखा था। अरब सौदागर ऊंटों पर महीनों चलकर इन देशों में व्यापार के लिए जाते और केवल माल का लेन-देन करके लौट जाते आते थे। ज्ञान और सभ्यता का कोई प्रकाश उनके साथ न आता था। सारे अरब देश में गिने-चुने कुछ लोग थे, जिनको कुछ लिखना-पढ़ना आता था किन्तु वह भी इतना नहीं कि उस समय की विद्याओं और कलाओं से परिचित होते। उनके पास एक उच्च कोटि की भाषा अवश्य थी, जिसमें ऊंचे विचारों को व्यक्त करने की असाधारण शक्ति थी। वहां कोई सुव्यवस्थित शासन न था, कोई ज़ाब्ता, नियम और क़ानून न था। हर क़बीला अपनी जगह स्वतंत्र था और केवल “जंगल के क़ानून” का पालन किया जाता था। जिसका जिस पर वश चलता उसे मार डालता और उसके धन और संपत्ति पर अधिकार जमा लेता। पवित्र और अपवित्र, वैध और अवैध, शिष्ट और अशिष्ट की परख से ये क़रीब-क़रीब अपरिचित थे। वे एक-दूसरे के सामने बिना किसी हिचक के नंगे हो जाते थे। उनकी स्त्रियां तक नंगी होकर ‘काबा’ का ‘तवाफ़’ (परिक्रमा) करती थीं। वे अपनी लड़कियों को अपने हाथ से जीवित गाड़ देते थे, केवल इस अज्ञानपूर्ण धारणा के कारण कि कोई उनका दामाद न बने। वे अपने बापों के मरने के बाद अपनी अपनी सौतेली माताओं से विवाह कर लेते थे। मुर्ति-पूजा, प्रेत-पूजा, नक्षत्र-पूजा, तात्पर्य यह कि एक ईश्वर की पूजा के सिवा संसार में जितनी पूजाएं पाई जाती थीं, वे सब उनमें प्रचलित थी।
ऐसे समय में और ऐसे देश में एक व्यक्ति जन्म लेता है। बचपन ही में माता-पिता और दादा का साया उसके सिर से उठ जाता है, इसलिए इस गई-गुज़री अवस्था में एक अरब बच्चे को थोड़ी-बहुत शिक्षा-दीक्षा मिल सकती थी वह भी उसे नहीं मिलती। होश संभालता है तो अरब लड़कों के साथ बकरियां चराने लगता है, जवान होता है तो सौदागरी में लग जाता है। उठना-बैठना, मिलना-जुलना सब-कुछ उन्हीं अरबों के साथ है जिनका हाल ऊपर आपने देख लिया।
केवल अरब की नहीं सम्पूर्ण संसार की दशा को दृष्टि में रखिए और देखिए। यह व्यक्ति जिन लोगों में पैदा हुआ, जिनमें बचपन गुज़ारा, जिनके साथ पलकर युवावस्था को पहुंचा, जिनसे उसका मेल-जोल रहा, जिनसे उसके मामले रहे, लेकिन आरंभ से ही स्वभाव में आचरण में वह उन सबसे भिन्न दिखाई देता है, वह कभी झूठ नहीं बोलता, उसकी सच्चाई पर उसकी जाति के सभी लोग गवाही देते हैं। उसकी बोली में कटुता और कठोरता की जगह मिठास है और वह भी ऐसी कि जो उससे मिलता है उसी का होकर रह जाता है। लोग उसे ‘अमीन’ (अमानतदार) कहते हैं। दुश्मन तक उसके पास अपने क़ीमती माल रखवाते हैं और वह उनकी भी रक्षा करता है।
लगभग चालीस वर्ष तक ऐसा पवित्र, स्वच्छ और शिष्ट जीवन बिताने के बाद उसके जीवन में एक क्रान्ति का आरंभ होता है। वह अंधकार से घबरा उठता है जो उसे हर ओर से घिरा दिखाई दे रहा था, वह अज्ञान, अनैतिकता, दुराचार, दुर्व्यवस्था और ‘शिर्क’ के उस भयानक समुद्र से निकल जाना चाहता है जो उसे घेरे हुए हैं। वह सबसे अलग होकर आबादी से दूर पहाड़ों की संगति में जा-जाकर बैठने लगता है। सोच-विचार करता है, कोई ऐसा प्रकाश ढूंढ़ता है जिससे वह इस चारों ओर छाए हुए अंधकार को दूर कर दे।
यह एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसके व्यक्तित्व की तारीफ शब्दों में संभव नहीं है। उनके बारे में जितना कुछ लिखा जाए, शायद कम होगा। आरंभ से लेकर अब तक बड़े-बड़े ऐतिहासिक मनुष्य जिनकी गणना संसार महान व्यक्तियों में करता है, तो उसके आगे बौने जैसे दिख पड़ते हैं। संसार के महान व्यक्तियों में से कोई भी ऐसा नहीं है जिसकी पूर्णता की चमक-दमक मानव जीवन के एक दो विभागों से आगे बढ़ सकी हो। सारांश में कहे तो इतिहास में हर ओर एकपक्षीय हीरो ही दिखाई देते हैं। परन्तु अकेला एक ही व्यक्तित्व ऐसा है जिसमें समस्त गुण एकत्र हैं। आप जिन लोगों को बड़ी उदारता के साथ “इतिहास बनाने वाले” की उपाधि देते हैं, वे वास्तव में इतिहास के बनाए हुए हैं। इतिहास बनाने वाला पूरे मानव इतिहास में केवल यही एक व्यक्ति है, जिसे दुनिया हज़रत मुहम्मद (स.) के नाम से जानती है।
हज़रत मुहम्मद (स.) ने समाज के कमज़ोर और बेसहारा लोगों को सम्मान और विश्वास प्रदान किया। जिस ने आपके रास्ते में कांटे बिछाए, आप ने उसे भी माफ किया और उसकी सहायता भी की। गुलामों को आज़ाद कराया, बच्चियों को ज़िन्दा गाड़ने की प्रथा का अन्त किया, विधवा की शादी को स्वीकारणीय बनाया। कैदियों और यतीमों (अनाथों) का सहारा बने और जिसकी मदद करने वाला कोई न था, उसकी मदद की। आपने ये सारे गुण अपने साथियों में उभारे। यहां तक कि कमज़ोरों की सहायता ने प्रतिस्पर्द्धा का रूप ले लिया। लोगों को लोगों से मुहब्बत करना सिखाया। पूरी दुनिया को शांति का संदेश दिया। और लोगों को बताया कि इस्लाम का अर्थ ही शान्ति और स्वेच्छा से आत्म-समर्पण है। लोगों को भाई-चारे का संदेश दिया। एक साथ मिल-जूल कर रहना सिखाया।
बड़ा आकर्षक व्यक्तित्व था अल्लाह के आखिरी पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (स.) का। जीवन में सादगी थी, एकरूपता थी। निजी और सामाजिक जीवन में बड़े परिवर्तन आए, परन्तु इस परम आदर्श व्यक्तित्व ने हर अवसर पर आदर्श ही छोड़ा। घर और बाहर के जीवन में कोई अन्तर न था, नबी बनाए जाने के पहले भी और बाद भी। ठाट-बाट आपको पसंद न था। किसी की बीमारी की खबर सुनते तो उसे देखने चले जाते और उसके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते। किसी की मृत्यु हो जाती तो उसके घर जाते और घर वालों को संयम और धैर्य की तलकीन करते। बच्चों से प्यार करते, बूढ़ों का आदर करते और सेवकों से अच्छा बरताव करते। सेवकों के साथ मिल कर काम करते और उनसे बराबरी का व्यवहार करते। किसी को नीची नज़र न देखते और न कभी उसके आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचाते। जो कुछ कहते उस पर पहले स्वयं अमल करते तभी तो ईश्वर ने उन्हें पूरी मानवता के लिए परम-आदर्श बनाया।
आज हम 21 वीं सदी में जी रहे हैं। इन्सान अपने हम शक्ल की तस्वीर बनाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन चरित्र निर्माण से आजिज़ है। अब यह कहना पड़ रहा है कि हम सब कुछ कर सकते हैं, लेकिन अपने अन्दाज़ से, सोच से कुछ निर्माण नहीं कर सकते, अगर कर भी लें तो उसमें कोई न कोई नुक्स बाक़ी रह जाएगा। हक़ीक़त तो यह है कि अगर हमें चरित्र निर्माण करना है तो उसी कारखाने की तरफ जाना होगा, जो कि हज़रत मुहम्मद (स.) ने स्थापित किया था। आज की दुनिया की जितनी भी समस्याएं हैं, उन सब का हल संभव है, अगर हम हज़रत मुहम्मद (स.) के बताए हुए मार्ग पर चलने की कोशिश करें। उनके जीवन को आदर्श मान कर उसी तरह अपना जीवन व्यतीत करने का प्रण करें। उनके बातों पर अमल करने की कोशिश करें। क्योंकि हज़रत मुहम्मद (स.) का जीवन आज भी इस दुनिया के लिए प्यार, शांति, एकता का संदेश देता है। और वैसे भी हज़रत मुहम्मद (स.) सम्पूर्ण दुनिया के भलाई के लिए आए थे। उनके बताए हुए रास्ते पर चलने में भी समाज का कल्याण ही कल्याण है।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हम लड़ेंगे साथी.....

दिलवालों की दिल्ली... नवाबों की दिल्ली... धड़कती दिल्ली... दुनिया है दिल्ली... दिलदार दिल्ली.... अब कॉमनवेल्थ गेम्स की दिल्ली बन चुकी है। इस कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर सरकार की इसे पेरिस बनाने का सपना साकार हो ना हो, लेकिन इस कॉमनवेल्थ गेम्स ने कितने गरीबों के सपनों को चकनाचूर किया है, इसका कोई अंदाज़ा नहीं लगाया गया।


गरीबों के इन्हीं टूटते-बिखरते सपनों पर केन्द्रित 37 मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म (वृत्त चित्र) “नई दिल्ली प्राईवेट लिमिटेड” जिसका निर्देशन ‘रविन्द्र एस। रंधावा’ और शोध कार्य दिल्ली की ‘हज़ारड सेन्टर’ ने किया है, पिछले दिनों दिल्ली विश्वविधालय व बवाना पुनर्वास कॉलोनी में देखने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। (हालांकि यह फिल्म दिल्ली व मध्य-प्रदेश के कई स्थानों के अलावा “VIBGYOR” इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई जा चुकी है।)
इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म की शुरूआत दिल्ली के मंडावली, नंगला माची, वज़ीरपूर, बनूवल नगर, तैमूर नगर और बवाना के लोगों का शुक्रिया अदा करते हुए आम आदमी के दर्द से हुई है, और फिर शुरू होता है दिल्ली की चमक-दमक और बड़े लोगों (एस। रघुनाथम, सीता रैन, सी.आई.आई. के वाईस चेयरमैन, नलीन एस.कोहली, विक्रम चंद्रा, अंकुर भाटिया, प्रोविर डे एवं ई.श्रीधरन आदि-अनादि) के सपने व विज़न...


इस प्रकार इस पूरी फिल्म में अमीरों व गरीबों के बीच होने वाले जंग को बड़े दिलचल्प अंदाज़ में पेश किया गया है। यह फिल्म लोकतंत्र के समक्ष कई सवाल खड़े करती है- “ क्या हम इस धरती पर बोझ की तरह हैं कि हर कोई हमें शहर से निकालना चाहता है...? क्या हमारी वजह से ही नदी मैली होती है, बीमारी फैलती है, कुकर्म बढ़ता है, और सारे मोहल्ले में सड़न की बू आती है... ? ”


“ ज़रा सोचिए! शहर में हमारा क्या हाल होता होगा, जहां पीने की पाईप नहीं, नाली नहीं, बिजली औने-पौने आता हो, एक बारिश में सारी बस्ती डूब जाती हो, पानी मटमैला पीते हैं, और निकासी की कोई जगह न हो। और कौन सा ईंधन जला रहे हैं कि गर्मी फैल रही है...? काम पर जाते हैं तो कौन हमारे लिए एयर कंडीशन गाड़ी लेकर खड़ा है... ? वही चप्पल चटकाओ या साईकिल का पैडल घुमाओं, दूर जाना हो और जेब भारी हो तो बस में धक्के खाओ। हम सारे समाज काम करते हैं। शहर चलता है तो हमसे। फिर भी हमें ही बेघर क्यों किया जाता है... ? हमारे वोट से चुना हुआ नेता बिल्डरों के इशारे पर नाचता है। राजा स्वामी, बापू आशाराम, जगदीश टाइटलर जैसे लोग सरकारी ज़मीनों पर कब्ज़ा रखा है। 29 असंवैधानिक कब्ज़ा यमूना के किनारे हैं, उन्हें खाली क्यों नहीं कराया जाता... ? 30-40 साल हमने यहीं गुज़ार दिया, घर भी छोड़ दिया, गांव भी छोड़ दिया, आखिर अब जाए तो कहां जाएं... ? ”


बीच-बीच में आंकडों का इस्तमाल इस फिल्म को ज्ञानवर्धक बनाने का कार्य करता है। साथ ही यह फिल्म पुलिस वालों के ज़ुल्म को उजागर करती है। देश के कानून-व्यवस्था व सरकार पर कई सवाल खड़े करती है। पुनर्वास के नाम पर होने वाली धांधली को बताती है। बच्चों के शिक्षा की चिंता और विस्थापन के दर्द को दिखाती है।


इस पूरी फिल्म का कैमरा भी निर्देशक ‘रविन्द्र एस. रंधावा’ ने ही किया है। उन्होंने इस फिल्म के माध्यम से इस बात पर ज़ोर दिया है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर हज़ारों करोड़ रूपये खर्च हो रहे हैं, जो जनता का पैसा है, और गरीबों को शहर में रहने का पूरा हक़ है। यदि उनके हक़ को छिना गया तो वो कुछ भी कर सकते हैं। इस प्रकार अवतार सिंह ‘पाश’ की चंद पंक्तियों के साथ यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म खत्म होती है----


“......हम लड़ेंगे साथी, कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे साथी, कि अब तक हम क्यों नहीं लड़े......”



अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

हॉकी के लिए डाली गयी आर.टी.आई.

सेवा में,

जन सूचना अधिकारी
खेल मंत्रालय, भारत सरकार
नई दिल्ली-01

विषय:- सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत आवेदन

महोदय,
सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत निम्न सूचना उपलब्ध कराई जाए:-

1. “हॉकी इंडिया” की स्थापना कब हुई..?

2. “हॉकी इंडिया” का पिछले पांच वर्षों का बजट क्या रहा है। प्रत्येक वर्ष का अलग-अलग बताएं।

3. हॉकी के अंत्तराष्ट्रीय टीम के लिए मंत्रालय के पास क्या योजनाएं हैं।

4. इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए कितनी राशि खर्च की गई।

5. पिछले तीन वर्षों में हॉकी के उत्थान के लिए जो योजनाएं बनाई गई हैं, उन समस्त योजनाओं का विवरण उपलब्ध कराएं।

6. हॉकी के उत्थान के लिए भारत में कौन-कौन सी संस्थाएं उत्तरदायी हैं। सूची उपलब्ध कराएं।

7. हॉकी इंडिया में चुनावों की क्या प्रक्रिया रही है और यह कितने सालों में कराया जाता है। पिछला चुनाव कब कराया गया था।

8. पिछले पांच सालों में “हॉकी इंडिया” को कितनी आमदनी हुई और कितना खर्च हुआ। खर्च का ब्योरा उपलब्ध कराएं।

9. मंत्रालय द्वारा हॉकी व क्रिकेट खिलाड़ियों को कितनी सैलरी दी जाती है। अलग-अलग ब्योरा उपलब्ध कराएं।

10. “हॉकी इंडिया” से जुड़े वर्तमान सभी अधिकारियों के नाम व पद की सूची उपलब्ध कराएं। साथ ही अलग-अलग यह भी बताए कि इन्हें प्रत्येक माह कितनी सैलरी दी जाती है।

11. हॉकी विश्व कप-2010 के लिए मंत्रालय द्वारा कितना खर्च किया गया है।

12. हॉकी विश्व कप-2010 के विज्ञापन पर आने वाले खर्च का ब्योरा उपलब्ध कराएं।




मैं इस आवेदन के साथ आवेदन शुल्क के रुप में 10 रुपये का इंडियन पोस्टल ऑर्डर (84E 161510) संलग्न कर रहा हूं।


(1. नोट:- यदि इस आवेदन के किसी सवाल का संबंध आपके विभाग से नहीं है तो सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 की धारा- 6(3) के तहत इस आवेदन को 5 दिनों के भीतर संबंधित विभाग या जन सूचना अधिकारी को प्रेषित करें, साथ ही साथ क़ानून के प्रावधानों के तहत हमें भी इसकी सूचना दें।)
(2. नोट:- समस्त सूचनाएं राष्ट्रभाषा हिन्दी में उपलब्ध कराने की कृपा करें।)


सधन्यवाद.

अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’
c/o:- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
एफ-56/23, सर सैय्यद रोड,
बटला हाउस, ओखला, नई दिल्ली-25.
दिनांक:- 20.02.2010

Memorandum to President and Prime Minister of India.

Memorandum

To,
Smt. Pratibha Devi Patil
The President of India.
Rashtrapati Bhawan,
New Delhi-110004


The Fate of Indian Hockey


Is it not disgraceful that a country with a population of more than a billion fails to survive for its national sport? This in short is the account of the downfall of Indian Hockey which is upsetting not only for hockey enthusiasts in India, but for sports fan all over the world.

1920’s and 1960’s India bags eight gold, one silver, two bronze medals in eighteen successive appearances in the Olympics. Six of the eight gold medals came in consecutive appearance. In 2008 India fails to even qualify for the Beijing Olympics. We know that there is no dearth of talent. What we require is a functional and active body at the centre that can exploit and capitalize on this talent.

Hockey tournaments are needed at the school level, University level, district level and state level to generate and inculcate interest in this sport amongst the children and youth.

When the Indian cricket team won the 20-20 tournament, they were awarded lavish bungalows, cash prizes and treated like heroes. But, does anyone even remember the amount of coverage that was given to the Hockey team at that time which won the Asia Cup?

The important question arises that why cricket seems to be the only sport that everyone follows.

The hockey federation in India should gain knowledge of marketing their sport from the BCCI who have capitalized on the 20-20 auctions and even the ‘Chak de’ theme.

(Ironically every game seems to have benefited from it except for hockey on which it was actually based). The government of India should want to take some serious and effective efforts, to save our National sport hockey. We need not blame the hockey players for not performing. What incentives did cricketers get and what incentives got hockey players for performing.

At a time, when cricketers are making crores and staying in five star hotels while, Hockey players have do with staying in the premises of the national stadiums. With such bad conditions, we do not blame them if they quit the sport in search of a more stable livelihood.

At a time when Hockey world Cup is began, we woke up and made a collective effort to revive our national sport. It might take time but let us not give up on it.

This is also true that the administration that has failed to capitalize upon chances that it got to revive the sport. Now the condition of our national game is worst and the Hockey is on life support that needs fresh ideas with deep interest. It needs fresh ideas with deep interest. It needs fresh minds and overall, it needs a new life. Our national game deserves much better than what it is getting now. Let us give it one.

When we compare a cricketer and a Hockey player. First, every Indian cricketer is being paid in lacs per match and when we are talking about Hockey ,its just In hundreds per match.

When we are talking about telecast rights there are 100 channels to bid for a cricket series but none of the channels turn up for a hockey match.

What a pitiable condition our national game is in!

The players who are playing without spectators and without sufficient money, the issues are enough to demoralize them.

At last but not the least, I would like to say that the Indian government should take some serious steps to promote our national game hockey. This is our tribute to our National game, which is losing its trace. Chak de Bharat . Zindabaad.



YUVA KOSHISH

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

BI-CYCLE RALLY TO PROMOTE HOCKEY

18 FEB 2010, NEW DELHI, A Bi-cycle Rally has been organized on 20 Feb, 2010 at 11:00 am from JAMIA MILLIA ISLAMIA to JANTAR MANTAR to promote Hockey. This initiative has been taken by “YUVA KOSHISH” a Non-government organization dedicated towards empowering the youth and promoting culture.
The citizens of our country are ignorant towards Hockey and the upcoming HOCKEY WORLD CUP TOURNAMENT which is going to take place in India in the next ten days.
This Rally is a step taken to make them aware, which will be attended by former Governor Syed Sibt-e-Razi, Ashok Mathur Delhi Hockey association, H.S.Kharbanda besides other personalities. students of various central universities of delhi would also participate to support the cause.
“YUVA KOSHISH” which has always tried to enlighten the youth and masses has thus taken upon itself to spread awareness about Hockey and revive its spirit.

FOR FURTHER DETAILS CONTACT:
Tahmeen Fatima—9310262802
Mohd. Anas—9871201340

“युवा कोशिश” की “साईकिल रैली”

18 फरवरी 2010, (नई दिल्ली) आगामी दस दिनों के बाद हॉकी का विश्व कप टूर्नामेंट दिल्ली में आयोजित होने जा रहा है। लेकिन अब भी मीडिया सिर्फ क्रिकेट पर ही ध्यान देने में व्यस्त है। देश की जनता भी इस राष्ट्रीय खेल के विश्व कप से परिचित नहीं है, और न ही मीडिया व सरकार ने देश की जनता को इससे परिचित कराने की कोई की है।
इन्हीं बातों के संदर्भ में सामाजिक मुद्दों पर युवाओं के बीच काम करने वाली संगठन “युवा कोशिश” देश की जनता को इस राष्ट्रीय खेल से बाखबर करने की कोशिश की है। जिसके तहत एक “साईकिल रैली” का आयोजन दिनांक 20 फरवरी, शनिवार 11 बजे दिन जामिया मिल्लिया इस्लामिया से जंतर-मंतर तक किया है।
इस “साईकिल रैली” में भूतपूर्व गवर्नर सैय्यद सिब्ते रज़ी, अशोक माथुर (सचिव, दिल्ली हॉकी एसोशियन), एच.एस. खरबंदा और हॉकी के अन्य प्रसिद्ध व्यक्तित्व के अलावा दिल्ली के तमाम केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के छात्र सम्मिलित रहेंगे।

अधिक जानकारी के लिए सम्पर्क करें:-
मोहम्मद अनस—9871201340.
तहमीन फातिमा—9310262802.

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

वैलेंटाइन डे और मीडिया

फ़रवरी की 14 तारीख.... वैलेंटाइन डे.... और पूरी मीडिया ‘वैलेंटाइनमय’..... लोगों को ‘वैलेंटाइन डे’ से संबंधित तरह-तरह की जानकारियां दी जा रही थीं। ‘लव-बड्स’ की अश्लीलता भरी बड़ी-बड़ी तस्वीरों से अखबारों के पन्ने भरे पड़े थे। अपने ‘प्रेमिका’ को प्रपोज़ करने के बेशुमार तरीक़े बताए जा रहे थे। बल्कि सच पूछिए तो ये सिलसिला फ़रवरी महीने के शुरू होते ही शुरू हो चुका था और फिर बाद में ‘फॉलो-अप’ का सिलसिला भी चलता रहा। ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पीछे कहां रहने वाली है। यहां भी तरह-तरह के प्रसंगों को दिखाया जा रहा था। सारे चैनलों पर तरह-तरह के कॉन्टेस्ट, कॉमेडी शोज़, वैलेंटाइन मैसेज़ कॉन्टेस्ट व वैलेंटाइन डे स्पेशल म्यूज़िकल शोज़ आदि-अनादि हावी थे। ज़रा सोचिए! अगर पुणे बम ब्लास्ट न हुआ होता तो फिर ये क्या करते...? शायद इसकी कल्पना हमारे व आपके समझ से बाहर है। इसका अंदाज़ा हम व आप लगा ही नहीं सकते।
दरअसल, संत बैलेंटाइन की याद में मनाया जाने वाला ‘वैलेंटाइन डे’ महज़ दिल लेने और दिल देने भर का त्यौहार नहीं, बल्कि मुहब्बत को एक इसेंशियल बिज़नेस कमोडिटी में परिवर्तित करने का उपक्रम भी है। यह आर्थिक उदारीकरण का भी एक सह-उत्पाद है। ‘डेवलपिंग जेनेरेशन’ बन रही पीढ़ी की पहचान हासिल कर रही एक प्रवृति है। वैलेंटाइन डे एक ऐसा त्योहार है, जिसे हम सही मायनों में भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक उत्पाद मान सकते हैं। एक पूरी तरह से गढ़ा हुआ कारोबारी त्योहार।
एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री ‘फ्रैंक काफरा’ ने जेनेवा के एक बैठक में कहा था कि दुनिया में आर्थिक गतिविधियों के बढ़ने के लिए, भूमंडलीकरण के विस्तार के लिए ज़रूरी है कि पूरी दुनिया में समान सांस्कृतिक गतिविधियां बढ़े, साझे सरोकार विकसित हों, साझी स्मृतियां और साझी संवेदनाएं विकसित हों। देखा जाए तो वैलेंटाइन डे कुछ-कुछ ‘फ्रैंक काफरा’ की साझी सांस्कृतिक गतिविधियों की अमूर्त कल्पना का ही त्योहार है। इस भूमंडलीकृत विश्व में यदि किसी एक सांस्कृतिक प्रतीक को चिन्हित करने के लिए कहा जाए तो शायद ही ‘वैलेंटाइन डे’ से बढ़िया कोई प्रतीक मिले। कांगो के बेसिन से लेकर कावेरी के तट तक शायद ही दूसरा ऐसा त्योहार हो जिसके मनाने वाले इतने विविध, इतने रंग-बिरंगे और इतनी ज़्यादा स्मृतियों वाले हों। यहां तक कि इस मामले में ‘हैटिंग्टन’ की थ्योरी भी एक तरह से देखें तो फेल दिखती है। ‘हैटिंग्टन’ कहते हैं कि दुनिया लगातार सांस्कृतिक आग्रहों के सभ्यागत दायरे में सिमट रही है। इसीलिए तमाम सभ्यताओं के बीच द्वंद की स्थिति पैदा हो गई है।
खैर इन्हीं अखबारों में विरोध की भी बहुत सी खबरें देखने को मिली, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इन खबरों को खुब परोसा, पर इनके दिखाने के अंदाज़ से ही ऐसा लग रहा था कि वो भी इन विरोधों का विरोध कर रहे हैं और वैलेंटाइन डे का समर्थन। बहरहाल, बात विरोध की हो या समर्थन की, सच तो यही है कि आधी-अधूरी ऐतिहासिकता वाली यह पर्व स्वतः स्फूर्त नहीं है। इसमें आधुनिक तकनीक, प्रबंधन की नायाब कला और कारपोरेट पूंजी की असीम ताक़त का सोचा-समझा मिश्रण है और अगर बात ‘मीडिया’ की बात की जाए तो उन्हें आज सामाजिक सरोकारों से कोई खास लेना-देना रह नहीं गया है। सच तो ये है कि मीडिया ‘पब्लिक’ के लिए नहीं, सिर्फ अपने ग्राहकों के हितों का ध्यान रखने की ओर उन्मूख हो चला है। वैसे भी मध्य वर्ग के लिए मीडिया एक प्रोडक्ट से अधिक कुछ नहीं है।
यही कारण है कि ‘वैलेंटाइन डे’ का कारपोरेट जगत द्वारा खुब प्रचारित किया गया ताकि इस अवसर पर प्यार के मारे बेवकूफ़ों को गुमराह बनाकर इस साल हज़ारों-करोड़ रुपयों का बिज़नेस किया जा सके। (पिछले वर्ष लगभग तीन हज़ार करोड़ रुपयों का कारोबार हो पाया था, और उससे पहले वर्ष 14 सौ करोड़ रुपये का) और मीडिया ने भी इस बहती गंगा में हाथ धोने के खातिर कारपोरेट जगत का खुब साथ दिया।
अब ज़रा आप स्वयं सोचिए कि जब कारपोरेट जगत व मीडिया दोनों का एक ही मक़सद हो तो ‘वैलेंटाइन डे’ क्यों पूरे देश में न फैले...? ऐसे में विरोध करने वालों और समाज के ज़िम्मेदार लोगों (जो संस्कृति की दुहाई देते हैं) को चाहिए कि वे समाज के साथ-साथ मीडिया का भी ‘सोशल ऑडिटिंग’ करें, क्योंकि जब तक मीडिया में ‘समाजिक जवाबदेही’ की प्रतिबद्धता पैदा नहीं होगी तब तक ‘प्रोफेशनलिज़्म’ और ‘आधुनिकीकरण’ के नाम पर ‘वैलेंटाइन डे’ जैसे त्योहार को बढ़ावा मिलता रहेगा।

अफ़रोज़ आलम साहिल

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

आर.टी.आई.अवार्ड्स की सूचना के लिए डाली गयी प्रथम अपील

सेवा में,
प्रथम अपीलीय अधिकारी
पब्लिक कॉज़ रिसर्च फाउंडेशन
A-119, कौसाम्बी, गाज़ियाबाद,
उत्तर प्रदेश- 201010.

विषय:- सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत प्रथम अपील

महोदय,

मैंने सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत आपके संस्था के जन सूचना अधिकारी को दिनांक 04.01.2010 को एक आवेदन दिया था। (आवेदन की प्रतिलिपी संलग्न) लेकिन आज लगभग 40 दिनों बाद भी मुझे कोई सूचना उपलब्ध न हो सकी, जबकि सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के प्रावधानों के तहत ये काम 30 दिनों के अंदर होनी चाहिए थी। इस प्रकार यह सूचना का अधिकार क़ानून की अवहेलना है और इससे पब्लिक कॉज़ रिसर्च फाउंडेशन की गरिमा भी कलंकित हुई है।

यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि आपके संस्था से जुड़े अरविन्द केजरीवाल ने पिछले दिनों मीडिया (आज समाज, हिन्दी दैनिक) को यह बयान दिया कि पब्लिक कॉज़ रिसर्च फाउंडेशन सूचना के अधिकार कानून के दायरे में नहीं आता है, लेकिन फिर भी यह पारदर्शिता लाने के लिए संबंधित जवाब देगा, लेकिन अफसोस! 40 दिनों के बाद भी आपके जन सूचना अधिकारी इस कार्य को पूरा न कर सके और कुछ भी सूचना देने में असमर्थ रहे।

एक और बयान में उन्होंने बताया कि आवेदक को जानकारी देने और संबंधित कागज़ात देखने के लिए ऑफिस बुलाया था, लेकिन वह नहीं आए। तो यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि 13 जनवरी 2010 को उन्होंने फोन किया था, जिसमें उन्होंने कहा कि “....सारा ऑफिस आपका ही है, जब चाहो, आ जाओ। वैसे तुम्हारी प्रोब्लम क्या है......” लेकिन मैंने स्पष्ट रूप कह दिया था कि इसकी सूचना आप लिखित में दें। पर ऐसा कभी नहीं हुआ। और वैसे भी सूचना का अधिकार क़ानून के तहत जानकारी लिखित रूप में दी जाती है, न कि ऑफिस में चाय पर आने की दावत दी जाती है।

महोदय, यह कितनी शर्म की बात है कि सूचना के अधिकार पर अवार्ड देने वाली संस्था अपने को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में मानता। यह तो उन तमाम संस्थाओं के लिए चिल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात है जो देश में पारदर्शिता बहाल करने हेतु कार्य कर रहे हैं। और फिर पब्लिक कॉज़ रिसर्च फाउंडेशन तो उनको बढ़ावा देने की बात करती है, जो देश में पारदर्शिता बहाल करना चाहते हैं, देश से भ्रष्टाचार खत्म करना चाहते हैं।

अत: इस संदर्भ में श्रीमान से यह निवेदन है कि सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा-18 या 19(1) के तहत इस विषय पर सुनवाई करते हुए जन सूचना अधिकारी को तुरंत सूचना उपलब्ध कराने का आदेश दें। साथ ही, सूचना के अधिकार अधिनियम के उल्लंघन के लिए जन सूचना अधिकारी पर अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार जुर्माना भरने का आदेश दें।

मैं आशा करता हूं कि मेरे इस अपील या शिकायत पत्र को गंभीरता से लेते हुए इस दिशा में तत्काल कार्यवाही की जाएगी ताकि मुझे जानकारी मिल सके और सूचना कानून में नागरिकों को दिए गए अधिकारों और पारदर्शिता पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों का मान व मर्यादा बनी रह सके।

आपसे न्याय की अपेक्षा सहित,




सधन्यवाद.

अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’
c/o:- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
एफ-56/23, सर सैय्यद रोड,
बटला हाउस, ओखला, नई दिल्ली-25.
दिनांक:- 13.02.2010

(नोट:-इस अपील के साथ आवेदन की प्रतिलिपी संलग्न है।)

Batla House encounter: Is CIC also under pressure?

By TCN News,
New Delhi: This past February 9 the Central Information Commission had summoned Delhi Police in Batla House encounter case. The CIC was to conduct second hearing on an RTI petition seeking post-mortem reports of those killed in the shootout and details about other Delhi serial blasts accused. But did the hearing take place? If yes, what is the CIC’s ruling? Nobody knows because attempts from mediapersons to get details from CIC drew blank.

RTI activist and petitioner in the case Afroz Alam Sahil could not attend the hearing as he was appearing in exam (He is Mass Communication student at Jamia Millia Islamia). But in the evening he contacted several mediapersons who had contacted the CIC about the hearing and he came to know that CIC did not disclose anything about what transpired in the hearing.

RTI activist Afroz Alam Sahil filed the petition with the Delhi Police on September 25, 2008, six days after the encounter. He had sought information on six counts: Number of people killed in Batla House encounter with their details; post-mortem report of each of them; copy of FIR if filed on the day of the encounter; number of people picked and arrested in connection with the Delhi serial blasts with their details (name, father’s name etc); from where these people were picked or arrested; evidence of involvement of those picked and not released.

But he did not get any response from the police. He filed first appeal on October 29, 2008 and two days later he got a reply from the police wherein he was told about the number of people killed in the shootout and that the FIR was filed on that day. He was not provided any other information nor any document on the ground that this will hamper investigation.

Then Afroz filed second appeal on January 27, 2009 as his queries were not replied properly. The hearing on this appeal should have been held within 90 days according to RTI law but the CIC took more than one year to conduct the hearing. This was to happen on February 9.

It should be noted that the same CIC in its June 9, 2009 hearing on the application of Afroz Alam Sahil had asked India’s premier hospital AIIMS – where the autopsy was conducted on blasts suspects Mohammed Atif Amin and Sajid, and Delhi Police Inspector Mohan Chand Sharma – to provide the autopsy reports and other relevant information to the RTI applicant Sahil. But about a month later, the CIC withdrew its own order.

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

CIC summons Delhi Police in Batla House encounter case

Delhi Police refuses to give copy of FIR and post-mortem reports of those killed in encounter...

Danish Raza | New Delhi | February 06 2010

The Central Information Commission has summoned Delhi Police in connection with the Batla House encounter case on February 9.

This follows an RTI application from Afroz Alam Sahil, a student of the Jamia Millia Islamia, who sought to know details of the case.

In the application filed on September 25, 2008, six days after the encounter, Sahil sought to know the number of people killed in the encounter with their personal details, post-mortem report of each of them and copy of the FIR if filed on the day of the encounter.

He got no response and filed the first appeal.

On October 31, 2008, he got a reply from Delhi Police that three people were killed in the encounter and an FIR was lodged in the case.

He was not given a copy of the FIR and post-mortem reports.

Sahil approached the CIC again on January 27, 2009, on the ground that complete information was not given to him. On Friday, he got a letter from the CIC asking him to be present before Information Commissioner Sushma Singh on February 9.

Two suspected militants and a senior policeman were killed in the encounter which took place in Delhi’s Batla House. One of the suspects, Shehzad, believed to be an Indian Mujahideen operative was caught, while one Junaid managed to flee.


(Danish Raza is a Principal Correspondent with Governance Now. He started his journalism career in 2005 with the Pioneer newspaper, New Delhi. He was with NewsX for two years before joining Governance Now in October 2009. He received his Bachelor’s degree at Delhi University and his Post Graduate Diploma in convergent journalism at Jamia Millia Islamia University, New Delhi)


सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

निर्धारित अवधि के भीतर सूचना उपलब्ध नहीं

अभिनव उपाध्याय, आज समाज, नई दिल्ली
महीने की निर्धारित अवधि के बाद भी आरटीआई अवार्ड से संबंधित जानकारी सूचना अधिकार कानून का प्रचार प्रसार करने वाली एक संस्थान द्वारा न देने का आरोप एक आवेदक ने लगाया है। उसका कहना है कि ऐसी संस्थाएं आरटीआई का प्रचार-प्रसार के लिए जानी जाती हैं, लेकिन स्वयं एक महीने की निर्धारित अवधि के भीतर सूचना उपलब्ध नहीं कराती।

आवेदन कर्ता अफरोज आलम साहिल ने पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन से इस संबध में सूचना मांगी थी, लेकिन उनके अनुसार सूचना देने की निर्धारित अवधि बीत जाने के बाद भी इस अधिकार पर काम कर रहे लोग यदि सूचना नहीं दे रहे हैं तो निश्चित रूप से यह उनकी कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न् खड़ा करता है। आवेदक ने इस अवार्ड में होने वाले धन खर्च, संबंधित अधिकारियों के यात्रा खर्च समेत कुल 18 सवालों के जबाव मांगे थे।

इस संबंध में पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन के अरविंद केजरीवाल का कहना है कि फाउंडेशन सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं आता है, लेकिन फिर भी यह पारदर्शिता लाने के लिए संबंधित जवाब देगा। उन्होंने यह भी कहा कि आवेदक अफरोज को जानकारी देने और संबंधित कागजात देखने के लिए आफिस बुलाया था, लेकिन वह नहीं आए। उनके प्रश्न के कुछ उत्तर अभी संकलित नहीं हुए हैं, जसे यात्राओं का विवरण आदि जो आवेदक चाहे तो आकर रसीद देख सकता है। फिर भी जब आवेदन प्राप्त हुआ है उसके एक महीने के भीतर उन्हे ये संबंधित जानकारियां दे दी जाएंगीं।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

राहुल गाँधी के महाराष्ट्र दौरे पर डाली गयी आर टी आई

सेवा में,

जन सूचना अधिकारी
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया
नई दिल्ली.

विषय:- सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत आवेदन


महोदय,
सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के तहत निम्न सूचना उपलब्ध कराई जाए:-

1. राहुल गांधी का दिनांक 05 फरवरी 2010 का महाराष्ट्र दौरा एक राजनीतिक दौरे के साथ-साथ एक पार्टी के प्रतिनिधी के तौर पर किया गया दौरा था, फिर भी इस दौरे पर महाराष्ट्र सरकार के सभी मंत्री (मुख्यमंत्री सहित) राहुल गांधी के लिए पलक बिछाए बैठे रहे। इस संबंध में बताएं कि:-

a) इस कार्य में महाराष्ट्र सरकार द्वारा किया गया अपव्यय एवं कार्यलोप किस कानून के अंतर्गत आता है।

b) क्या यह सरकारी अमले एवं जनता के पैसे का दुरूपयोग नहीं है।

c) क्या यह संवैधानिक पद के मर्यादा का दुरूपयोग नहीं है।

d) अगर है, तो इसे किन संवैधानिक प्रावधानों या वैधानिक विधियों के तहत रोकने की व्यवस्था की गई है।

2. क्या किसी राजनीतिक पार्टी के प्रतिनिधी द्वारा किसी भी सरकारी या गैर सरकारी शैक्षणिक संस्थान में जाकर अपने पार्टी का प्रचार-प्रसार करने का अधिकार है। यदि नहीं, तो संविधान के किस कानून के तहत इसे रोका जा सकता है।


मैं इस आवेदन के साथ आवेदन शुल्क के रुप में 10 रुपये का इंडियन पोस्टल ऑर्डर (84E 163316) संलग्न कर रहा हूं।



(1. नोट:- यदि इस आवेदन के किसी सवाल का संबंध आपके विभाग से नहीं है तो सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 की धारा- 6(3) के तहत इस आवेदन को 5 दिनों के भीतर संबंधित विभाग या जन सूचना अधिकारी को प्रेषित करें, साथ ही साथ क़ानून के प्रावधानों के तहत हमें भी इसकी सूचना दें।)
2. नोट:- समस्त सूचनाएं राष्ट्रभाषा हिन्दी में उपलब्ध कराने की कृपा करें।)




सधन्यवाद.

अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’
c/o:- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
एफ-56/23, सर सैय्यद रोड,
बटला हाउस, ओखला, नई दिल्ली-25.
दिनांक:- 06.02.2010



CIC summons Delhi Police to RTI hearing on Batla encounter

By Mumtaz Alam Falahi, TwoCircles.net

New Delhi: The Central Information Commission has summoned Delhi Police to a hearing on an RTI petition seeking details about the Batla House encounter and the Delhi serial blasts accused. The hearing – for which the Commission has taken more than one year against the provision of 90 days – will be held on February 9 on the second appeal of the RTI petitioner.


The petition has sought information on six counts: Number of people killed in Batla House encounter with their details; post-mortem report of each of them; copy of FIR if filed on the day of the encounter; number of people picked and arrested in connection with the Delhi serial blasts with their details (name, father’s name etc); from where these people were picked or arrested; evidence of involvement of those picked and not released.


RTI activist Afroz Alam Sahil filed the petition with the Delhi Police on September 25, 2008, six days after the encounter. He did not get any response from the police. He filed first appeal on October 29, 2008 and two days later he got a reply wherein he was told about the number of people killed in the shootout and that the FIR was filed on that day. He was not provided any other information nor any document.


Sahil filed second appeal on January 27, 2009 as his queries were not replied properly. The hearing on this appeal should have been held within 90 days according to RTI law but the CIC itself took more than one year to conduct a hearing which will be on coming February 9.
As the Azamgarh visit of Congress leader Digvijay Singh – where he cast doubt on the genuineness of the Batla House encounter citing the bullet holes on the upper side of Sajid, a Delhi serial blast accused – it will be interesting to see if the Delhi police provide post-mortem reports and other details sought by the RTI petitioner.

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

नीतिश के बिहार की तरक़्क़ी और मीडिया

यह कहने में कोई अतिश्योक्ती नहीं है कि बिहार खूब तरक़्क़ी कर रहा है। हर दिन विकास के नए-नए योजनाओं की घोषणाएं हो रही हैं। विकास कार्यों के विज्ञापन अखबारों में खूब छप रहे हैं। हर दिन किसी न किसी काम का शिलन्यास हो रहा है। यानी हम कह सकते हैं कि बिहार अब तरक़्क़ी को लात मार रहा है। इसके लिए बधाई के पात्र हैं हमारे ‘सुशासन बाबू’ यानी हमारे नीतिश कुमार जी।
लेकिन विकास की जो तस्वीर मीडिया ने बिहार व देश की जनता के सामने पेश की है, वो बिल्कुल ‘सच’ नहीं है। क्योंकि नीतिश जी के बिहार में एक ऐसा वार्ड भी है जहां विकास का कोई कार्य नहीं हुआ है। ये बातें मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि बिहार के पश्चिम चम्पारण ज़िला के “बेतिया नगर परिषद” सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत लिखित रूप में कह रही है।
यह बात कहने वालों की फहरिस्त लंबी है। पटना पश्चिम पथ प्रमंडल, पटना के अनुसार वर्ष 2005 से 2009 तक विधायकों द्वारा विकास कार्य का ब्यौरा और उन पर आने वाले खर्चों का ब्यौरा शुन्य है। उधर पथ प्रमंडल विभाग, पटना का भी कहना है कि इस प्रमंडल का कार्य-क्षेत्र पटना शहरी क्षेत्र है और वर्तमान कार्यकाल में विधायक-कोष से कोई भी कार्य नहीं हुआ है। पथ प्रमंडल, मुंगेर का कहना है कि पिछले 12 वर्षों के अंदर इस प्रमंडल के विधायक के ज़रिए विधायक फंड से कोई भी काम नहीं कराया गया है। पथ प्रमंडल, भागलपूर का कहना है कि एम.एल.ए. फंड से न तो पिछले सालों में कोई पैसा मिला है और न हीं वर्ष 2008-09 में ही। पथ प्रमंडल, बिहारशरीफ के मुताबिक इस प्रमंडल के अन्तर्गत विधायकों द्वारा विधायक-कोष ये कोई भी कार्य नहीं कराया गया है। शाहाबाद पथ प्रमंडल, आरा के अन्तर्गत भी विधायक निधी से कोई भी कार्य नहीं कराया गया है। यही बात पथ प्रमंडल, मोतिहारी, डिहरी-ऑन-सोन, जमुई, लखीसराय, बांका और नवादा भी कह रही है।
सूरसंड प्रखंड कार्यालय के मुताबिक वर्ष 2006-07 से लेकर वर्ष 2008-09 तक विकास का कोई भी काम नहीं हुआ है। प्रखंड विकास कार्यालय, पुपरी (सीतामढ़ी) यह बता रहा है कि सीतामढ़ी ज़िला के तहत पिछले सांसद के द्वारा एम.पी. फंड से कोई भी काम इस कार्यालय के द्वारा नहीं हुआ है। वहीं पुर्णिया विधुत अधीक्षक अभियंता कार्यालय पुर्णिया व किशनगंज के विकास कार्यों के संबंध में यह बता रहा है कि पिछले सांसद के फंड से “जमा योजना” के तहत 85,72,500/- रुपये उपलब्ध हुए हैं, लेकिन फिलहाल इस रुपये से विकास का कोई काम नहीं हो पाया है। किशनगंज के पूर्व सांसद के द्वारा एम.पी. फंड से कोई पैसा हासिल नहीं हुआ, इसलिए विकास के किसी काम का प्रश्न ही नहीं उठता।
खैर, सबसे खुशी की बात यह है कि इस बार के 15वीं लोकसभा चुनाव में बिहार में पहली बार मीडिया के माध्यम से विकास का मुद्दा हावी रहा और नीतिश को इसका ज़बरदस्त फायदा भी मिला। खुद नीतिश कुमार ने इस चुनाव में अपने को विकास का पहरुआ बताया और साथ ही केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया, यह कहते हुए कि “केन्द्र की यूपीए सरकार बिहार को वाजिब हक़ नहीं दे रही है। उल्टे राज्य की तरक़्क़ी केन्द्र सरकार के फंड से होने की बात यूपीए के नेता कह रहे हैं। इनका कहना सरासर झूठ और गलत है।” नीतिश के इस बात की मीडिया में काफी स्पेस मिला।
लेकिन बिहार सरकार के ही कागज़ात चुनावी मौसम के इस सियासी ज़बान की कुछ और चुगली करते नज़र आ रहे हैं। बिहार के विकास की एक अलग कहानी बता रहे हैं। उस तरक़्क़ी की, जिसके सहारे नीतिश कुमार ने 20 सीटें हासिल की है। बिहार सरकार से सूचना का अधिकार के तहत मिली जानकारी के ज़रिए यह साफ़ दिखाई देता है कि केन्द्र सरकार ने गत दो वर्षों में बिहार के नीतीश सरकार को जितनी मदद की है, उतनी लालू-राबड़ी सरकार को 6 वर्षों में भी नहीं। इतना ही नहीं, जानकारी यह भी बताती है कि पहली बार अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से राज्य को बड़ी मदद मिलने में सफलता तो मिली पर राज्य सरकार इस राशि को विकास के कार्यों पर खर्च करने में असफल रही है और मिले पैसों का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है।
आंकड़े बताते हैं कि एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान वर्ष 2003-04 में राज्य सरकार को केंद्र से 1617.62 करोड़ रूपए मिले थे। पर केंद्र में सरकार बदलने के बाद यूपीए ने राज्य सरकार को लगभग दोगुना पैसा देना शुरू किया। पहले ही वित्तीय-वर्ष यानी 2004-05 में केंद्र ने राज्य सरकार को 2831.83 करोड़ रूपए की राशि उपलब्ध कराई, ताकि बिहार तरक़्क़ी कर सके।
इसके बाद राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालें। भाजपा समर्थन से बनी इस सरकार को वर्ष 2005-06 में 3332.72 करोड़ रूपए केंद्र सरकार से मिले। वर्ष 2006-07 में 5247.10 करोड़ और इसके अगले वित्तीय-वर्ष यानी वर्ष 2007-08 में यह राशि बढ़ाकर 5831.67 करोड़ कर दी गई। इसके बाद के आंकड़े राज्य सरकार उपलब्ध नहीं करा पाई है पर अधिकारी मानते हैं कि केंद्र से मदद बढ़ी ही है। इस प्रकार राज्य सरकार से मिले आंकड़ों की बात करें तो यह बताती है कि वर्तमान राज्य सरकार को मात्र तीन वित्तीय वर्षों में ही 14411.50 करोड़ मिले, जबकि पिछली राज्य सरकार को पांच वित्तीय वर्षों में कुल 7984.56 करोड़ ही प्राप्त हुए।
एक तथ्य और है जो राज्य सरकार के विकास कार्यों पर होने वाले खर्च पर सवाल उठा देता है। आंकड़े कहते हैं कि पैसे लेने में चुस्त सरकार, उसे खर्च करने में सुस्त रही है।
राज्य सरकार को वर्ष 2006-07 में विश्व बैंक से गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के लिए 92.92 लाख मिले पर खर्च हुए कुल 60 लाख रूपए। अगले वित्तीय-वर्ष यानी 2007-08 में ग़रीबी उन्मूलन, लोक व्यय एवं वित्तीय प्रबंधन और बिहार विकास ऋण के लिए राज्य सरकार को 464.15 करोड़ रूपए मिले पर दस्तावेज़ बताते हैं कि राज्य सरकार ने इनमें से सिर्फ 6.13 करोड़ रूपए ही खर्च किए हैं। इसके अगले वर्ष नीतिश जी को कुछ अक़्ल आई और पैसे को किसी तरह से इस्तेमाल करने की कोशिश की। इस वर्ष यानी 2008-09 में विश्व बैंक ने 13.35 करोड़ रुपये बिहार सरकार को दिए और सरकार ने 20.95 करोड़ खर्च करने का कारनामा अंजाम दिया।
नीतिश कुमार के झांसे में अल्पसंख्यक भी रहे। जिन पैसों को अल्पसंख्यक छात्रों के बीच स्कॉलरशिप के रुप में बांट कर अपनी पीठ थपथपाई, दरअसल वह पैसे केन्द्र की यूपीए सरकार ने अपनी स्कीम के तहत उपलब्ध कराई थी। बिहार सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण विभाग द्वारा सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के मुताबिक बिहार में वर्ष 2007-08 के दौरान कुल 3,72,81,738/- रुपये मेधा-सह-आय आधारित योजना के अन्तर्गत अल्पसंख्यक छात्र/छात्राओं के बीच केन्द्र सरकार ने बांटे, न कि बिहार सरकार ने। 15 अगस्त 2008 को नीतिश कुमार ने मुस्लिम गरीब बच्चों के लिए ‘तालीमी मरकज़’ खोलने का ऐलान किया। लेकिन जब बिहार सरकार से सूचना अधिकार कानून के तहत यह पूछा गया कि अब तक कितने ‘तालीमी मरकज़’पूरे बिहार में खोले गए हैं, तो बिहार सरकार ने इस संबंध में कोई जानकारी देना मुनासिब नहीं समझा।
बहरहाल, अल्पसंख्यको के उत्थान एवं विकास के लिए नीतीश सरकार ने कई कार्य किए। जिनकी फहरिस्त भी लम्बी है। जैसे:- 1) अल्पसंख्यक छात्रावास का निर्माण, 2) अल्पसंख्यक भवन-सह- हज हाउस, 3) राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम को हिस्सा पूंजी, 4) बिहार राज्य अल्पसंख्यक वित्तीय निगम को हिस्सा पूंजी, 5) वक्फ सम्पत्ति के सर्वे का कम्पयूटराईजेशन, 6) कॉलेज में पढ़ रहे छात्र/छात्राओं को छात्रवृति, 7) लोक सेवा आयोग की तैयारी हेतु कोचिंग, 8) वक्फ सम्पत्ति की सुरक्षा एवं संवर्द्धन हेतु रिवालविंग फंड, 9) परित्यक्ता मुस्लिम महिलाओं को सहायता हेतु राशि। पर इन सभी योजनाओं पर वर्ष 2005-06 में खर्च हुए सिर्फ 12,53,72,450/- रुपये, जबकि वर्ष 2006-07 में 19,64,85,100/- रुपये और वर्ष 2007-08 में 21,05,46,400/- रुपये खर्च हुए। जबकि बिहार में अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग दो करोड़ है। अब इस खर्च से ही आप अंदाज़ा लगा लीजिए कि ये बिहार में अल्पसंख्यकों की इतनी बड़ी आबादी को कितना फायदा पहुंचा सकता है।
नीतीश सरकार ने बिहार के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों की आर्थिक नस दबा रखी है। इसके लिए सरकारी विज्ञापनों को जरिया बनाया है। क्योंकि राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह बताते हैं कि वर्तमान राज्य सरकार का काम पर कम और विज्ञापन पर ज़्यादा ध्यान रहा है। बिहार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा वर्ष 2005-09 के दौरान यानी नीतिश के कार्यकाल के चार सालों में लगभग 38 हज़ार अलग-अलग कार्यों के विज्ञापन जारी किए गए और इस कार्य के लिए विभाग ने 44.56 करोड़ रुपये खर्च कर दिए, जबकि लालू-राबड़ी सरकार अपने कार्यकाल के 6 सालों में सिर्फ 23.90 करोड़ ही खर्च किए थे।
तो ज़ाहिर है कि नीतिश के कार्यकाल में सबसे ज़्यादा फायदा यहां के मीडिया उधोग को हुई है। इसलिए वो ‘विकास’ के पीछे के सच को जनता के सामने लाना मुनासिब नहीं समझते। इन्हें इस बात का डर है कि अगर इन सच्चाईयों पर से पर्दा उठा दिया तो सरकारी विज्ञापनों से हाथ धोना पड़ सकता है। (क्योंकि राज्य विज्ञापन नीति ( स्टेट एडवर्टिजमेंट पॉलिसी)- 2008 के तहत अगर किसी मीडिया संस्थान का काम राज्य हित में नहीं हैं तो उसे दिये जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं। उसे स्वीकृत सूची से किसी भी वक़्त बाहर किया जा सकता है।) इस बात का अहसास मुझे तब हुआ, जब पूरे कागज़ात व सबूत के साथ उपरोक्त सच्चाईयों को दिल्ली के दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित करने को दिया। लेते वक़्त तो इसे बहुत बड़ी ख़बर बताई गई, लेकिन अगले ही हफ्ते यह बताया गया कि यह स्टोरी हमारे अखबार में नहीं छप सकती। कारण मालूम करने पर पता चला कि पटना के संपादक इसे छापने को तैयार नहीं हैं। राष्ट्रीय सहारा हिन्दी से यह मालूम हुआ कि वो उस राज्य सरकार के खिलाफ कुछ भी प्रकाशित नहीं कर सकते, जिस राज्य से उनका अखबार प्रकाशित होता है। इसके बाद इस स्टोरी को नई दुनिया को भेजा, लेकिन उन्होंने भी इसे न छापने में अपनी भलाई समझी। इसके अलावा हमारी बात बिहार के कुछ पत्रकारों से भी हुई, जिन्होंने इसे छापने से मना कर दिया। यहीं नहीं, इस स्टोरी के संबंध में मेरी बात एनडीटीवी के प्रसिद्ध पत्रकार से भी हुई, जिन्होंने इसे अच्छी स्टोरी बताते हुए इसे अपने चैनल पर दिखाने के वादे के साथ टाल गए। बहरहाल, इस खबर की अहमियत को सिर्फ बीबीसी और उर्दू मीडिया के एक दो अखबारों ने समझी। उन्होंने अपने वेबसाईट और अपने अखबार के पहले पन्ने पर जगह दिया, जिसका ज़िक्र एक स्वतंत्र पत्रकार ने दैनिक हिन्दुस्तान में अपने कॉलम “उर्दू मीडिया” में किया।
बात यहीं खत्म नहीं होती। जिन विकास कार्य के नाम पर करोड़ों खर्च किए गए हैं, उस विकास कार्य की जानकारी आम लोगों को कौन कहे, यहां के पढ़े-लिखे लोगों तक को नहीं है। जैसे बीमार बिहार को स्वस्थ करने की नियत से शुरु की गई कॉल सेंटर “समाधान” का उदाहरण ही आप देख लीजिए। खैर बिहार की जनता स्वस्थ हो न हो, कम से कम सरकारी अफसर और उनके विज्ञापनों के मिलने से यहां की मीडिया इंडस्ट्रीज ज़रुर स्वस्थ हो रही है। यह अलग बात है कि बाद में कहीं वो डायबटीज़ के पेसेंट न हो जाएं।

अफ़रोज़ आलम साहिल

आर.टी.आई. अवार्ड्स पर प्रदीप प्रधान द्वारा अरविन्द केजरीवाल को लिखा गया एक पत्र...

Let’s share your facts about National RTI Award Ceremony-
An Open Letter to Mr. Arvind Kejriwal (15)

Dear Arvind,

New Year Greetings from Orissa

Over more than a month, we have been posting you with our findings on your National RTI Award, especially so far it related to the functioning of Orissa Information Commission. As you know, in course of those postings we showed how your survey was flawed not only in respect of Orissa Information Commission, but also in terms of its methodology, data base and conclusions. But regrettably enough, except only a single reply from your end and that too in initial days, we haven’t heard anything further on any of the questions raised by us- a fact, which puzzles us along with several RTI activists, who have been watching your Award story all through.


Be that as it may, what we seek to know from you at present is a detail report on the Award ceremony supposedly held on 1st Dec 2009 at Delhi. Your website (http://www.rtiawards.org) merely informs about who were selected in which of the categories (RTI citizen or PIO or Information Commissioner) to receive the award. But it offers no report on such details as venue, time and participants of the Ceremony etc. However, a news story titled ‘NDTV AND PUBLIC CAUSE RESEARCH FOUNDATION (PCRF) ANNOUNCE THE WINNERS OF FIRST RTI AWARDS’ available elsewhere (http://www.dishtracking.com/newsdetails.php?news_id=OTUz) informs a few details about the said ceremony along with a photograph showing Mr. Pranoy Roy offering awards to the winners. From this news story, we came to understand that while the citizen and PIO awardees were present on the occasion, no Commissioner was there to receive the award. Further, a PIB press release (http://www.pib.nic.in/release/rel_print_page1.asp?relid=54891
) carries only the text of the talk by Vice-President of India on the occasion, while remaining mute about other details of the ceremony held if any. It is but fair to beg of you a full story to be made available on your website on the RTI Award ceremony, if so held, informing specially the name of the Commissioners who happened to be present on the occasion.

Secondly, we have already informed you in our Open letter (14) that despite your announcement that the single award on Commission/Commissioner went to Arunachal Pradesh Information Commission, the Chief and State Information Commissioner of Orissa have given a false impression to the Minister I&PR, Orissa that they were awarded the Best Commission prize in the country and have received the award from him. A photograph showing the receipt of the award by the two Commissioners of Orissa from the Minister has been published by several local dailies including Pragativadi, the clipping of which was forwarded to you in our Open Letter (14). It is therefore imperative that a full, detailed report on the National Award Ceremony held at Delhi on 1st Dec last be published in your website in the interest of clearing the confusion once and for all.
With regards
Pradip Pradhan
State Convener
Right to Food Campaign, Orissa
Date- 6.1.09

आर.टी.आई. अवार्ड्स पर प्रदीप प्रधान द्वारा अरविन्द केजरीवाल को लिखा गया एक पत्र...

यह पत्र प्रदीप प्रधान ने अरविन्द केजरीवाल को दिनांक २८ नवम्बर २००९ को लिखा था। वैसे बताने वाले बताते हैं कि प्रदीप प्रधान कभी अरविन्द केजरीवाल के करीबी रहे थे। अब यह पत्र आपके समक्ष पेश कर रहा हूँ.....

Final Report on National RTI Awards: A Heap of Garbage- An Open Letter to Arvind Kejriwal (13)

Dear Arvind

The opening words of your Final Study Report say, “We had to collect all the orders passed by 28 Information Commissions in the country. While some orders were on their websites, for many commissions, we had to file RTI applications and sometimes make multiple trips to collect their orders”. (http://www.rtiawards.org/final_rti_study_report.html). So we thought, you must have meanwhile made amends to the skewed total in respect of orders passed by the concerned Commissions or Commissioners, based upon which you had released your interim percentages and rankings. You have also admitted on the above website, “Many people also pointed out specific mistakes in our analysis, which we have corrected before preparing this final report. We are particularly grateful to C J Karira from Andhra Pradesh and Pradeep Pradhan from Orissa for pointing out specific mistakes”. But are you true to your words? We say, not at all, and that too, despite our repeated reminder to you in this regard (Vide- Open Letter No.6 - Sanitize your data sheets first), to which you never cared to respond. Now we are sure, your gesture of ‘thanks giving’ is more a public relations exercise to save yourself than a genuine admission of inherent flaws in your survey accompanied by necessary correction in appropriate places.

To understand what we say, please glance at your State Fact Sheet for Orissa (http://www.rtiawards.org/images/statelist_pdfs/orissa.pdf), where you say, ‘the total number of cases analysed by us (as provided to us)- 643’ . And a little later on the said page, you have also admitted, “The Commission provided us with copies of all their orders in a CD”. It seems, you have not consulted the Commission’s website (http://orissasoochanacommission.nic.in/Quaterly%20decision.html), where the total number of orders for the year is a larger figure i.e. 672. It is not a matter of difference of 29 orders only that we are so much concerned with, but certainly with the larger question, i.e. what prevented you from relying on a public domain like Commission’s website, and made you instead cling to whatever data they offered to you privately on a CD?’. Even after getting the Data CD from the Commission, you could have very well cross-checked its authenticity against the data displayed on the Commission’s website. But you didn’t care to do that. And that too again, despite our abovementioned Open Letter wherein we had illustrated with specific instances how the concerned Commissioners had cooked up for you penalty cases out of non-penalty orders. In the State Fact Sheet for Orissa (
http://www.rtiawards.org/images/statelist_pdfs/orissa.pdf
), while dealing with deterrent impact, you have awarded 29.33% along with Rank-1 to Orissa Information Commission in the whole country. It seems, come what may, and be the figures supplied privately to you genuine or concocted, you are pre-determined to award 1st Rank to Orissa Information Commission, whose bleak records are best known to the RTI appellants/ complainants/activists of Orissa?

Just look! In your myopic enthusiasm for Orissa Information Commission, what a nauseating mess of stinking garbage you seemed to have embellished as your so-called Final Report! Just go to your page on ‘Disposal & Pendencies’ (http://www.rtiawards.org/disposals_pendencies.html) where you have presented in two separate columns Commissioner-wise and Commission-wise numbers of orders passed in 2008 and pendency as on 31st Dec. 2008. In the right column, you have mentioned the total number of orders passed by the Orissa Commission as 643, which is no doubt consistent with the total figure of analysed cases given in Orissa Fact Sheet. Now, look at the left column (Commissioner-wise) of the same page, where you have separately mentioned the numbers of orders passed inter alia by 3 Commissioners of Orissa (D.N.Padhi- 508, Jagadanand-192 and Radhamohan- 28) and simply add them up. It comes to a whopping 728! Far in excess of your 643 (exact difference being 85)! And, also in excess of the actual total i.e. 672 as per the website (exact difference being 56). Does your left hand tally with your right hand? Your quick-fix figure-works smack of the same quixotic Forest Officer of our State, who once in his over-enthusiasm to present a bright picture of plantation programme in the State showed more land area covered by the said programme than the total territory available to Orissa.

Apart from the mismatch between the two aggregates (left and right), which is certainly mind-boggling, the very intention of yours behind executing such a statistical jugglery smells foul against the RTI mantra i.e. transparency and authenticity. As any one can see for himself, you have showered extra favours individually to both DN Padhi and Jagadanand by arbitrarily allotting them exaggerated numbers 508 and 192 in respect of orders passed, in place of your own total figures 423 and 107 respectively as quoted in Orissa Fact Sheet (http://www.rtiawards.org/images/statelist_pdfs/orissa.pdf). The only non-beneficiary of your master manipulation seems to be a poor, retired Radhamohan, whose number 28 remains in tact in either place. What a buffoon you are! Or else, it appears to us, you in an avowed hurry to crown the award-maniac two Commissioners of Orissa, with whom you seem to have forged an under-the-table nexus, have deliberately bloated their figures of disposal and projected thereby an over-glorified performer’s image for each of them. Like the proverbial saying ‘Cat is out of bag’, you, however, by this act of foolhardiness made yourself as scandalous as the Orissa Commissioners themselves.

While we have a lot to say on the spurious methodology of your so-called National RTI Awards Survey, we like to wind up this open letter with another poser, and that too relating to Orissa again. You have mentioned, “Three of the parameters i.e. Pro-disclosure factor, Deterrent Impact and Disposals are straight from analysis and do not depend upon feedback. The other two parameters i.e. Overall Public Satisfaction and Effectiveness depend upon public feedback” (http://www.rtiawards.org/final_rti_study_report.html). In the State Fact Sheet for Orissa (http://www.rtiawards.org/images/statelist_pdfs/orissa.pdf), you have awarded to Orissa Commission 30 to 40 % on account of Overall Public Satisfaction, saying, “So, if 100 people approach Orissa Information Commission, pro-disclosure orders were given in 547 cases. Out of these, 30 to 40% people finally got information”. And on account of ‘Effectiveness’ you have awarded 40 to 50% to Chief Commissioner Mr.D.N.Padhi, saying, ‘It is slightly more than the national average of 30 to 40% …” . It is presumed that you have arrived at such firm percentages after collating the responses from the appellants/complainants of Orissa. But no where in your Final Report, the State-wise numbers or names of respondents are ever mentioned. In other respects such as Disposal/Pendency or Penalty, you seem to be talking in terms of both numbers and percentages. But, in respect of OPS or Effectiveness, you have been straightaway talking of percentages only. How can you directly talk of percentages sans the route passed through numbers? Anyway, can you make transparent on your website the list of respondents from Orissa, who in response to your mails expressed their ‘Overall Public Satisfaction’ to the extent of 30 to 40% or appreciated Mr.D.N.Padhi’s ‘Effectiveness’ to the extent of 40 to 50%? The reason for asking such information is, as we have told you already in course of an Open Letter, that several of us, who were the appellants/complainants before Orissa Commission in the year 2008 didn’t receive at all any mail from your end regarding the survey. Thus there is very much an anxiety lurking in the RTI circles that the award of percentages and ranks on OPS or Effectiveness to the Commissioners of Orissa’s might be as much of ‘cock and bull’ type as some other fictitious stuff of yours as mentioned above.


Looking forward to your kind response

With regards
Pradip Pradhan