शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

नीतिश के बिहार की तरक़्क़ी और मीडिया

यह कहने में कोई अतिश्योक्ती नहीं है कि बिहार खूब तरक़्क़ी कर रहा है। हर दिन विकास के नए-नए योजनाओं की घोषणाएं हो रही हैं। विकास कार्यों के विज्ञापन अखबारों में खूब छप रहे हैं। हर दिन किसी न किसी काम का शिलन्यास हो रहा है। यानी हम कह सकते हैं कि बिहार अब तरक़्क़ी को लात मार रहा है। इसके लिए बधाई के पात्र हैं हमारे ‘सुशासन बाबू’ यानी हमारे नीतिश कुमार जी।
लेकिन विकास की जो तस्वीर मीडिया ने बिहार व देश की जनता के सामने पेश की है, वो बिल्कुल ‘सच’ नहीं है। क्योंकि नीतिश जी के बिहार में एक ऐसा वार्ड भी है जहां विकास का कोई कार्य नहीं हुआ है। ये बातें मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि बिहार के पश्चिम चम्पारण ज़िला के “बेतिया नगर परिषद” सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत लिखित रूप में कह रही है।
यह बात कहने वालों की फहरिस्त लंबी है। पटना पश्चिम पथ प्रमंडल, पटना के अनुसार वर्ष 2005 से 2009 तक विधायकों द्वारा विकास कार्य का ब्यौरा और उन पर आने वाले खर्चों का ब्यौरा शुन्य है। उधर पथ प्रमंडल विभाग, पटना का भी कहना है कि इस प्रमंडल का कार्य-क्षेत्र पटना शहरी क्षेत्र है और वर्तमान कार्यकाल में विधायक-कोष से कोई भी कार्य नहीं हुआ है। पथ प्रमंडल, मुंगेर का कहना है कि पिछले 12 वर्षों के अंदर इस प्रमंडल के विधायक के ज़रिए विधायक फंड से कोई भी काम नहीं कराया गया है। पथ प्रमंडल, भागलपूर का कहना है कि एम.एल.ए. फंड से न तो पिछले सालों में कोई पैसा मिला है और न हीं वर्ष 2008-09 में ही। पथ प्रमंडल, बिहारशरीफ के मुताबिक इस प्रमंडल के अन्तर्गत विधायकों द्वारा विधायक-कोष ये कोई भी कार्य नहीं कराया गया है। शाहाबाद पथ प्रमंडल, आरा के अन्तर्गत भी विधायक निधी से कोई भी कार्य नहीं कराया गया है। यही बात पथ प्रमंडल, मोतिहारी, डिहरी-ऑन-सोन, जमुई, लखीसराय, बांका और नवादा भी कह रही है।
सूरसंड प्रखंड कार्यालय के मुताबिक वर्ष 2006-07 से लेकर वर्ष 2008-09 तक विकास का कोई भी काम नहीं हुआ है। प्रखंड विकास कार्यालय, पुपरी (सीतामढ़ी) यह बता रहा है कि सीतामढ़ी ज़िला के तहत पिछले सांसद के द्वारा एम.पी. फंड से कोई भी काम इस कार्यालय के द्वारा नहीं हुआ है। वहीं पुर्णिया विधुत अधीक्षक अभियंता कार्यालय पुर्णिया व किशनगंज के विकास कार्यों के संबंध में यह बता रहा है कि पिछले सांसद के फंड से “जमा योजना” के तहत 85,72,500/- रुपये उपलब्ध हुए हैं, लेकिन फिलहाल इस रुपये से विकास का कोई काम नहीं हो पाया है। किशनगंज के पूर्व सांसद के द्वारा एम.पी. फंड से कोई पैसा हासिल नहीं हुआ, इसलिए विकास के किसी काम का प्रश्न ही नहीं उठता।
खैर, सबसे खुशी की बात यह है कि इस बार के 15वीं लोकसभा चुनाव में बिहार में पहली बार मीडिया के माध्यम से विकास का मुद्दा हावी रहा और नीतिश को इसका ज़बरदस्त फायदा भी मिला। खुद नीतिश कुमार ने इस चुनाव में अपने को विकास का पहरुआ बताया और साथ ही केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया, यह कहते हुए कि “केन्द्र की यूपीए सरकार बिहार को वाजिब हक़ नहीं दे रही है। उल्टे राज्य की तरक़्क़ी केन्द्र सरकार के फंड से होने की बात यूपीए के नेता कह रहे हैं। इनका कहना सरासर झूठ और गलत है।” नीतिश के इस बात की मीडिया में काफी स्पेस मिला।
लेकिन बिहार सरकार के ही कागज़ात चुनावी मौसम के इस सियासी ज़बान की कुछ और चुगली करते नज़र आ रहे हैं। बिहार के विकास की एक अलग कहानी बता रहे हैं। उस तरक़्क़ी की, जिसके सहारे नीतिश कुमार ने 20 सीटें हासिल की है। बिहार सरकार से सूचना का अधिकार के तहत मिली जानकारी के ज़रिए यह साफ़ दिखाई देता है कि केन्द्र सरकार ने गत दो वर्षों में बिहार के नीतीश सरकार को जितनी मदद की है, उतनी लालू-राबड़ी सरकार को 6 वर्षों में भी नहीं। इतना ही नहीं, जानकारी यह भी बताती है कि पहली बार अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से राज्य को बड़ी मदद मिलने में सफलता तो मिली पर राज्य सरकार इस राशि को विकास के कार्यों पर खर्च करने में असफल रही है और मिले पैसों का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है।
आंकड़े बताते हैं कि एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान वर्ष 2003-04 में राज्य सरकार को केंद्र से 1617.62 करोड़ रूपए मिले थे। पर केंद्र में सरकार बदलने के बाद यूपीए ने राज्य सरकार को लगभग दोगुना पैसा देना शुरू किया। पहले ही वित्तीय-वर्ष यानी 2004-05 में केंद्र ने राज्य सरकार को 2831.83 करोड़ रूपए की राशि उपलब्ध कराई, ताकि बिहार तरक़्क़ी कर सके।
इसके बाद राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालें। भाजपा समर्थन से बनी इस सरकार को वर्ष 2005-06 में 3332.72 करोड़ रूपए केंद्र सरकार से मिले। वर्ष 2006-07 में 5247.10 करोड़ और इसके अगले वित्तीय-वर्ष यानी वर्ष 2007-08 में यह राशि बढ़ाकर 5831.67 करोड़ कर दी गई। इसके बाद के आंकड़े राज्य सरकार उपलब्ध नहीं करा पाई है पर अधिकारी मानते हैं कि केंद्र से मदद बढ़ी ही है। इस प्रकार राज्य सरकार से मिले आंकड़ों की बात करें तो यह बताती है कि वर्तमान राज्य सरकार को मात्र तीन वित्तीय वर्षों में ही 14411.50 करोड़ मिले, जबकि पिछली राज्य सरकार को पांच वित्तीय वर्षों में कुल 7984.56 करोड़ ही प्राप्त हुए।
एक तथ्य और है जो राज्य सरकार के विकास कार्यों पर होने वाले खर्च पर सवाल उठा देता है। आंकड़े कहते हैं कि पैसे लेने में चुस्त सरकार, उसे खर्च करने में सुस्त रही है।
राज्य सरकार को वर्ष 2006-07 में विश्व बैंक से गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के लिए 92.92 लाख मिले पर खर्च हुए कुल 60 लाख रूपए। अगले वित्तीय-वर्ष यानी 2007-08 में ग़रीबी उन्मूलन, लोक व्यय एवं वित्तीय प्रबंधन और बिहार विकास ऋण के लिए राज्य सरकार को 464.15 करोड़ रूपए मिले पर दस्तावेज़ बताते हैं कि राज्य सरकार ने इनमें से सिर्फ 6.13 करोड़ रूपए ही खर्च किए हैं। इसके अगले वर्ष नीतिश जी को कुछ अक़्ल आई और पैसे को किसी तरह से इस्तेमाल करने की कोशिश की। इस वर्ष यानी 2008-09 में विश्व बैंक ने 13.35 करोड़ रुपये बिहार सरकार को दिए और सरकार ने 20.95 करोड़ खर्च करने का कारनामा अंजाम दिया।
नीतिश कुमार के झांसे में अल्पसंख्यक भी रहे। जिन पैसों को अल्पसंख्यक छात्रों के बीच स्कॉलरशिप के रुप में बांट कर अपनी पीठ थपथपाई, दरअसल वह पैसे केन्द्र की यूपीए सरकार ने अपनी स्कीम के तहत उपलब्ध कराई थी। बिहार सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण विभाग द्वारा सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के मुताबिक बिहार में वर्ष 2007-08 के दौरान कुल 3,72,81,738/- रुपये मेधा-सह-आय आधारित योजना के अन्तर्गत अल्पसंख्यक छात्र/छात्राओं के बीच केन्द्र सरकार ने बांटे, न कि बिहार सरकार ने। 15 अगस्त 2008 को नीतिश कुमार ने मुस्लिम गरीब बच्चों के लिए ‘तालीमी मरकज़’ खोलने का ऐलान किया। लेकिन जब बिहार सरकार से सूचना अधिकार कानून के तहत यह पूछा गया कि अब तक कितने ‘तालीमी मरकज़’पूरे बिहार में खोले गए हैं, तो बिहार सरकार ने इस संबंध में कोई जानकारी देना मुनासिब नहीं समझा।
बहरहाल, अल्पसंख्यको के उत्थान एवं विकास के लिए नीतीश सरकार ने कई कार्य किए। जिनकी फहरिस्त भी लम्बी है। जैसे:- 1) अल्पसंख्यक छात्रावास का निर्माण, 2) अल्पसंख्यक भवन-सह- हज हाउस, 3) राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम को हिस्सा पूंजी, 4) बिहार राज्य अल्पसंख्यक वित्तीय निगम को हिस्सा पूंजी, 5) वक्फ सम्पत्ति के सर्वे का कम्पयूटराईजेशन, 6) कॉलेज में पढ़ रहे छात्र/छात्राओं को छात्रवृति, 7) लोक सेवा आयोग की तैयारी हेतु कोचिंग, 8) वक्फ सम्पत्ति की सुरक्षा एवं संवर्द्धन हेतु रिवालविंग फंड, 9) परित्यक्ता मुस्लिम महिलाओं को सहायता हेतु राशि। पर इन सभी योजनाओं पर वर्ष 2005-06 में खर्च हुए सिर्फ 12,53,72,450/- रुपये, जबकि वर्ष 2006-07 में 19,64,85,100/- रुपये और वर्ष 2007-08 में 21,05,46,400/- रुपये खर्च हुए। जबकि बिहार में अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग दो करोड़ है। अब इस खर्च से ही आप अंदाज़ा लगा लीजिए कि ये बिहार में अल्पसंख्यकों की इतनी बड़ी आबादी को कितना फायदा पहुंचा सकता है।
नीतीश सरकार ने बिहार के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों की आर्थिक नस दबा रखी है। इसके लिए सरकारी विज्ञापनों को जरिया बनाया है। क्योंकि राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह बताते हैं कि वर्तमान राज्य सरकार का काम पर कम और विज्ञापन पर ज़्यादा ध्यान रहा है। बिहार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा वर्ष 2005-09 के दौरान यानी नीतिश के कार्यकाल के चार सालों में लगभग 38 हज़ार अलग-अलग कार्यों के विज्ञापन जारी किए गए और इस कार्य के लिए विभाग ने 44.56 करोड़ रुपये खर्च कर दिए, जबकि लालू-राबड़ी सरकार अपने कार्यकाल के 6 सालों में सिर्फ 23.90 करोड़ ही खर्च किए थे।
तो ज़ाहिर है कि नीतिश के कार्यकाल में सबसे ज़्यादा फायदा यहां के मीडिया उधोग को हुई है। इसलिए वो ‘विकास’ के पीछे के सच को जनता के सामने लाना मुनासिब नहीं समझते। इन्हें इस बात का डर है कि अगर इन सच्चाईयों पर से पर्दा उठा दिया तो सरकारी विज्ञापनों से हाथ धोना पड़ सकता है। (क्योंकि राज्य विज्ञापन नीति ( स्टेट एडवर्टिजमेंट पॉलिसी)- 2008 के तहत अगर किसी मीडिया संस्थान का काम राज्य हित में नहीं हैं तो उसे दिये जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं। उसे स्वीकृत सूची से किसी भी वक़्त बाहर किया जा सकता है।) इस बात का अहसास मुझे तब हुआ, जब पूरे कागज़ात व सबूत के साथ उपरोक्त सच्चाईयों को दिल्ली के दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित करने को दिया। लेते वक़्त तो इसे बहुत बड़ी ख़बर बताई गई, लेकिन अगले ही हफ्ते यह बताया गया कि यह स्टोरी हमारे अखबार में नहीं छप सकती। कारण मालूम करने पर पता चला कि पटना के संपादक इसे छापने को तैयार नहीं हैं। राष्ट्रीय सहारा हिन्दी से यह मालूम हुआ कि वो उस राज्य सरकार के खिलाफ कुछ भी प्रकाशित नहीं कर सकते, जिस राज्य से उनका अखबार प्रकाशित होता है। इसके बाद इस स्टोरी को नई दुनिया को भेजा, लेकिन उन्होंने भी इसे न छापने में अपनी भलाई समझी। इसके अलावा हमारी बात बिहार के कुछ पत्रकारों से भी हुई, जिन्होंने इसे छापने से मना कर दिया। यहीं नहीं, इस स्टोरी के संबंध में मेरी बात एनडीटीवी के प्रसिद्ध पत्रकार से भी हुई, जिन्होंने इसे अच्छी स्टोरी बताते हुए इसे अपने चैनल पर दिखाने के वादे के साथ टाल गए। बहरहाल, इस खबर की अहमियत को सिर्फ बीबीसी और उर्दू मीडिया के एक दो अखबारों ने समझी। उन्होंने अपने वेबसाईट और अपने अखबार के पहले पन्ने पर जगह दिया, जिसका ज़िक्र एक स्वतंत्र पत्रकार ने दैनिक हिन्दुस्तान में अपने कॉलम “उर्दू मीडिया” में किया।
बात यहीं खत्म नहीं होती। जिन विकास कार्य के नाम पर करोड़ों खर्च किए गए हैं, उस विकास कार्य की जानकारी आम लोगों को कौन कहे, यहां के पढ़े-लिखे लोगों तक को नहीं है। जैसे बीमार बिहार को स्वस्थ करने की नियत से शुरु की गई कॉल सेंटर “समाधान” का उदाहरण ही आप देख लीजिए। खैर बिहार की जनता स्वस्थ हो न हो, कम से कम सरकारी अफसर और उनके विज्ञापनों के मिलने से यहां की मीडिया इंडस्ट्रीज ज़रुर स्वस्थ हो रही है। यह अलग बात है कि बाद में कहीं वो डायबटीज़ के पेसेंट न हो जाएं।

अफ़रोज़ आलम साहिल

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