सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

वैलेंटाइन डे और मीडिया

फ़रवरी की 14 तारीख.... वैलेंटाइन डे.... और पूरी मीडिया ‘वैलेंटाइनमय’..... लोगों को ‘वैलेंटाइन डे’ से संबंधित तरह-तरह की जानकारियां दी जा रही थीं। ‘लव-बड्स’ की अश्लीलता भरी बड़ी-बड़ी तस्वीरों से अखबारों के पन्ने भरे पड़े थे। अपने ‘प्रेमिका’ को प्रपोज़ करने के बेशुमार तरीक़े बताए जा रहे थे। बल्कि सच पूछिए तो ये सिलसिला फ़रवरी महीने के शुरू होते ही शुरू हो चुका था और फिर बाद में ‘फॉलो-अप’ का सिलसिला भी चलता रहा। ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पीछे कहां रहने वाली है। यहां भी तरह-तरह के प्रसंगों को दिखाया जा रहा था। सारे चैनलों पर तरह-तरह के कॉन्टेस्ट, कॉमेडी शोज़, वैलेंटाइन मैसेज़ कॉन्टेस्ट व वैलेंटाइन डे स्पेशल म्यूज़िकल शोज़ आदि-अनादि हावी थे। ज़रा सोचिए! अगर पुणे बम ब्लास्ट न हुआ होता तो फिर ये क्या करते...? शायद इसकी कल्पना हमारे व आपके समझ से बाहर है। इसका अंदाज़ा हम व आप लगा ही नहीं सकते।
दरअसल, संत बैलेंटाइन की याद में मनाया जाने वाला ‘वैलेंटाइन डे’ महज़ दिल लेने और दिल देने भर का त्यौहार नहीं, बल्कि मुहब्बत को एक इसेंशियल बिज़नेस कमोडिटी में परिवर्तित करने का उपक्रम भी है। यह आर्थिक उदारीकरण का भी एक सह-उत्पाद है। ‘डेवलपिंग जेनेरेशन’ बन रही पीढ़ी की पहचान हासिल कर रही एक प्रवृति है। वैलेंटाइन डे एक ऐसा त्योहार है, जिसे हम सही मायनों में भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक उत्पाद मान सकते हैं। एक पूरी तरह से गढ़ा हुआ कारोबारी त्योहार।
एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री ‘फ्रैंक काफरा’ ने जेनेवा के एक बैठक में कहा था कि दुनिया में आर्थिक गतिविधियों के बढ़ने के लिए, भूमंडलीकरण के विस्तार के लिए ज़रूरी है कि पूरी दुनिया में समान सांस्कृतिक गतिविधियां बढ़े, साझे सरोकार विकसित हों, साझी स्मृतियां और साझी संवेदनाएं विकसित हों। देखा जाए तो वैलेंटाइन डे कुछ-कुछ ‘फ्रैंक काफरा’ की साझी सांस्कृतिक गतिविधियों की अमूर्त कल्पना का ही त्योहार है। इस भूमंडलीकृत विश्व में यदि किसी एक सांस्कृतिक प्रतीक को चिन्हित करने के लिए कहा जाए तो शायद ही ‘वैलेंटाइन डे’ से बढ़िया कोई प्रतीक मिले। कांगो के बेसिन से लेकर कावेरी के तट तक शायद ही दूसरा ऐसा त्योहार हो जिसके मनाने वाले इतने विविध, इतने रंग-बिरंगे और इतनी ज़्यादा स्मृतियों वाले हों। यहां तक कि इस मामले में ‘हैटिंग्टन’ की थ्योरी भी एक तरह से देखें तो फेल दिखती है। ‘हैटिंग्टन’ कहते हैं कि दुनिया लगातार सांस्कृतिक आग्रहों के सभ्यागत दायरे में सिमट रही है। इसीलिए तमाम सभ्यताओं के बीच द्वंद की स्थिति पैदा हो गई है।
खैर इन्हीं अखबारों में विरोध की भी बहुत सी खबरें देखने को मिली, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इन खबरों को खुब परोसा, पर इनके दिखाने के अंदाज़ से ही ऐसा लग रहा था कि वो भी इन विरोधों का विरोध कर रहे हैं और वैलेंटाइन डे का समर्थन। बहरहाल, बात विरोध की हो या समर्थन की, सच तो यही है कि आधी-अधूरी ऐतिहासिकता वाली यह पर्व स्वतः स्फूर्त नहीं है। इसमें आधुनिक तकनीक, प्रबंधन की नायाब कला और कारपोरेट पूंजी की असीम ताक़त का सोचा-समझा मिश्रण है और अगर बात ‘मीडिया’ की बात की जाए तो उन्हें आज सामाजिक सरोकारों से कोई खास लेना-देना रह नहीं गया है। सच तो ये है कि मीडिया ‘पब्लिक’ के लिए नहीं, सिर्फ अपने ग्राहकों के हितों का ध्यान रखने की ओर उन्मूख हो चला है। वैसे भी मध्य वर्ग के लिए मीडिया एक प्रोडक्ट से अधिक कुछ नहीं है।
यही कारण है कि ‘वैलेंटाइन डे’ का कारपोरेट जगत द्वारा खुब प्रचारित किया गया ताकि इस अवसर पर प्यार के मारे बेवकूफ़ों को गुमराह बनाकर इस साल हज़ारों-करोड़ रुपयों का बिज़नेस किया जा सके। (पिछले वर्ष लगभग तीन हज़ार करोड़ रुपयों का कारोबार हो पाया था, और उससे पहले वर्ष 14 सौ करोड़ रुपये का) और मीडिया ने भी इस बहती गंगा में हाथ धोने के खातिर कारपोरेट जगत का खुब साथ दिया।
अब ज़रा आप स्वयं सोचिए कि जब कारपोरेट जगत व मीडिया दोनों का एक ही मक़सद हो तो ‘वैलेंटाइन डे’ क्यों पूरे देश में न फैले...? ऐसे में विरोध करने वालों और समाज के ज़िम्मेदार लोगों (जो संस्कृति की दुहाई देते हैं) को चाहिए कि वे समाज के साथ-साथ मीडिया का भी ‘सोशल ऑडिटिंग’ करें, क्योंकि जब तक मीडिया में ‘समाजिक जवाबदेही’ की प्रतिबद्धता पैदा नहीं होगी तब तक ‘प्रोफेशनलिज़्म’ और ‘आधुनिकीकरण’ के नाम पर ‘वैलेंटाइन डे’ जैसे त्योहार को बढ़ावा मिलता रहेगा।

अफ़रोज़ आलम साहिल

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