रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हम लड़ेंगे साथी.....

दिलवालों की दिल्ली... नवाबों की दिल्ली... धड़कती दिल्ली... दुनिया है दिल्ली... दिलदार दिल्ली.... अब कॉमनवेल्थ गेम्स की दिल्ली बन चुकी है। इस कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर सरकार की इसे पेरिस बनाने का सपना साकार हो ना हो, लेकिन इस कॉमनवेल्थ गेम्स ने कितने गरीबों के सपनों को चकनाचूर किया है, इसका कोई अंदाज़ा नहीं लगाया गया।


गरीबों के इन्हीं टूटते-बिखरते सपनों पर केन्द्रित 37 मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म (वृत्त चित्र) “नई दिल्ली प्राईवेट लिमिटेड” जिसका निर्देशन ‘रविन्द्र एस। रंधावा’ और शोध कार्य दिल्ली की ‘हज़ारड सेन्टर’ ने किया है, पिछले दिनों दिल्ली विश्वविधालय व बवाना पुनर्वास कॉलोनी में देखने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। (हालांकि यह फिल्म दिल्ली व मध्य-प्रदेश के कई स्थानों के अलावा “VIBGYOR” इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई जा चुकी है।)
इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म की शुरूआत दिल्ली के मंडावली, नंगला माची, वज़ीरपूर, बनूवल नगर, तैमूर नगर और बवाना के लोगों का शुक्रिया अदा करते हुए आम आदमी के दर्द से हुई है, और फिर शुरू होता है दिल्ली की चमक-दमक और बड़े लोगों (एस। रघुनाथम, सीता रैन, सी.आई.आई. के वाईस चेयरमैन, नलीन एस.कोहली, विक्रम चंद्रा, अंकुर भाटिया, प्रोविर डे एवं ई.श्रीधरन आदि-अनादि) के सपने व विज़न...


इस प्रकार इस पूरी फिल्म में अमीरों व गरीबों के बीच होने वाले जंग को बड़े दिलचल्प अंदाज़ में पेश किया गया है। यह फिल्म लोकतंत्र के समक्ष कई सवाल खड़े करती है- “ क्या हम इस धरती पर बोझ की तरह हैं कि हर कोई हमें शहर से निकालना चाहता है...? क्या हमारी वजह से ही नदी मैली होती है, बीमारी फैलती है, कुकर्म बढ़ता है, और सारे मोहल्ले में सड़न की बू आती है... ? ”


“ ज़रा सोचिए! शहर में हमारा क्या हाल होता होगा, जहां पीने की पाईप नहीं, नाली नहीं, बिजली औने-पौने आता हो, एक बारिश में सारी बस्ती डूब जाती हो, पानी मटमैला पीते हैं, और निकासी की कोई जगह न हो। और कौन सा ईंधन जला रहे हैं कि गर्मी फैल रही है...? काम पर जाते हैं तो कौन हमारे लिए एयर कंडीशन गाड़ी लेकर खड़ा है... ? वही चप्पल चटकाओ या साईकिल का पैडल घुमाओं, दूर जाना हो और जेब भारी हो तो बस में धक्के खाओ। हम सारे समाज काम करते हैं। शहर चलता है तो हमसे। फिर भी हमें ही बेघर क्यों किया जाता है... ? हमारे वोट से चुना हुआ नेता बिल्डरों के इशारे पर नाचता है। राजा स्वामी, बापू आशाराम, जगदीश टाइटलर जैसे लोग सरकारी ज़मीनों पर कब्ज़ा रखा है। 29 असंवैधानिक कब्ज़ा यमूना के किनारे हैं, उन्हें खाली क्यों नहीं कराया जाता... ? 30-40 साल हमने यहीं गुज़ार दिया, घर भी छोड़ दिया, गांव भी छोड़ दिया, आखिर अब जाए तो कहां जाएं... ? ”


बीच-बीच में आंकडों का इस्तमाल इस फिल्म को ज्ञानवर्धक बनाने का कार्य करता है। साथ ही यह फिल्म पुलिस वालों के ज़ुल्म को उजागर करती है। देश के कानून-व्यवस्था व सरकार पर कई सवाल खड़े करती है। पुनर्वास के नाम पर होने वाली धांधली को बताती है। बच्चों के शिक्षा की चिंता और विस्थापन के दर्द को दिखाती है।


इस पूरी फिल्म का कैमरा भी निर्देशक ‘रविन्द्र एस. रंधावा’ ने ही किया है। उन्होंने इस फिल्म के माध्यम से इस बात पर ज़ोर दिया है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर हज़ारों करोड़ रूपये खर्च हो रहे हैं, जो जनता का पैसा है, और गरीबों को शहर में रहने का पूरा हक़ है। यदि उनके हक़ को छिना गया तो वो कुछ भी कर सकते हैं। इस प्रकार अवतार सिंह ‘पाश’ की चंद पंक्तियों के साथ यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म खत्म होती है----


“......हम लड़ेंगे साथी, कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे साथी, कि अब तक हम क्यों नहीं लड़े......”



अफ़रोज़ आलम ‘साहिल’

1 टिप्पणियाँ:

Mukesh Chourase ने कहा…

bahut achchha laga, aap kaam karte rahe meri help hamesha aap ke taiyaar hin. thanks
mukesh chourase