भोपाल गैस त्रासदी पर अदालत के ताजे फैसले के बाद राजनीतिक दलों के बीच एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है, लेकिन लोगों के बीच हितैषी का चेहरा देखने वाली राजनीतिक पार्टियों का चरित्र इतना ईमानदार भी नहीं है।
पाणिनी आनंद
कांग्रेस की तत्कालीन राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को लगातार इस मुद्दे पर घेरती आ रही भाजपा को भले ही आप पीड़ितों के प्रति आंसु बहाते हुए देंखे, लेकिन सरकारी दस्तावेज कुछ और ही चुगली करते हैं।
जी हां, वर्ष 2006-2007 में राजनीतिक दलों ने अपने चंदे का जो ब्योरा चुनाव आयोग के पास दिया है। उसके मुताबिक भारतीय जनता पार्टी ने डाओ कैमिकल्स से एक लाख रुपये का चंदा स्वीकार किया है। यह चंदा सिटी बैंक के ड्राफ्ट नंबर 9189 के जरिए पार्टी कोष में जमा कराया गया।
आपको ध्यान दिला दें कि डाओ कैमिकल्स वहीं अंतरराष्ट्रीय कंपनी है, जिसने यूनियन कार्बाइट का अधिग्रहण किया है, जो आज भारत में यूनियन कार्बाइट का मालक है। ऐसे में जिस कंपनी का दामन भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोगों के खून से रंगा हो, राजनीतिक दल उससे चंदा कैसे ले सकते हैं।
यह उसी भारतीय जनता पार्टी के खातों का सच है, जिसके नेताओं में त्रासदी के बाद से अब तक कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए उसे घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ा।
ताजा फैसले के बाद अब जबकि यह बात सामने आ रही है कि केन्द्रीय नेतृत्व से लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह तक का रवैया वॉरेन एंडरसन के प्रति लचीला रहा। भाजपा ने एकबार फिर कांग्रेस को घेराना शुरू कर दिया है।
सवाल है कि क्या कोई भी राजनीतिक दल पिछले 26 बरसों में भोपाल गैस त्रासदी के मुद्दे पर वाकई गंभीर और ईमानदार रहा है? ताजा दस्तावेजों को देखकर तो ऐसा नहीं लगता।
ऐसा क्यों है कि जनता के सामने जो आंसू चिंता, दुख और वेदना के नजर आते हैं, वहीं चंदा लेते समय सूख जाते हैं। इन घड़ियाली आंसुओं की क्या वजह है? क्यों सत्ता का चरित्र चंदा या पैसा लेते समय नैतिकता की सीमाओं को भूल जाता है।
कहीं डाओ कैमिकल्स से पैसा लेना इस बात की ओर इशारा तो नहीं करता कि राजनीतिक दलों के फैसलों, उनकी विचारधारा और सिद्धांतों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसी कदर सेंध लगा चुकी हैं। क्या ऐसी ही तमाम वजहें भोपाल गैस पीड़ितों को न्याय मिलने में देरी और उनके कमजोर मुकदमे के लिए जिम्मेदार तो नहीं?
इतना तो साफ कि कांग्रेस हो, भाजपा या कोई और राजनीतिक दल भोपाल गैस पीड़ितों को न्याय दिलाने के प्रति किसी में भी न तो राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई देती है, न ही इस दिशा में कोई ठोस और ईमानदार प्रायस की कोशिश और न ही नैतिक और सैद्धांतिक सच्चाई।
मध्यप्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में तो इस राजनीतिक दलों ने भोपाल गैस पीड़ितों के मुद्दे को अपना मुद्दा तक नहीं बनाया। क्या 15 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले लेने वाले मुद्दे के प्रति राजनीतिक दलों की उदासीनता उनकी नीयत की सच्चाई की कलई नहीं खोलती? कहीं ऐसा तो नहीं कि भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए 15 हजार से ज्यादा लोगों का कफन केवल राजनीतिक अवसरवादिता का परचम लहराने के लिए इस्तेमाल हाता रहा है?
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